लालबहादुर शास्त्री जी अहंकारशून्य थे | यह एक ऐसा गुण है जो उन्हें सन्त की श्रेणी तक ले आता है |
31 मई 1964 को नेहरू जी का निधन हुआ और लाल बहादुर शास्त्री जी भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री बने |
उनके कार्यकाल में ही पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया |पाकिस्तान के शासक उस समय फील्डमार्शल अयूब थे |
शास्त्री जी का कद ऊँचाई की दृष्टि से छोटा था तो अयूब ने उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में हल्का महसूस किया | अयूब ने सोचना शुरू कर दिया था कि भारत कमज़ोर है. वो नेहरू के निधन के बाद दिल्ली जाना चाहते थे लेकिन उन्होंने ये कहकर अपनी दिल्ली यात्रा रद्द कर दी थी कि अब किससे बात करें? |
अयूब फील्डमार्शल थे तो व्यक्तित्व भी दूसरे पर हावी होने वाला था |
1965 में शास्त्री जी के नेतृत्व में भारतीय सेनाओं ने पाकिस्तान को धूल चटा दी |भारतीय सेना लाहौर में प्रवेश करने वाली थी तो अमेरिका ने शास्त्री जी पर समझौता करने के लिए दबाव डाला |
इतिहास साक्षी है कि सोवियत संघ के ताशकद में समझौता हुआ और शांति स्थापित हुई | 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में ही उनकी मृत्यु हो गयी | उनकी अर्थी को दो शासकों ने कन्धा दिया -रूस के प्रधानमंत्री अलेक्सेई कोसिगिन तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति फील्डमार्शल अयूब |
उन्होंने शास्त्री जी के पार्थिव शरीर को देख कर कहा था, 'Here lies a
person who could have a brought India & Pakistan together (यहाँ एक ऐसा आदमी लेटा हुआ है जो भारत और पाकिस्तान को साथ ला सकता था).'
जब शास्त्री के शव को दिल्ली लाने के लिए ताशकंद हवाईअड्डे पर ले जाया जा रहा था तो रास्ते में हर सोवियत, भारतीय और पाकिस्तानी झंडा झुका हुआ था.|
शास्त्री जी ने ही भारत को खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए हरित क्रांति का सपना देखा और नारा दिया-जय जवान ,जय किसान |उन्होंने ही खाद्यान्नों के भण्डारण के लिए भारतीय खाद्य निगम (Food Corporation of India ) की स्थापना की |यह निगम किसानो से न्यूनतम समर्थन मूल्य की दर से मुख्यतः गेहूं और चावल की खरीद करता है |
किसानो के उत्पाद खरीदने के बाद FCI इनका भण्डारण करता है और राज्य सरकारों को,उनकी ज़रूरतों के अनुसार खाद्यान्न भेजता है ताकि राज्यों के गरीबों को सस्ते मूल्य पर खाद्यान्न उपलब्ध करवाया जा सके |मूलतः भारतीय खाद्य निगम की स्थापना के चार उद्देश्य थे-
१-गरीब किसानो को न्यूनतम समर्थन मूल्य जरूर मिले |
२-किसी भी आपात स्थिति का मुकाबला करने के लिए सुरक्षित खाद्यान्न भंडार की व्यवस्था हो |
३-भण्डारण की व्यवस्था बाजार पर नियंत्रण रखे ताकि बाजार में भाव जनता की पहुंच के दायरे में रहें |
४-सस्ती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध करने वाली सरकारी दुकानों पर खाद्यान्नों की कमी न हो |
इन दिनों भारतीय खाद्य निगम भी आर्थिक संकट में है चूंकि ऐसा लगता है कि अब सरकार इसे संरक्षण देना नहीं चाहती|दोष पूरी तरह सरकार का भी नहीं है चूंकि खाद्य निगम की व्यवस्था में नौकरशाही हावी हो गयी थी जिसके कारण खाद्यान्न सुरक्षित नहीं रह पाता था |अब सरकार खाद्यान्न भण्डारण और वितरण का काम निजी हाथों में देना चाहती है |

बात की तह पहुँचती है तीन कृषि कानूनों तक,जिनकी आजकल बहुत चर्चा है |कृषि पर कानून बनाना राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है इसके बावजूद 5 जून 2020 को अध्यादेश के रूप में प्रस्तुत किये गये कानूनों को चौदह सितम्बर 2020 को लोकसभा में प्रस्तुत किया गया जो बहुमत के जोर से पास हो गया |बाद में राज्यसभा से भी बिल पास हो गया |
इन कानूनों का किसानो में घोर विरोध है क्यूंकि सरकार की बातों पर भरोसा नहीं हो पा रहा है |इस पर पिछले दिनों खूब चर्चा हुई कि केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित हर वर्ष के बजट में से food subsidy
budget के अंतर्गत भारतीय खाद्य निगम को पैसा मिलता है फिर भी खाद्य निगम लाचार क्यों हो गया है ?इस पर विचार करने पर पाया गया कि खाद्य निगम अपने लक्ष्यों को संतोषजनक ढंग से पूरा नहीं कर पाया इसलिए सरकार चाहती है कि कृषि क्षेत्र को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया जाये |
किसान नेता भी इस बात से सहमति जताते हैं कि खाद्य निगम अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल नहीं है, लेकिन वे इसे खत्म करने के पक्ष में नहीं है |
खाद्य निगम और मंडियों की व्यवस्था में लाख दोष हों लेकिन उनके राष्ट्रीय सरोकार हैं जबकि पूंजीपति के सरोकार तो पूंजी वापसी तथा लाभ कमाने में हैं |अभी भारतीय खाद्य निगम ,National Small
Saving Fund का कर्ज़दार है और कर्ज वापस करने की स्थिति में नहीं है चूंकि सरकार उसे समर्थन नहीं दे रही |
किसान नेता योगेंद्र यादव कहते हैं कि हमारा छप्पर टूटा हुआ था लेकिन नए कृषि कानूनों ने तो उस छप्पर को ही हमारे सिर से हटा दिया है,जबकि ज़रुरत उसकी मरम्मत की थी उन्मूलन की नहीं |
जनता के बड़े वर्ग को इससे अभी कोई फर्क नहीं पड़ रहा | लोग किसानो के आंदोलन की सार्थकता समझ नहीं पा रहे हैं चूंकि उन्हें यह अंदाजा नहीं हो रहा कि गेहूं-चावल आदि बेचने का अधिकार यदि सरकार की बजाय पूंजीपतियों के हाथों में आ गया तो उस पर नियंत्रण करने का कोई उपाय जनता के पास नहीं रहेगा तथा वह दाने-दाने को मोहताज हो सकती है |
यह बात तो स्पष्ट है कि किसान इन कानूनों को नहीं चाहते और सरकार इन्हें लागु करना चाहती है तो सरकार की मंशा पर शक होता है चूंकि 2014 से अब तक सरकार की नीतियां जनता को बरगलाने और धार्मिक भावनाओं को उभारकर बहुमत हासिल करने की ही रही है |
प्रश्न यह है कि लालबहादुर शास्त्री जी,जिन्होंने भारतीय खाद्य निगम की स्थापना की थी, इस निगम की प्रासंगिकता अब बची नहीं है या वर्तमान सरकार ने ही उसे इस कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है कि वह ख़त्म हो जाए ?
ऐसा लगता है कि बाजार और संस्थाओं का ऋण चुकाने के लिए भारतीय खाद्य निगम को अपनी संपत्ति बेचनी पड़ेगी |खरीदने के लिए वो लोग हैं ही,इस प्रकार संदेह उत्पन्न होता है कि ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि खाद्यान्नों की खरीद और वितरण के क्षेत्र में पूँजीपतियों का स्वामित्व रहे और निगम की हज़ारों करोड़ की संपत्ति हवाई अड्डों की तरह पूंजीपतियों को बेचीं जा सके |
- आर.के.प्रिय