कबीर एक क्रांतिकारी और युग प्रवर्तक थे |
वे कहा करते थे,
सच बराबर तप नहीं ,झूठ बराबर पाप ,जाके हिरदै साँच है ताके हिरदै आप |
वे मानते थे सच से बढ़कर कोई तपस्या नहीं |
इस युग को घोर कलयुग माना जाता है |घोर कलियुग इसलिए क्यूंकि प्रायः कोई भी सत्य नहीं बोलता लेकिन कबीर जी झूठ का उपयोग नहीं करते थे | झूठ को पकड़ तो लेते थे जैसे वे कहते हैं-
कंकड़ -पत्थर जोड़ के मस्जिद लई बनाय
तापर मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय
आगे वे कहते हैं-
चींटी के पग नेबर बांधे,तो भी साहिब सुनता है
इस प्रकार अंतिम पंक्ति तक आते आते उन्होंने खुलासा कर दिया कि मस्जिद पर ध्वनि विस्तारक यन्त्र लगाने के कुछ उचित और नीतिगत कारण हो सकते हैं लेकिन चींटी के पाँव में यदि घुंघरू बंधा हो तो भी साहिब सुनता है अर्थात सुनने की कोई समस्या नहीं है लेकिन जिनकी कबीर दास जी से सहमति नहीं है वे कबीर जी के खरेपन को इस्लाम धर्म पर व्यंग्य मानते हैं जबकि कबीर दास जी हिन्दुओं पर भी व्यंग्य करते थे ,वे कहते थे -
पाहन पूजे हरी मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ,
उससे तो चक्की भली जो पीस खाये संसार
कबीर दास जी को दिखावे अर्थात ढकोसले पन की आलोचना करने में जैसे अलग ही प्रकार का मज़ा आता था |उनकी चाहे जितनी आलोचना करें लेकिन वे सत्य को बेपर्दा करते ही रहते थे |इस कार्य को करंने में उन्हें कुछ ज्यादा ही आनंद आता था |
वर्तमान युग में भी हम देखते हैं कि बेपर्दा करने से भी ज्यादा जरूरी है सत्य को स्वीकार करना |यथार्थ को स्वीकार करना बेहद कठिन है चूंकि परिस्थितियां सत्य को स्वीकार करने की अनुमति नहीं देतीं चूंकि पूरी व्यवस्था दिखावे पर टिकी हुई है |
जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन में भी हम देखते हैं |मिर्जा ग़ालिब को एक बार मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फर ने ने दावत पर आमंत्रित किया |
दोस्तों ने कहा -महल में जा रहे हो तो वस्त्र बहुत अच्छे पहन कर जाना |ग़ालिब अक्सर कठिनाई से जूझते रहते थे इसलिए बादशाह की दावत योग्य वस्त्र उनके पास थे ही नहीं |
उनके वस्त्र देखकर चौकीदारों ने व्यंग्य किया और उन्हें बादशाह के महल में न घुसाने दिया |जब वे महल में पहने जाने योग्य वस्त्र पहनकर पहुंचे तो महल के लोगों ने उनका खूब आदर सत्कार किया |
बहरहाल ग़ालिब उस महल में पहुंच गए |
शाही दस्तरखान पर जब वे बैठे तो बादशाह ने देखा कि ग़ालिब अजीब हरकत कर रहे हैं |उन्होंने रकाबी की सब्जी अपने कुर्ते पर गिरा ली और बोले -ले कुर्ते तू खा ,और पायजामे से बोले -ले पायजामे ,तू खा |
बादशाह ने हैरानी से पूछा -ग़ालिब साहब ,यह आप क्या कर रहे हैं ?सब्जियां कुर्ते और अन्य कपड़ों पर क्यों उलट रहे हैं ?
ग़ालिब बोले-जहाँपनाह , मैं तो पहले आया था लेकिन आपके चौकीदारों ने मुझे घुसने ही नहीं दिया था |अब जैसे ही मैं ये वस्त्र पहनकर आया तो चौकीदारों ने मेरा खूब इस्तकबाल किया इसी लिए मैं इन खूबसूरत कपड़ों का भरपूर स्वागत कर रहा हूँ क्यूंकि अब तो इन्हीं का आगमन हुआ है |आपके चौकीदारों की नज़र में शायर का नहीं लेकिन ग़ालिब के कपड़ों का ज्यादा महत्व है |
ग़ालिब एक शायर थे और कबीर भी एक कवि हैं |
एक को हैं दूसरे को थे लिखने के पीछे मेरे कुछ व्यक्तिगत कारण हैं अन्यथा दोनों का मूल वही है |ग़ालिब कहते हैं-था न कुछ तो खुदा था ,कुछ न होता तो खुदा होता |डुबोया मुझको होने ने,न होता मैं तो क्या होता |
इस शेर से मिर्ज़ा ग़ालिब का आध्यात्मिक होना सिद्ध है |यहाँ मुझे कबीर याद आ रहे हैं क्यूंकि मान्यता है कि काशी में जो मरता है उसकी मुक्ति निश्चित है |
कबीर तो फक्कड़ थे वे काशी में रहने के कारण तो मुक्ति के पात्र बनना पसंद नहीं करेंगे |वे मुक्ति के पात्र बनेंगे तो अपने कर्मो के कारण |
यह कबीर का आत्मसम्मान है और ग़ालिब में भी यह आत्मसम्मान कम नहीं क्यूंकि उन्होंने सत्य को स्वीकार किया कि निरंकार और सत्गुरु के सामने मेरे होने का कोई अर्थ नहीं |यह कुछ न होना ही ग़ालिब का वास्तविक अध्यात्मिक होना है |धन निरंकार जी |