न हिन्दू बनेगा,न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा |
इसी गीत में आगे कहा गया है-
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया|
हमने उसे हिन्दू या मुस्लमान बनाया |
मालिक ने तो बख्शी थी हमें एक ही धरती,
हमने कहीं भारत ,कहीं ईरान बनाया |
असल में कल मुझे व्हाटस एप्प पर एक सन्देश आया,जिसमें बहुत भद्दे ढंग से हिंदी फिल्मो की गलतियां गिनाई गयी थीं |पढ़कर मुझे एक प्रसंग ध्यान में आ गया ,जिसमें दुर्योधन से पूछा जाता है कि-तुमसे बुरे लोग कौन -कौन हैं और दुर्योधन एक के बाद एक नाम लेता चला जाता है |
यही प्रश्न जब युधिष्ठिर से किया गया तो युधिष्ठिर ने किसी और का नाम लिया ही नहीं |वे कबीरदास जी के मार्ग पर थे कि-
जब दिल खोजा आपना मुझ से बुरा न कोय |
यह सन्तमत है,वर्तमान समय में स्वीकार्य नहीं है चूंकि कानून का शासन है |दिल का सच्चा होना काफी नहीं है |किसी भी व्यक्ति को दोषमुक्त होने के लिए कानूनन बरी होना पड़ता है |
दूसरी समस्या ज्यादा भयंकर है क्यूंकि प्रजातंत्र की शासन पद्धति है |प्रजातंत्र की यह विडंबना है कि (श्री अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में )प्रजातंत्र में सिर गिने जाते हैं,सिरों के भीतर क्या है,यह नहीं देखा जाता |
यह तो विडंबना है ही ,उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि प्रजा के नाम पर दलविशेष की तानाशाही चलती है ,वह चाहे तो नारियल खिलाये चाहे नारियल के छिलके |
दलविशेष के लोग जिसे चाहे फेल करें,जिसे चाहे पास |
जिसके पास बहुमत का पट्टा है वह खुद को किसी भी विषय का विशेषज्ञ मानता है,लेकिन साहित्य का सिक्का दिल से चलता है,दलील से नहीं |वह किसी छुटभैये के हुक्म का गुलाम नहीं है |
वास्तविकता यह है कि फिल्म सहित कोई भी क्षेत्र पूरी तरह दोषमुक्त नहीं है लेकिन पूरी तरह अपराधी भी नहीं है |हिंदी फिल्में भी इसी प्रकार की हैं ,उन्होंने राष्ट्रीय चेतना में बड़े -बड़े योगदान दिए हैं |
इस गीत को देखें-यह देश है वीर जवानो का,अलबेलों का मस्तानो का
इस देश का यारो क्या कहना -यह देश है दुनिया का गहना ---
इस गीत में नौजवानी का ऐसा जोश है,कि अभी तक पसंद किया जाता है |
भगवान और भक्ति को केंद्र में रखकर भी बहुत सी फ़िल्में बनी है -फिल्मो में भक्ति और देशभक्ति दोनों के रंग मौजूद हैं |
दूसरी तरफ बहुत सारी फिल्मे अपराधियों को केंद्र में रखकर भी बनायीं गयी हैं लेकिन भारत में किसी भी शासक और दल को कला और साहित्य की स्वतंत्रता का सम्मान करने वाला होना चाहिए |
हिंदी फिल्मो में भी कई दौर रहे हैं,समय के प्रवाह में परिवर्तन हुआ तो फिल्मो के रंग-रूप में उतार-चढ़ाव आये |फिल्मो के प्रारंभिक दौर से तुलना करें तो यह समय गिरावट का है क्यूंकि पुराने वक़्त में जो कुछ लिखा गया ,वह सीधे दिल पर दस्तक देता है |वे गाने वर्षों बाद भी पुराने नहीं हुए लेकिन अभी जो गाने लिखे जा रहे हैं ,वे जुबान पर चढ़ते ही नहीं |इसके बावजूद हिंदी फिल्मो का अपना शानदार इतिहास है और है उज्जवल भविष्य|
हमारा कहना सिर्फ यह है कि कला की निर्बाध अभिव्यक्ति को नफरत की ऐनक से नहीं देखा जाना चाहिए |