इस प्रकार गुरमत की जिन्दा मिसाल बन जाने के कारण ही शायद शौक़ साहब नए शहर में संगत स्थापित कर सके

 -रामकुमार सेवक 

धर्म सिंह जी शौक़ जी चंडीगढ़ में सेक्टर -15 ,डी  में रहते थे |अपनी धर्मपत्नी ,बहन पद्मा जी को नमस्कार करके कह रहे थे -कृपा करो ,नींद सही आये 

मैंने सोचा -इसके लिए अरदास करने की क्या ज़रुरत है |

पांच बजे जब उठे तो हाथ जोड़कर नमस्कार करके बोले -बहुत कृपा हुई ,नींद बहुत अच्छी आयी 

चंडीगढ़ में संगत की स्थापना धर्म सिंह जी शौक़ और पद्मा जी के उद्यम से ही हुई थी |

उनके सुपुत्र विवेक शौक़ जी ने एक बार निरंकारी कॉलोनी (दिल्ली)में विचार करते हुए पूरा घटनाक्रम बताया था |

संभवतः बाबा अवतार सिंह जी के युग की बात है शौक़ साहब का ट्रांसफर चंडीगढ़ हो गया |चंडीगढ़ में तब तक संगत की स्थापना नहीं हुई थी | 

विवेक शौक़ जी ने बताया कि जब ट्रांसफर चंडीगढ़ हुआ तो बाबा जी से पूछा कि संगत कैसे मिलेगी तो वचन आया -मेरे दो भक्त तो हैं ही संगत बना लेना |

आज तो लगभग हर शहर में संगत मिल जाती और अगर उस शहर में नहीं मिले तो आस-पास मिल जाती है |

लेकिन दो गुरमुख और रिश्ता पति -पत्नी का,जहाँ ऊंची आवाज़ में तो बात चीत आम है,उन्हीं को साथ लेकर संगत की स्थापना करनी,किसी तपस्या से कम नहीं |


विवेक जी ने बताया था कि-डैडी जी स्टेज पर बैठते और माता जी चरणों में और ट्रांसफर पर आये थे तो कमरा किराये का था |

विवेक जी ने बताया कि डैडी जी स्टेज पर बैठते तो मम्मी जी उनमें पूर्णतः गुरु का रूप देखती थी |यह नहीं कि आपस में बातचीत चल रही है | 

मम्मी जी स्टेज पर पानी आदि रखते |संगत के बाद मम्मी जी शब्द पढ़तीं और डैडी जी विचार करते |

इसी तरह संगत शुरू हुई |चंडीगढ़ में आज जो लाखों की संगत है उसकी शुरूआत इसी से हुई |

निरंकारी राजमाता जी के श्रीमुख से हमने सुना है कि-गुरु अगर जंगल में होगा तो भी संगत बना लेगा लेकिन पूरी संगत मिलकर भी गुरु का निर्माण नहीं कर सकती |

मुझे लगता है कि यह काम आसान तो बिलकुल नहीं है |शौक़ साहब जी और पद्मा जी की ऊंचे दर्जे के अनुशासन से युक्त वास्तविक भक्ति है |

पति-पत्नी के बीच गुरु की उपस्थिति का वातावरण ही बन जाना ही बड़ी बात है |यह किसी चुनौती से काम नहीं लेकिन इन दोनों गुरमुखों ने इस चुनौती का हल निकाला और मेरे जैसे लोगों के लिए एक मिसाल पेश की | 

        शौक़ साहब अक्सर संगत में आने वालों से कहा करते थे कि जो कुछ संगत में सुना है उसे घर तक लेकर जाओ और उसे घर के सदस्यों तक पहुंचा दो |और आगे संसार तक पहुंचा दो |                                           

        आदरणीय शुभकरण जी की यह विचार सुनकर मुझे पद्मा जी का वह गीत भी याद आ गया जो मैं इक्यासी-बयासी के सन्त समागम में लालकिले के पीछे सुना था |उनके दर्शन तो मुझे 1986 के मानव एकता समागम में सहारनपुर में हुए थे |

शौक़ साहब जी के दर्शन तो मुझे सिर्फ तस्वीरों में ही हुए हैं लेकिन विवेक जी से खूब अच्छी बात चीत कई बार हुई |तब मुझे भी सन्त निरंकारी (हिंदी )के संपादक होने का सौभाग्य प्राप्त हो गया था और मेरे साहित्यिक गुरु निर्मल जोशी जी आदरणीय धर्म सिंह जी शौक़ के परम मित्र थे |इस प्रकार ऐसे महात्माओं की प्रेरणा ने ही मुझे लाभ पहुँचाया है |धन निरंकार जी-