रामकुमार सेवक
मुंशी प्रेमचंद हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकार हैं |उन्होंने गाँव-देहात की सच्ची तस्वीर दर्शायी है | उनकी कहानियों में जिस गरीब लेकिन ईमानदार किसान का चित्रण किया है,वह गुलामी के दिनों का किसान है |वह सीधा-साधा ,सरल और ईमानदार है |वह भोला-भाला होता है,इसलिए ठग लिया जाता है | उनकी कहानी पूस की रात को आप देख सकते हैं ,जिसमें किसान इतना गरीब है उसके पास सर्दी में सोने के लिए कम्बल भी नहीं है |
छह महीने पहले जबकि किसान आंदोलन चरम पर था हमारे शहरी मित्र और साथी उन पर संदेह करते थे | मीडिया के दुष्प्रचार के प्रभाव में आकर उन्हें विदेश समर्थित आतंकवादी ,आन्दोलनजीवी और न जाने क्या -क्या कह रहे थे |
उन दिनों सरकारी दफ्तरों में प्रायः दो वर्ग हो गये थे | एक वर्ग ,जिसकी जड़ें गाँव -देहात में थीं वह किसानो को भूमिपुत्र और अन्नदाता मानता था |इसके विपरीत जिसका गाँव से कोई सम्बन्ध नहीं था ,जो सत्ताधारी दल का मतदाता था ,कहता था कि ये किसान नहीं हैं बल्कि वे लोग हैं जो देश की तरक्की के खिलाफ हैं |
मुझे अक्सर ही ऐसी बहसें सुनने का मौका मिलता था और मुझे यह देखकर हैरानी होती थी कि लोग सत्य से कितने ज्यादा दूर हैं |
सिंघु बॉर्डर पर जहाँ ज्यादातर पंजाब और हरियाणा के किसान थे , समृद्ध लोग थे |मीडिया का एक वर्ग उनके खिलाफ था |उसका कहना था कि ये लोग मक्खन और घी खाते हैं |ऐश से रहते हैं |इनके बड़े-बड़े ट्रेक्टर हैं तथा ये और इनके बच्चे एंड्रॉइड फोन इस्तेमाल करते हैं |
मीडिया का एक वर्ग किसानो के समर्थन में था चूंकि वह यथार्थ को समझ रहा था |उसका मानना था कि यह सरकार भारतीय खेती को उद्योगपतियों को सौंपने में लगी है |
26 जनवरी 2021के बाद किसानो के विपरीत,विरोध के स्वर मंद होते चले गये और यथार्थ का पलड़ा भारी होने लगा |
उन दिनों एक मित्र से मेरी बात हो रही थी ,जो मेरठ जिले के एक गाँव के मूल निवासी हैं |अब नेवी से रिटायर्ड हैं और मुंबई में रहते हैं |
वे भी किसानो का विरोध इसी बिनाह पर कर रहे थे कि इन लोगों के पास शानदार गाड़ियां हैं और ये जिन कानूनों का विरोध कर रहे हैं,वे इनके पक्ष में हैं |सरकार जो कर रही है,उस पर भरोसा करना चाहिए और इन्हें सरकार का विरोध नहीं करना चाहिए |इसके विपरीत मुझे लगता था कि अपनी आवाज़ उठाना उनका संवैधानिक अधिकार है और किसान यदि नहीं चाहते तो उनकी (तथाकथित) भलाई के कानूनों को ज़बरदस्ती उन पर थोपा नहीं जाना चाहिए |
सत्ताधारी दल के समर्थक लोग मुसलमानो,सिखों,ईसाइयों और कोंग्रेसियों के साथ -साथ किसानो को भी देशद्रोही बताने में जुटे हुए थे |
इन लोगों के तर्क सुनकर मुझे ख्याल आ रहा था कि जिन सुविधाओं का देश के ज्यादातर लोग उपभोग कर रहे हैं,क्या किसानो के पास वे नहीं होनी चाहिए ?
आज़ादी के सत्तर साल बाद भी क्या देश के किसान को (पूस की रात के किसान की तरह )सर्दी से ठिठुरते रहना चाहिए ?
क्या किसान होना गुनाह है जबकि आर्थिक मंदी के इस दौर में यदि देश को सम्बल मिला है तो कृषि क्षेत्र से ही |
कितने ही अरबपति राष्ट्रीय बैंकों का पैसा डकारकर विदेशों में मौज कर रहे हैं क्या हम सबके भोजन का प्रबंध करने वाले ,भूमिपुत्र किसानो को थोड़ी -बहुत मौज करने का अधिकार नहीं है ?
भगोड़े अरबपति जो कितने ही बैंकों को कंगाल कर चुके हैं सरकार दयालुता से उनके कर्जों की रकम बट्टे-खाते में डाल ( waive off कर )देती है और हम इस सच्चाई को बिलकुल नज़रअंदाज़ कर देते हैं|यदि कोई सरकार किसानो के ऋण माफ़ करती है तो उसे हम सहन नहीं कर पाते जबकि किसानो का ऋण उनके मुकाबले में कुछ भी नहीं है |
क्या किसान होना गुनाह है ?ऐसा लगता है कि बड़ी संख्या में,हमारे शहरी भाई किसानो के बारे में शायद ऐसा ही सोचते हैं ?