- रामकुमार सेवक
1991 -92 में मैं मुरादनगर में रहता था |उन दिनों हम नारे सुनते थे -गर्व से कहो-हम हिन्दू हैं |
कुछ दिन बाद मैंने कहीं पढ़ा कि यह संवाद स्वामी विवेकानंद के उस भाषण का अंग है,जो उन्होंने शिकागो की धर्म सभा में दिया था |
उन दिनों नारे लगते थे-सौगंध राम की खाते हैं,हम मंदिर वहीं बनाएंगे |सामने से अल्ला-हूँ-अकबर और नारा -ए-तकबीर के नारे भी लगते थे |
मेरा राम पर भी विश्वास है और अल्लाह पर भी लेकिन नारे कब मार-काट को जन्म दे-दें ,भरोसा नहीं होता |विभाजन के दिनों में लिखी गयी विभिन्न लेखकों की कहानियां याद आती थीं और हम मन ही मन अपने इष्ट से दया की प्रार्थना करते रहते थे |मालिक की कृपा रही सब कुछ शांत रहा और हमारा क़स्बा ठीक- ठाक, गर्म हवा का वह दौर झेल गया |
स्वामी विवेकानंद तो आध्यात्मिकता के पुंज थे |उनसे तो हमें सदैव आगे बढ़ने की ही प्रेरणा मिली है |वे कहते थे-उत्तिष्ठत जाग्रत, प्राप्य वरान्निबोधत अर्थात उठो,जागो -जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो बढ़ते रहो |
2013 में मेंने जब प्रगतिशील साहित्य पत्रिका शुरू की,तो स्वामी विवेकानंद के शिकागो की धर्म सभा के उस भाषण का पूरा हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया था |समय-समय पर उनकी अन्य पुस्तकें भी पढ़ने का अवसर मिला |
शिकागो के उस ऐतिहासिक भाषण में पूरे संसार के लोगों की आस्था को एक मजबूत धरातल देने की चेष्टा की गयी थी -प्रतिद्वंद्विता का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव कदापि नहीं था |
उन्होंने विश्व को हिन्दू धर्म की विशेषताएं बताईं और उनके आधार पर हिन्दुओं को हीनता और कुंठा से ऊपर उठने का आग्रह किया |
हिन्दू धर्म की जिन विशेषताओं को उन्होंने रेखांकित किया,उनमें से एक यह थी कि-यहूदी -पारसी-जैन-बौद्ध -ईसाई आदि सब धर्मो के लोगों को जिसने अपनी धरती पर पनपने और उभरने का मौका दिया, ऐसे उदार धर्म का प्रतिनिधि होने के कारण मैं अपने आपको गर्वित महसूस करता हूँ |
जैसे विभिन्न नदियां एक सागर की ओर जाती हैं इसी प्रकार सब धर्म अंततः एक परमात्मा में ही समाहित हो जाते हैं |
यदि कोई यह सोचता है कि एक दिन सभी धर्म लुप्त हो जाएंगे और सिर्फ मेरा ही धर्म बचेगा तो मुझे ऐसी सोच पर दया आती है |आज से सभी धर्मो की ध्वजाओं पर लिख देना चाहिए-युद्ध नहीं -शांति|घृणा नहीं,प्रेम|वैर नहीं -सद्भावना ,संघर्ष नहीं,समन्वय |
ऐसे विचारों वाले स्वामी विवेकानद वैर-नफरत-अत्याचार का समर्थन कर ही नहीं सकते |स्वामी विवेकानद इतने उदार थे कि छुआछूत से उनका कोई नाता नहीं था |उनका एक शिष्य एक स्टेशन मास्टर था |स्वामी विवेकानद उसके निमत्रण पर,उसके घर भोजन भी कर लिया करते थे |
एक दिन किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा -महाराज,आप हिन्दू हैं ?
वे बोले-हाँ ,हिन्दू ही हूँ |
फिर भी आप एक मुस्लमान के घर का अन्न खा लेते हैं -वह बोला |
वे बोले-मैं वेद को मानता हूँ और वेद में कहीं नहीं लिखा कि किसका छुआ हुआ अन्न खाया जाए और किसका छुआ हुआ नहीं खाया जाए |
स्वयं को कुलीन समझने वाले लोगों ने धर्म को अपनी जागीर समझ लिया है और बांधने वाली ज़ंज़ीर बना दिया है |ज़ंज़ीर में बंधे लोग खुद सदैव संकीर्ण बने रहते हैं वे किसी को कैसे गले लगाएंगे जबकि स्वामी विवेकानंद की सच्ची अनुयाई भगिनी निवेदिता उनके प्रेम और विश्वास पर भारत ही आ गयी थी जबकि वो मूलतः ईसाई धर्म में जन्मी थी |
सच्चा धर्म तो कहता है-मानस की जात सब एकै पहचानबो |जो ऐसे धर्म को मानते हैं वे सच्चे हिन्दू हैं,ईमानवाले मुसलमान हैं,श्रद्धापूर्ण सिख और सेवाभावी ईसाई हैं |ऐसे धर्म की ही आज भारत और विश्व को आवश्यकता है |