देना पड़ेगा जवाब ?

2019 के अन्त में भारत ने अभूतपूर्व परिस्थितियों को झेलते हुए कोरोना महामारी का परिचय पाया और तब से अब तक कितने ही प्रियजनों को हम अपने बीच से जाते हुए देख चुके हैं | ऐसे -ऐसे दर्दनाक मंजर आँखों के सामने आये हैं कि आँसू तक कम पड़ गये हैं |कुछ ही समय पहले मैं ऐसे श्रद्धांजलि सभा की सूचना सुन रहा था जिसमें पिता की मृत्यु हुई और उससे मात्र लगभग पंद्रह दिन पहले उस पिता ने अपना पुत्र खोया था |

पिता के सामने बेटा मृत्यु को प्राप्त हो जाए ,अत्यंत पीड़ादायक है लेकिन पीड़ा का यह दौर न तो यहाँ से शुरू हुआ है और न ही अंतिम है |

कल मैं एक समाचार में कोरोना के कारण अनाथ हो गये बच्चों की संख्या के आंकड़े  पढ़ रहा था |आँकड़े तो निर्जीव थे लेकिन उस संख्या के आस-पास जो श्वेत रंग फैला था वह परिस्थतियों की  मौन भयावहता  को प्रकट कर रहा था |उन बच्चों का रुदन एक दिन का रुदन नहीं  है,बल्कि निश्चिंतता के उजाले से अनिश्चिंतता के अनंत अंधकार में प्रवेश का दर्द आंकड़ों के आँचल में समेटे हुए था |

सरकार तो राहत का कोई न कोई मार्ग खोजती ही है,लेकिन उसकी रफ़्तार प्रायः पीड़ा की लपटों में जल की छोटी सी बूँद के समान निराश करने वाली है |सरकारी राहत की यह रफ़्तार जनता के लिए अंजानी नहीं है |उसमें बहुत सारे विरोधाभास पहले भी थे और अब भी हैं |यह तथ्य देखकर ह्रदय से प्रार्थना निकलती है कि काश,सत्ता के दावे  और आश्वासन सत्य सिद्ध होते |

मुझे तो उन सत्ताधीशों के आचरण पर हैरानी होती है जो ,अतीत में किसी मठ के स्वामी थे और अब राज्य के मुख्यमंत्री भी हैं लेकिन सिर्फ मास्क न पहनने पर भारी चालान घोषित कर चुके हैं |यह तो यथार्थ है कि जनता को लापरवाही नहीं करनी चाहिए थी लेकिन यह जानते हुए भी कि किसी भी नयी आदत के प्रचलन में समय लगता है ,पहली बार मास्क न पहनने पर एक हज़ार रूपये का जुर्माना लगा दिया और दूसरी बार में दस हज़ार रूपये का |निरंतर घटती आमदनी और बढ़ती महंगाई के बीच कोई इतना चालान कैसे भरेगा ,सोचने की बात है | 

रोजगार की राष्ट्रीय समस्या  हल  होने की तो दूर-दूर तक कोई संभावना नज़र नहीं आ रही है है फिर इतना बड़ा चालान कोई कैसे देगा ,सोचने की बात है |

स्वामी जी दयालु भी हैं,ऐसा प्रमाण तो अभी तक मिला नहीं जबकि धर्म कहता है-दया धर्म का मूल है |यदि आप दयालु नहीं हैं तो आप धार्मिक नहीं हो सकते |

सत्ता और सत्ताधीशों की अपनी मजबूरियां होती हैं इसलिए श्मशान घाटों के सामने परदे लगा दिये जाते हैं लेकिन मुझे पीड़ा उन शवों की हैं जो साधन संपन्न होने के बावजूद जीवित न रह सके और जो अभी जीवित हैं वे दवाइयों के मनमाने दाम वसूल रहे हैं |

विरोधाभास देखिये कि  जो ज़रूरतमंदों की मदद कर रहे हैं, वे जमाखोरी के आरोप और अवमानना के रूप में अघोषित सजा झेल रहे हैं |

ब्रिटिश सरकार के कार्यकाल के अंतिम दौर में भारत में प्लेग की महामारी फैली थी जिसके दर्दनाक चित्र इंटरनेट पर मौजूद हैं लेकिन तब भी परोपकारियों को सम्मान के स्थान पर प्रताड़ना का शिकार नहीं होना पड़ा होगा |

यह विरोधाभास चाहे सरकारों के हों या जनता के हमें याद रखना होगा कि कफ़न में जेब नहीं होती और सबको कभी न कभी खुदा के पास अवश्य जाना होगा इसलिए-

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रामकुमार सेवक