प्रशंसा का क्या करते हैं ?

 रविवारीय सत्संग को सम्बोधित करते हुए महात्मा ने एक प्रश्न उठाया |उन्होंने कहा कि किसी महात्मा ने प्रश्न किया कि यदि कोई आपकी प्रशंसा करता है तो उसका क्या करते हैं ?

वास्तविकता तो यह है प्रशंसा किसी को भी बुरी नहीं लगती इसलिए ज़हन में यह प्रश्न उभरता ही नहीं |मैंने सोचा तो अपनी वास्तविक स्थिति पर ध्यान गया |

वास्तव में जब सोने के लिए ,रात्रि विश्राम के लिए बिस्तर पर जाता हूँ तो उस समय दिन भर में घटित कई घटनाएं दमाग में आती हैं ,इनमें कई लोगों के साथ वयवहार होता है ,इनमें सकारात्मक और नकारात्मक दोनों किस्म के व्यवहार होते हैं |

इस प्रकार अच्छे चेहरे भी ख्याल में आते और बुरे चेहरे भी |साधसंगत से जुड़े होने के कारण मुझे लगता है कि प्रशंसा और निंदा से ऊपर उठकर जीवन जीना चाहिए |


सामने वाले ने प्रतिप्रश्न किया कि यह तो आदर्श स्थिति है लेकिन इंसान प्रशंसा सुनकर खुश होता है और आलोचना सुनकर नाराज ?

इसका अर्थ यह हुआ कि हममें अहम भावना है जो परिस्थितियाँ के अनुसार हमें खुश भी करती है और नाराज भी जबकि सतगुरु बाबा जी से हमने निर्लेप अवस्था में जीवन जीने की बात सुनी है |

प्रतिप्रश्न करने वाले सज्जन ने कहा-इसका अर्थ यह हुआ कि सोने से पहले आपने उस प्रशंसा का भरपूर आनंद लिया जबकि यह तो कृपा ही थी उस सज्जन ने आपकी प्रशंसा कर दी अन्यथा अच्छी चीजों की भी आलोचना होती मैंने सुनी है |

उसने कहा कि बीच में निरंकार को ले लेना चाहिए | 

इससे निर्लेप अवस्था बनेगी |निर्लेपता से प्रशंसा की आसक्ति नहीं होगी और हम अभिमान से बचे रह सकते हैं |