आसान नहीं है आंदोलनकारी होना

हमने किताबों में ही पढ़ा है कि उसमें सम्मिलित देशप्रेमियों को कितने अत्याचार झेलने पड़ते थे |क्रांतिकारियों की किताबों में और भी विस्तार से पढ़ने को मिला कि किस प्रकार के अत्याचार झेलने पड़ते थे |तब देश में ब्रिटिश सरकार थी तो उसके भयावह अत्याचारों की कल्पना सहज ही की जा सकती है |हमें स्वतंत्र हासिल किये हुए 74 वर्षों का लम्बा समय बीत चुका है  लेकिन आंदोलन करना अब भी आसान नहीं है |बल्कि काफी ज्यादा कठिन है |

सिंघु बॉर्डर हमारी कॉलोनी से ज्यादा दूर नहीं है लेकिन वहां जाने की हिम्मत नहीं हुई चूंकि बचपन से ही विवादों से दूर रहने की शिक्षा मिली चूंकि माता-पिता मेरे जीवन के बारे में कुछ ज्यादा ही चिंतित रहते थे |

मीडिया के माध्यम से जो कुछ देखने-सुनने को मिला अर्थात पानी की बौछार और 26 नवंबर 2020 को,जबकि सर्दी का भयंकर प्रकोप था |अहिंसक किसानो के रास्ते में गड्ढे खोद दिये गये ताकि वे दिल्ली में न घुस सकें |समय के साथ निरंतर भयंकर होती जा रही सर्दी न झेल पाने के कारण कितने ही लोग दम तोड़ गये |

तीन दिन पहले एक धार्मिक सज्जन ने वहां स्वयं को गोली मार ली चूंकि किसानो के दुःख को सह नहीं पाए |आज 23 दिसंबर (किसान दिवस )को भी महारष्ट्र में एक किसान द्वारा आत्महत्या करने की खबर घूम रही  है|इस प्रकार किसानो की आत्महत्या के मामले सिर्फ गांवों में ही सीमित नहीं रहे है |

आश्चर्य की बात तो यह है कि किसानो की मांग उस सरकार से  है जो अच्छे दिन लाने के वादे के साथ सत्ता में आयी थी |इस सरकार का हठ है जिसे राज हठ के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए कि उसने कृषि सुधारों के लिए जो तीन कानून बनाये हैं,उन्हें वापस नहीं लिया  जायेगा जबकि किसानो का मुद्दा ही यही है|

मुझे भी लगता है कि सुधारों को तो जारी ही रहना चाहिए लेकिन जिनके लिए कानून बनाये गए हैं,वे ही इन्हें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं बल्कि करो या मरो की मनोवस्था में इसे अस्वीकार करने को उतारू हैं बल्कि कहना चाहिए कि प्रजा हठ की अवस्था में है,लाख समस्याओं के बावजूद |

तो सरकार क्यों जबरदस्ती उनका सुधार करने पर तुली हुई है ?क्या वे नादान बालक हैं कि जबरदस्ती स्कूल भेजना पड़ेगा ?

सोचने की बात तो यह है कि भारत की कोई भी सरकार संविधान की पटरियों के ऊपर ही चलती है |यह सरकार अघोषित रूप से न महात्मा गाँधी को पसंद करती है,न डॉ.अम्बेडकर को और न ही वर्तमान संविधान को लेकिन मजबूरी में ही सही चलना तो उन्हीं पटरियों पर पड़ेगा जो संविधान के रूप में है |इस हिसाब से किसानो के साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती चूंकि संविधान का,शासन का आधार प्रजातंत्र है | 

सरकार का तर्क है कि उसे जनसमर्थन हासिल है और शासन उसे पांच सालों के लिए मिला है यह तर्क अपनी जगह बिलकुल सही है लेकिन बहुमत जो मिला है,वह जनहित के कार्य करने के लिए मिला है प्रजा अथवा जनभावनाओं को कुचलने के लिए नहीं |

सरकार भी महसूस करती है कि कानूनों में कुछ खामियां हैं जिन्हें सुधार दिया जायेगा लेकिन सरकार की मंशा स्पष्ट है कि इस महसूसियत को लागू करना जरूरी नहीं है चूंकि सरकार का पूरा ध्यान इस समय बंगाल में रामराज लाने पर लगा है |

सरकार के कई मंत्री प्रधानमंत्री समेत इन कानूनों की विशेषताएं गिनवा रहे हैं और किसानो को नादान और बरगलाये हुए सिद्ध करने में लगे हैं तो किसान सरकार का यकीन क्यों करें ?और कल एक कवि कह रहे थे कि चाहे जितने डिजिटल हो जाओ लेकिन रोटियां गूगल से डाउनलोड नहीं होती |  सरकार को भी यह सच्चाई स्वीकार करनी चाहिए और व्यर्थ की ज़िद त्याग देनी चाहिए चूंकि जिनके कल्याण के दावे किये जा रहे हैं उनकी मांग को स्वीकार करना ही होगा चूंकि जनता भली भांति समझती है कि डीजल और पेट्रोल दिल्ली 84 /-प्रति लीटर  हो चुका है अर्थात शतक लगाने की की तरफ अग्रसर हैं |,बेरोजगारी भयावह स्थिति में है आस-पास के किसी भी देश से भारत के सम्बन्ध मधुर नहीं हैं ,ये अच्छे दिन तो बिलकुल नहीं हैं |      

- आर.के.प्रिय