-रामकुमार सेवक
समुद्र में यात्रा करते समय कोई आदमी कहीं फँस गया ,उसका जीवन खतरे में पड़ गया |जब कठिनाई आती है तो मन सबसे पहले समर्पित होता है |उस समय तो इंसान खुद को चालाकी से दूर दिखाना चाहता है |वह खुद को विनम्र प्रस्तुत करता है |
उसने हाथ जोड़कर कहा-प्रभु ,इस बार बचा लीजिए |मेरे जो भी आलीशान महल हैं,सब आपको समर्पित कर दूंगा |सिर्फ जान बच जाए |
संयोग ऐसा हुआ कि एक लहर आयी और उसने उसे ऊपर उछाल दिया |
अब वह निश्चिन्त था |वह बोला- बोलै-मेरे आलीशान महल तो आपके चरणों की अकिंचन धूल के बराबर हैं |
उनसे आपको क्या फर्क पड़ेगा ,मैं भी मूर्ख हूँ जो आपको माया से खुश करने की कोशिश कर रहा हूँ |लेकिन दिखावे की भक्ति से प्रभु कभी प्रसन्न नहीं होता |लहर ने उसे फिर पानी में खींच लिया |
अब फिर घबराया ,बोला,प्रभु मैं तो थोड़ा मजाक कर रहा था अन्यथा आपके सामने आलीशान महल तो कुछ भी नहीं ,उन्हें तो मैं आपके चरणों में एकदम डाल दूंगा |फिर समुद्र से जोर की लहर आयी और उसे वापस तट पर फ़ेंक गयी |
वह बोला-मैं तो आपके चरणों का हमेशा समर्पित सेवादार हूँ |आपके सिवा मेरा इस दुनिया में कौन है ?
उस आदमी ने सोचा कि प्रभु को बरगलाना आसान नहीं है इसलिए कुछ मजबूत रास्ता निकालना पड़ेगा |
उसने शहर में घोषणा कर दी कि मेरे सारे महल और चल-अचल संपत्ति फलां तारीख को नीलाम कर दी जायेगी |मेरा आलीशान महल सिर्फ दस लाख रूपये में |
मुख्य बात यह है कि महल जो भी लेगा उसे पहले मेरी प्रिय बिल्ली खरीदनी होगी |यह बिल्ली बहुत ही खुशकिस्मत है क्यूंकि मुझे इस बिल्ली के बाद ही सब कुछ मिला है |
इस बिल्ली की कीमत तो अनमोल है |महल के साथ बिल्ली खरीदनी अनिवार्य है और उसकी कीमत सिर्फ पचास लाख रूपये |
साठ लाख रूपये का कुल खर्चा था लेकिन मामूली बिल्ली के पचास लाख रूपये देना तो कोरी मूर्खता होगी | लेकिन महल बहुत ही आलीशान था |महल खरीदने के लिए लोग इतनी कीमत देने को राजी थे |
यह आदमी वास्तव में महल के दस लाख रूपये ही प्रभु को समर्पित करना चाहता था ,बिल्ली के जो पचास लाख रूपये थे उन्हें वह हजम कर जाना चाहता था ,उसके पीछे उसकी सोच यह थी कि प्रभु को आलीशान महल समर्पित करने की बात हुई है ,मामूली बिल्ली की बात तो हुई नहीं इसलिए बिल्ली के बदले जो पैसे मुझे मिलने वाले हैं वो तो मेरे ही पास रहेंगे |
इस प्रकार प्रभु की आँखों में धूल झोंकने का इरादा था |
यह तो मन की चालाकी और विशुद्ध बेईमानी थी लेकिन यह इंसान पक्का स्वार्थी था और मानता था कि प्रभु तो निर्जीव मूर्ति है इसलिए प्रभु को मेरे मन की अवस्था का क्या पता ?
वह यह भूल ही गया कि जब लहर उसे पानी के भीतर इधर से उधर घुमा रही थी तब उसके प्राण संकट में थे तब उसे लगता था कि इस विराट महासागर में तो प्रभु ही प्राण बचा सकते हैं तब उसे प्रभु सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान दिखाई पड़ते थे लेकिन अब जबकि वह अपने घर में सुरक्षित था प्रभु उसे निर्जीव मूर्ति नज़र आ रहे थे |यह विशुद्ध चालाकी थी |
लेकिन प्रभु तो हमारे मन की वास्तविकता को जानता है इसलिए भोलापन ही इसे भाता है |चालाकी छोड़कर जब भोलापन ही मनुष्य के व्यवहार में आ जाता है तो इंसान का जीवन बदल जाता है |तब उसके उसके जीवन में क्रांति घटित हो जाती है |यही उसके जीवन की आदर्श अवस्था है |
आइये जीवन को ऐसा निर्मल बनायें ,भक्ति के रस से जीवन सजाएँ