लेकिन मेरे गुरु जी को तो तीन लोक के सम्राट श्रीकृष्ण का स्नेह हासिल है ,उनसे मुझ साधारण से गवैये का क्या मुकाबला ?

 रामकुमार सेवक  


  

महात्मा हरिदास जी का परमात्मा से गहरा लगाव था इसीलिए उनके स्वर में ईश्वर ही निवास करता था क्यूंकि जब वे गाते थे जैसे पंछी भी चहकना भूल जाते थे |

अकबर को उनके गीतों में बहुत आनंद आता था ,आये भी क्यों ना ,जहाँ ईश्वर ही कंठ में विराजमान  हो,वहां फासला कहाँ बचता है |

ईश्वर और हमारे बीच वैसे भी कोई फासला नहीं है लेकिन वर्षों पहले से हम सुनते आ रहे हैं कि-

हे रोम-रोम में रमने वाले राम,

जगत के स्वामी ,हे अन्तर्यामी , मैं तुझसे  मैं तुझसे क्या मांगू 


मुझे ख्याल आता है कि क्या माँगना अति आवश्यक है,कि कुछ माँगा जाये ?

विवेचन करने पर पाते हैं कि ऐसा तो बिलकुल ही नहीं है |सतगुरु  बाबा हरदेव सिंह जी के समय में मैंने सन्त निरंकारी (हिंदी )में एक सम्पादकीय लिखा था जिसका शीर्षक था-भक्त और भिखारी |


    अगर देखें तो भक्त होना कुछ और बात है और भिखारी होना बिलकुल अलग |

माँगना कोई अच्छी बात नहीं है बल्कि मालिक ने हमें जो दिया है उसमें खुद को सीमित रखना अति उत्तम है |

यह हमने अपने बुजुर्गों से भी सुना है कि-   

जितनी हो चादर उतने ही फैलाओ तुम पाँव, 

मत दिखाओ तुम जगत को अपनी झूठी शान, 

हालांकि लोग बहुत से तर्क देंगे कि अपने आपको किसी से कम न समझो |किसी को हीनता की ग्रंथि में डूबे नहीं होना चाहिए लेकिन मिथ्या अभिमान का दंश ज्यादा गहरा है |  

      दिखावेबाजी के कारण आय और व्यय  संतुलन प्रायः खो जाता है |असंतुलन के कारण बहुत सारी विकृतियों का सामना करना पड़ता है |कभी कभी तो इतने क़र्ज़ चुकाने पड़ते हैं कि आदमी दिवालिया हो जाता है और कभी कभी तो हालात इतने दर्दनाक हो जाते हैं कि परिवार सहित लोग सामूहिक आत्महत्या कर लेते हैं |ऐसे दुखद घटनाक्रम आजकल आम हो गए हैं |

भिखारी होना तो बदतर है ही लेकिन आत्महत्या तो मानवता के ही विरुद्ध है चूंकि आत्महत्या के बाद तो कोई विकल्प बचता ही नहीं |

       यह तो सर्वविदित है कि मानव जीवन दुर्लभ है | 

 कहने का भाव कि-मांगने का सवाल तो बिलकुल बेमानी है लेकिन राम से सीधा संवाद और भीतर से यह भाव स्पष्ट होना कि-

राम हमारे रोम-रोम में है ,हमारे जीवन को सच्ची भक्ति से जोड़ देता है |


        मुझे महात्मा हरिदास जी की याद सहज ही आ गयी |वे श्री कृष्ण के उपासक थे |दूसरी तरफ तानसेन थे जो अकबर के नवरत्नों में से एक थे |

       तानसेन हरिदास जी के शिष्य थे |

अकबर गुणों का ग्राहक था वह हरिदास जी के स्वर को सुनना चाहता था लेकिन हरिदास जी से प्रार्थना ही की जा सकती थी |बाकी तो भक्त अपने सहज प्रवाह में बहता है |

       तानसेन चाहते थे कि गुरु जी बादशाह के लिए कुछ गा दें लेकिन हरिदास जी तो प्रभु के लिए ही गाते थे |

      भक्त हरिदास जी श्री कृष्ण के सामने बादशाह अकबर को भला कहाँ रखते चूंकि भक्त तो लाभ और लोभ से परे होता है |

        एक दिन हरिदास जी अपनी धुन में श्रीकृष्ण के लिए भजन गा रहे थे |तानसेन चूंकि अकबर के प्रिय  संगीतकार थे और शिष्य होने के कारण हरिदास जी का प्रेम भी उन्हें हासिल था इसलिए संयोग कुछ ऐसा हुआ कि हरिदास जी का दिव्य स्वर सुनने का सौभाग्य अकबर को प्राप्त हो गया |

तानसेन से एक दिन अकबर ने कहा-

तानसेन आप भी बहुत बढ़िया गाते हैं लेकिन आपके गुरु जी जो स्वर लगाते हैं वह मन में इलाही जोत जगा देता है |आपके लिए गुरु जी की ऊँचाई तक पहुँचना कठिन है |

       तानसेन को भी अपने गुरु जी की ऊँचाई मालूम थी ,वे बोले-

जहाँपनाह ,मैं आपका दरबारी हूँ और मेरे गुरु जी श्री कृष्ण के भक्त हैं ,एक भक्त का मुकाबला भला कौन दरबारी कर सकता है ?यह एक सच्चाई है कि यदि मुझे आपका स्नेह हासिल है तो उसकी भी बहुत महत्ता है लेकिन मेरे गुरु जी को तो तीन लोक के सम्राट श्रीकृष्ण का स्नेह हासिल है ,उनसे मुझ साधारण से गवैये का क्या मुकाबला ?