रामकुमार सेवक
कुछ समय पहले मैं निरंकारी प्रदर्शनी में था ,जो कि अभी तैयार हो रही है |
मालिक की कृपा से 53 वें संत समागम से मुझे उसमें सदस्य के रूप में सेवा मिलती आ रही है जबकि मेरा उससे जुड़ाव 1986 से ही है ,जबकि मुझे संत निरंकारी प्रकाशन विभाग में संपादक के रूप में सेवा मिली थी |
कुछ समय पहले मेरे सामने 25 वे समागम की तस्वीरें थी |
1973 की मसूरी कांफ्रेंस की भी तस्वीरें थी |श्वेत-श्याम तस्वीरें ऐसी लग रही थी जैसे इतिहास सामने दोबारा आ गया हो |
उन तस्वीरों में दिख रहे महात्मा बहुत सीधे-सादे और सहज लग रहे थे |
1973 में वाकई ऐसी सादगी और सहजता व्यवहार में थी भी |
सवाल यह था कि वो सादगी और सहजता अब कहाँ चली गयीं ,जबकि निरंकार तो आज भी वही है ?
पहली बात तो यह है कि तब मैं भी 6th कक्षा का विद्यार्थी था और बचपन में किसी का खौफ नहीं होता ,सहजता खुद-ब-खुद होती है |
एक तथ्य यह भी है कि उस समय जो सबसे प्रतिष्ठित महात्मा थे ,वे सात सितारे थे |जो कि सहृदय बुजुर्ग थे |
मिशन नया-नया उभर रहा था और पैदल जुलूस में चलते थे तो मन में एक किस्म का गौरव होता था कि हमारा रास्ता सही और सच्चा है |
उस समय का जो प्रबंध तंत्र था वह ऐसा था जैसे अंगूर का फल |छिलका जैसे है भी और नहीं भी |यही कारण है कि अंगूर का छिलका छिलका नहीं है | इसके विपरीत नारियल का छिलका बहुत बड़ी बाधा है |
साठ व् सत्तर के दशक में निरंकारी मिशन का प्रबंध तंत्र ऐसा ही था जैसे अंगूर |बाद में प्रबंध नारियल के छिलके की तरह सख्त और आध्यात्मिक आनंद में बाधक होता चला गया |
2014 में सतगुरु बाबा हरदेव सिंह जी ने इसे अपने तरीके से लेकिन दर्द के साथ , साफ़-साफ़ बता भी दिया था |
अब तो युग ही बदल गया है |इस युग से भी हमें बहुत शुभ आशाएं हैं |