कबीरवाणी के जीवित रहस्य

 - रामकुमार 'सेवक'

लुकाठी का तात्पर्य मैं पहले लाठी समझता था ,लेकिन मेरे एक मित्र हैं जो लुकाठी उपनाम से गद्य रचना करते हैं |उनसे बात हुई तो पता लगा कि चूल्हे से जलती हुई लकड़ी को अगर  निकालें तो उसे लुकाठी कहते हैं |

लुकाठी शब्द का आशय मुझे मशाल के करीब लगता था |

 यह शब्द पहले मैंने कबीर दास जी के इस दोहे में पढ़ा --

कबीरा खड़ा बज़ार में लियें लुकाठी हाथ ,जो घर जारै आपना चले हमारे साथ |

अगर सतही दृष्टि से देखें तो इस सलाह को कोई भी विवेकी इंसान मानना नहीं चाहेगा क्यूंकि रोटी ,कपडा और मकान में से मकान बनवाना सबसे कठिन है तो इस कठिन कार्य को कर चुका कोई भी इंसान अपने घर को जलाने की बात सोच भी नहीं सकता |

ऐसा लगता है कबीर जी भी ऐसी सलाह नहीं दे रहे होंगे क्यूंकि कबीर इंसान को अहंकार छोड़ने की बात तो कह सकते हैं चूंकि मुक्ति के पथ में अहंकार ही सबसे बड़ी बाधा है |उन्होंने एक अन्य दोहे में लिखा है-आपा मेट जीवत मरै तो पावै करतार |

   श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं -अहंकार परमात्मा ने नहीं बनाया उसे तो इंसान खुद -बखुद पैदा कर लेता है |वह अपने आपको जैसे तीस मार खां समझने लगता है |

जिस प्रकार काई पानी में खुद ही जम जाती है इसी प्रकार अहंकार मन में अपने आप पैदा होता है |

बाबा हरदेव सिंह जी महाराज कहा करते थे -जैसे इंसान के कान में कोई फूंक मार देता है कि तुम से बढ़कर कोई है ही नहीं इसी प्रकार यह सूक्ष्म अहंकार  इंसान का ऐसा नुक्सान कर देता है कि पुनः इंसान पुनः जन्म लेने को मजबूर हो जाता है |

इसीलिए अहंकार की जड़ को माया कहा गया है कि-दिखने में तो कुछ भी नहीं लेकिन जब दिलोदिमाग पर छाती है तो इंसान उसके पार कुछ देख ही नहीं पाता |

कबीर दास जी काशी के बाजार में खड़े होकर इंसान को माया के खेल में उलझने से बचाने की कोशिश ही तो कर रहे थे चूंकि बहुत पहले ही उन्होंने लिख दिया था -

माया महाठगिनी हम जानी 

 शरीर जब खुद माया का समन्वित रूप है तो माया के खेल में न उलझने की बात कबीर जी कह सकते हैं |क्यूंकि कबीर जी माया के प्रभाव क्षेत्र में नहीं घुसते |इसे यूँ भी कह सकते हैं कि घुसते तो हैं लेकिन जैसे किसी महामारी से बचाने के लिए चिकित्सक दल किसी गांव में जाता है तो स्वयं को सुरक्षित करके जाता है | ऐसी व्यवस्था करके जाते हैं कि महामारी का उन पर असर न हो |

इसी प्रकार यही भूमिका निभाते हुए बाबा अवतार सिंह जी कहते हैं -

माया जेहड़ी रंग -बिरंगी तेरा जी परचांदी ए

पक्की गल समझ ले मेरी एह आंदि ते जांदी ए

हम सब भली भांति जानते हैं कि इस संसार में हम सब खाली हाथ आते हैं और बिना कुछ भी साथ लिये हम धरा धाम से विदा हो जाते हैं |

लेकिन जैसे श्री गुरु नानक देव जी ने किसी माया के प्रेमी से कहा-

यह सुई तुम सम्भाल लो,परलोक में जब मैं मिलूँगा तो मुझे वापस दे देना |

छोटी सी सुई थी उसने सम्भाल ली लेकिन किसी ने कहा-क्या पागल हुए हो ?

इस लोक की कोई चीज इस दुनिया से क्या कोई लेकर जा सका है ? 

एक सेठ को अपनी जायदाद पर बहुत घमंड था उसकी कोठी में एक सन्त आये |

सन्त के सामने अपनी जायदाद की चर्चा करके खुद मियां मिट्ठू बनना किसी प्रकार भी उचित नहीं लेकिन जिसे दिखावे की आदत हो तो वह कभी दिखावा करने से रुकता नहीं |

सन्त जैसे ही उसकी कोठी में घुसे ,उसने शुरू किया-ऐसी इस शहर में मेरी पांच कोठियां हैं |मेरा बिज़नेस अन्तर्राष्ट्रीय है |

वह बोलता गया कि मेरा इतना बड़ा बिज़नेस है |सन्त कोठी में लगे सजावटी सामान को सहज भाव से देख रहे थे लेकिन सेठ को लग रहा था कि वे मेरी शान-ओ-शौक़त से बहुत अधिक प्रभावित हैं इसलिए वह अपना गुण-गान करने में लगा था |

कोठी के एक कोने में सेठ का बेटा ग्लोब से खेल रहा था |सन्त ने बेटे को बुलाकर उससे पूछा-तुम्हारे हाथ में क्या है ?

उसने कहा -जी ,ग्लोब है ?

सन्त ने पूछा-इसमें क्या-क्या हैं ,उसने कहा-सब देश हैं और दिशा सूचक भी हैं |

फिर उन्होंने पूछा-बच्चे ,इसमें और क्या- क्या है ?

बच्चे ने अलग -अलग देशों के नाम ग्लोब में दर्शा दिए |

सन्त ने पूछा -भारत कहाँ है ?बच्चे ने बिलकुल छोटे से स्थान पर ऊँगली रख दी | 

सन्त ने अब महाराष्ट्र के बारे में पूछा|

बच्चे ने एक छोटे से स्थान पर ऊँगली टिका दी |

अब सन्त ने प्रश्न किया कि-मुंबई कहाँ है ?

बच्चे ने मटर के दाने जितने स्थान पर ऊँगली रखकर कहा-यह मुंबई है |

अब सन्त ने पूछा -इसमें तुम्हारे पिताजी की कोठियां और कारोबार कहाँ हैं ?

बच्चे ने कहा -पूरी दुनिया जब इतनी छोटी दिख रही है तो पिताजी का कारोबार उसमें बड़ा कैसे होगा |

सन्त जी ने खुद उसके बैठे से कारोबार की हकीकत बयान करवा दी |यह सेठ के लिए एक बड़ा सबक था |

सेठ को लग गया कि मेरे पास तो दो-चार कोठियां ही हैं जबकि सिकंदर के पास तो पूरा यूनान था |                  इसलिए माया के लोभ में पड़ना किसी काम का नहीं |

कबीर दास जी ने कहा है-  

ऐसा कोई न जनमेया,जो निज घर लावे आग 

पांचो लरिका जार के रहे राम लिव लाग  

कबीर दास जी का वास्तविकता समझाने का अपना निराला ही ढंग था | उन्होंने कहा -उन्होंने ऐसा कोई नहीं देखा जो खुद अपने घर में आग लगा दे |अपने पाँचों लड़को को अग्नि में जला दे और इसके बावजूद भी राम के साथ मन का तार जुड़ा रहे |

यह काम भी कोई अच्छा नहीं है कि इंसान अपने पाँचों बेटों को जला दे -

कोई भी इंसान यह सुनकर बहुत ही दुखी हो जायेगा |

महात्मा चेतन करते हुए कहते हैं-

क्या कबीर जी ने अपने बेटे कमाल और बेटी कमाली को जला दिया था ?

नहीं -इसका अर्थ है कि उनका संकेत कहीं और था |

कबीर दास जी ने पांच लड़के बताये हैं ,इसका अर्थ यह है कि-पाँचों लड़को के नाम से कबीर जी का तात्पर्य है-पांचो इन्द्रियां 

पांचो इन्द्रियों को जलाने का अर्थ है-पाँचो इन्द्रियों पर विजय हासिल करना |