पगड़ी उतारकर उन्हें खुद सेवा में रत देखा तो यकीन आया ---

 रामकुमार सेवक

भारत एक धर्म प्रधान देश है लेकिन धर्म तो नैतिकता और अच्छे कर्मो से प्रकट होता है |भारत एक प्रजातान्त्रिक देश है |प्रजातंत्र की अपनी गरिमा होती है क्यूंकि प्रजातंत्र को शासन की आदर्श पद्धति माना जाता है |लेकिन इस पद्धति में अनेक विकृतियां आ चुकी हैं ,पैसे का दखल बहुत बढ़ चुका है लेकिन अध्यात्म पैसे को महत्व नहीं देता है चूंकि बचपन से ही हम सुनते आ रहे हैं कि माया तो क्षण भंगुर है इसलिए माया को बहुत अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए |

निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी को मैं अपना मार्गदर्शक मानता हूँ और उन्हीं के दिखाए मार्ग को जीवन का आदर्श बनाने की कोशिश करता हूँ |

सत्गुरु माता सुदीक्षा जी आज भी उनके कार्य को आगे बढ़ा रही हैं ऐसा मेरा मानना है लेकिन बाबा हरदेव सिंह जी को मैंने निकट से देखा है और मैं उन्हें सिर्फ सत्गुरु नहीं बल्कि युगांतरकारी व्यक्तित्व मानता हूँ इसलिए मैंने उनके जीवन पर किताब लिखी और अपने सहकर्मियों को यह समझाने का प्रयास किया कि बाहर से देखकर गुरु का मूल्यांकन नहीं हो सकता |मैं सच्चे हृदय से , उनके दिए जीवन मूल्यों को अभिव्यक्ति देने की कोशिश करता हूँ |

चूंकि उनके समय में मुझे लिखने-पढ़ने और विभिन्न सेवाओं को निभाने का भरपूर मौका मिला इसलिए अध्यात्म की शिक्षा उन्हीं से मिली |

पिछले दिनों मुंबई से एक महात्मा का फोन आया |

उन्होंने एक प्रसंग सुनाया जिसके अनुसार उनके एक मित्र जो कि उनसे प्रेरित होकर सत्संग में जाने शुरू हुए ,उनसे कहने लगे महात्मा जी,भेदभाव तो आपके सत्संग में भी होता है |      

मैंने कहा -कैसे ?

वे बोले ,सत्संग में पहले स्टेज पर थोड़े कमजोर महात्मा  को बिठाया जाता है ,और बाद में मुख्य अतिथि बैठते हैं |मुंबई वाले महात्मा बोले- 

मैंने कहा -कमजोर से आपका क्या तात्पर्य है ?

सॉरी,मेरा तात्पर्य है कि कुछ कमजोर यानी बोलने में कुछ कमजोर महात्मा को पहले बैठाते हैं |थोड़ी देर बाद जब मजबूत वक्ता आ जाते हैं तो उन्हें बैठा दिया जाता है |एक तरफ आप कोई भेदभाव न होने का दावा करते हैं दूसरी तरफ कमजोर और मजबूत महात्मा का यह भेद बात कुछ हजम नहीं हुई ?

फिर दुनिया के चलन और आपके मिशन में क्या फर्क रहा ?

मेरा उस समय ,मुक्ति पर्व के समागम में हर पंद्रह अगस्त को समागम में भाग लेने का नियम था |उस समय हम पहाड़गंज (दिल्ली )स्थित सन्त निरंकारी सत्संग भवन में ठहरते थे |कई बार कुछ और सज्जन भी साथ में होते थे | 

यह सज्जन कभी कभी मेरे साथ सत्संग में भी जाते थे,ब्रह्मज्ञान अभी लिया नहीं था लेकिन मेरे गांव के थे तो मुझसे गहरा प्रेम था |

पहाड़गंज के मुखी महात्मा लाल चन्द जी थे |वे बहुत परिपक्व महात्मा थे |उन्होंने मिशन का वह दौर भी देखा था जब भारत में मिशन की शुरूआत हो रही थी |

चूंकि वे मेरे साथ सत्संग सुनने जाते थे और मेरे साथ सेवाओं में भी भाग लेते थे लेकिन पहली छवि तो देखकर ही बनती है,चूंकि मेरे गांव के थे तो उन्होंने दिल की बात मुझे बता दी थी |

हर बार हम ज्यादातर पहाड़गंज में ही रुकते थे इसलिए लालचंद जी के चेहरे को वे पहचानते थे |

एक दिन की बात है सुबह का वक़्त था ,भवन में सफाई की सेवा चल रही थी |

नाली साफ़ करने की हम सब भरपूर कोशिश कर रहे थे लेकिन नाली थी कि खुल नहीं रही थी |

लालचंद जी खुद सेवाओं में भाग लेते थे जबकि उनकी ड्यूटी तो स्टेज पर अक्सर लगती थी लेकिन वे हर प्रकार की सेवा निःसंकोच करते थे |

हम सेवादार मिल-जुलकर भी नाली खोल नहीं पा रहे थे |

अचानक लाल चन्द जी कमरे में आये ,उन्होंने हम सबको नाली की सफाई से अलग किया |सिर की पगड़ी उतारकर एक तरफ रखी और नाली में अपना हाथ घुसा दिया |

उन्होंने भी खूब कोशिश की और फंसा हुआ कचरा बाहर निकाल दिया |कचरा बाहर निकलते ही नाली खुल गयी |

हम सब खुश थे |महात्मा ने हम सबको सम्बोधित करते हुए कहा कि चाय बन चुकी है ,सब जाओ और चाय पियो | 

मेरे गांव वाले सज्जन
बोले - पगड़ी उतारकर भी नाली साफ़ की जा सकती है,देखा तो मिशन पर यकीन आया |अब आपके मिशन और     सत्संग से सम्बन्ध पक्का ,वे बोले  |