व्यंग्य : तिरछी नज़र ऑनलाइन डर

हीनों बाद शहर अनलॉक क्या हुआ, मन में बैठा डर भी अनलॉक होकर कही फुर्र हो गया। सब लोग चैन की साँस ले पा रहे हैं। लम्बे संघर्ष के बाद मिली जीत जैसी फीलिंग है। ऐसे में मौसम गुलाबी और चाल नवाबी होना लाजिमी है।

सड़कों पर पहले जैसी चहल - पहल शुरू हो गई है। बाजारों की रौनक लौट आई है |[ख्वाहिशों का परिंदा पर फड़फड़ा रहा है [खुशी से झूमते लोग अपने - अपने घर से बेखौफ बिना बॉडीगार्ड के - अर्थात्जेड श्रेणी जैसी पुख्ता सुरक्षा देने वाले मास्क भईया की अँगुली छोड़कर बेधड़क बाहर आने - जाने लगे हैं।

बेफिक्री का आलम क्या, मैं क्या कहूँ, .? इर्द - गिर्द नजरें घुमाकर कोई भी देख सकता है। ये बात और है कि उनकी मस्ती में खलल डालने और ज्ञान बघारने का घनघोर पाप भी कुछ ज्ञानी टाईप के लोग कर रहे हैं।

ज्ञान बाँटने से बाज नहीं रहे हैं पर ज्ञान की मुफ्त पुड़िया लेना कौन चाहता है?्मुफ्त में मिली जिन्दगी को कितने लोग अनमोल समझते हैं? यही नहीं... हवा, पानी, पेड़ वगैरह जैसी अनगिनत मुफ्त की चीजे जब हमारी नजरों में कोई मायने नहीं रखती तो यह ज्ञान किस खेत की मूली है?

टरने वाले टरते रहते हैं, लोग अनलॉक जिन्दगी का मजा लेने में मशरूफ रहते हैं। कोरोना जंग के अद्वितीय योद्धा मास्क भैया आखिर कितने दिनों तक हेड लाइन बने इतराते रहते ? इनकी हालत महाभारत युद्ध समाप्ति के बाद भगवान श्रीकृष्ण जैसी है।

आज इनकी खोज खबर लेने वाला कोई नहीं घर के कमासुत बुजुर्ग की तरह एक काने में चुपचाप दुबके टुकुर - टुकुर सबको आते - जाते देखते रहते हैं।

दबी जुबान से कभी अपनी वीरगाथा याद दिलाना चाहते हैं पर फुर्सत किसे है उनकी व्यर्थ की बातें सुनने की...? कई बार तो बहुत ही गिड़गिड़ाते हैं, सबके हाथ पाँव जोड़ते हैं, रटते हैंऐ बचवा! हमें भी अपने साथ ले चले। हम तुम्हारे रक्षक हैं। मेरे रहते तुम पर कोई आँच नहीं आएगी...बहुरूपिया कोरोना अभी दूर नहीं गया होगा। मन कहता है इधर ही कहीं छिपा होगा। उसकी शिकारी निगाहें हमेशा तुम्हारी लापरवाही पर ही टिकी रहती हैं।

कभी भी, कहीं भी, पलटवार कर देगा। पहले से ज्यादा चोट करेगा पर...? बुजुर्गों के मशविरे सुनने की फुर्सत और चाहत किसके पास है?

इंसान के अंदर तो कुदरत प्रदत्त ऑटोमैटिक इरेजर होता है |उसे पता भी नहीं चलता... और दुःख - दर्द के सभी निशान मिट जाते हैं |बचे - खुचे अवशेष विस्मृति के डिब्बे में स्वतः ढूंसा जाते है।

उदाहरण देखिए...कोरोना पूरी तरह विदा भी नहीं हुआ...लोग उसके जुल्मो सितम बिसरा दिये। बीते दिनों की तमाम खूबसूरत नसीहतें जानें कहाँ फरार हो गईं ? सच ही कहते हैं... डर - डर कर जीना भी कोई जीना है। हम मानव, ईश्वर की सर्वोत्तम कृति... भला पिंजरे में कब तक कैद रह सकते हैं ? जब तक शिकारी कोरोना झपकी ले रहा है, हम भी थोड़ा सा मौज - मस्ती कर लेते हैं। भाड़ में जाए सोशल डिस्टेंसिंग और कोरोना प्रोटोकॉल... फिलहाल मुंह का स्वाद फीका लग रहा है |महीनों से कहीं घूमने फिरने भी नहीं गए। आवश्यक है बाहर चलकर कुछ नया खाकर मुंह का स्वाद बदला जाए। सैर - सपाटे का लुत्फ उठाया जाए। कोरोना वायरस भी क्‍या याद करेगा... कितने दिलेर शिकार से पाला पड़ा है ? उसे समझ आ जाना चाहिए कि इंसान मर सकता है पर डरकर नहीं जी सकता | हम पहली, दूसरी लहर तो देख ही चुके हैं, तीसरी भी देख लेंगे। हमारे शास्त्र भी वर्तमान में जीने की वकालत करते हैं।

अतीत को याद कर मन कड़वा क्‍या करना?और भविष्य की चिंता करके आज को गंवाने का कोई लॉजिक नहीं।

वैसे भी तीसरी लहर की सुनामी से बचाने के लिए तरकश में कुछ तीर हमारे पास मौजूद है... सरकार को पानी पी पीकर गरियाएंगे। स्वास्थ्यकर्मियों को धमकाएंगे, बात नहीं बनी तो दो – चार हाथ कर लेंगे। कसम से हालात बिगाड़ने का जिम्मेदारी अपने सिर कभी नहीं लेंगे। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति हैं |जब हमारा रचयिता ईश्वर ही किसी घटना की जिम्मेदारी अपने सिर नहीं लेता, तो हम क्‍यों ले? गंगा में डुबकी लगाकर हम सिर्फ नहा नहीं रहे, अपने मन में छिपे डर को सिरा कर भयमुक्त हो रहे हैं।

- मीरा सिंह मीरा 

डुमराँव, बक्सर (बिहार)