- रामकुमार सेवक
प्रभु के समान तो कोई भी नहीं होता इसलिए यह कल्पना तो अहंकार ही प्रदान करती है |उम्र में छोटा कुर बालक होने के बावजूद हिंयकश्यपु को परमात्मा के समान मानने की बात प्रह्लाद ने स्वीकार नहीं की |
इस वास्तविकता को स्वीकार करने की बजाय हिरण्यकश्यपु जोर -जबरदस्ती पर उतर आया उसने उस बच्चे पर अमानुषिक अत्याचार किये |लेकिन जो परमात्मा को ही सर्वोच्च समझता है वह किसी और को परमात्मा के समकक्ष कैसे समझ सकता है भले ही यह आदेश देने वाला उसका पिता ही क्यों न हो |
हिरण्यकश्यपु ने एक एक लोहस्तम्भ को खूब गर्म करवाया और प्रह्लाद से कहा कि इस स्तम्भ से लिपट जाओ |
लोहस्तम्भ इतना गर्म था कि किसी को भी राख कर देने के लिए पर्याप्त था |हर कोई समझ रहा था यह आदेश देना ही अपने आप में अत्याचार की पराकाष्ठा है |
चाहे जिस भी मुख से आया लेकिन आदेश तो निरंकार का ही था चूंकि इस परमशक्ति के आदेश को कोई भी चुनौती नहीं दे सकता |यद्यपि प्रत्यक्षतः आदेश तो राजा का था लेकिन प्रजा होने के कारण उस आदेश को मानने के लिए प्रह्लाद बाध्य था |
अब निरंकार के लिए चुनौती थी |तपते हुए लोहस्तम्भ को देखकर प्रह्लाद कहीं विचलित न हो येइसलिए निरंकार ने कुछः चींटियों की उत्पत्ति की ताकि प्रह्लाद पर स्पष्ट हो जाए कि वह सुरक्षित रहेगा गर्म लोहस्तभ पर कुछ चींटियों का चलना प्रह्लाद को यह यकीन दिला सके कि लौहस्तंभ जब चींटियों का कुछ बिगाड़ नहीं पा रहा तो प्रह्लाद का भी कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा |
अब आदेश मानने की बारी थी |प्रह्लाद लोहस्तम्भ से लिपट गया और उसका कुछ भी न बिगड़ा |इस प्रकार प्रह्लाद कठिन परीक्षा पर खरा उतरा और उस भक्त का बाल भी बाँका न हुआ |
स्पष्ट हो गया हर परीक्षा से पार पाने की ताक़त भी निरंकार ही देता है और साथ ही अपने अस्तित्व का एहसास और विश्वास भी |