सेवा के बीज और संस्कारों की खेती

 रामकुमार सेवक 

सेवा -यदि संस्कार बन जाए तो व्यक्ति जैसे देवलोक में वास करता है |इसकी आधारशिला तो निरंकार के प्रति गहरी आस्था ही है |

इंसान का अस्तित्व प्रायः इस दुनिया से बहुत प्रभावित होता है लेकिन दुनिया की सारी चमक-दमक मिलकर भी इंसान को संतुष्ट नहीं कर सकती |

ताजमहल से दुनिया को चमकदार बनाने वाले शाहजहां ने अपने जीवन में बहुत उतार -चढ़ाव देखे |अपने अंतिम वर्ष जेल में गुजारे |शाहजहां को जेल में क़ैद करने वाला कोई और नहीं ,उसी का पुत्र औरंगजेब था |

एक दिन शाहजहां का रोगी शरीर बेहद लाचार था |उसे बहुत प्यास लगी हुई थी लेकिन दो घूँट पानी के लिए भी लाचार था |यह तो चौदहवीं शताब्दी का मामला रहा होगा लेकिन कुछ वर्ष पहले एक बड़े उद्योगपति पर उसी के बेटे ने मुकदमा कर रखा था |इस प्रकार पिता और पुत्र के रिश्तों में भी बहुत गिरावट आ चुकी है |इसके विपरीत सत्संग में आज भी सेवा ,सुमिरन ,सत्संग के संस्कार दिए जाते हैं |

यह सिर्फ जुबानी जमा -खर्च नहीं है बल्कि अध्यात्म के पुराने महारथियों ने अपने व्यवहार से संस्कारों की खेती की है |

अपने जीवन पर दृष्टि डालता हूँ तो आदरणीय निर्मल जोशी जी,मान सिंह जी मान ,जे आर डी सत्यार्थी जी,वासुदेव राय जी  आदि महात्माओं के पदचिन्हों को छपे हुए महसूस करता हूँ |  

जयपुर के पूर्व संयोजक महात्मा मनोहर लाल जी छाबड़ा के बारे में उनके सुपुत्र ने 9 फरवरी 2024 को प्रातःकालीन सत्संग में  बताया कि महात्मा जब भी यात्रा में चलते तो अपने व्यवहार से मिशन का प्रचार-प्रसार करने का उद्यम करते थे |

भोजन प्रायः वे घर से ही लेकर चलते थे |अक्सर ट्रैन से चलते थे |

उनकी यह आदत उनके सुपुत्र को   कुछ अजीब लगती थी क्यूंकि ट्रैन में भी भोजन शुरू करने से पहले वे सहयात्रियों को भोजन के लिए आमंत्रित करते थे क्यूंकि निरंकारी सज्जन अक्सर भोजन शुरू करने से पहले साथ वाले महात्मा को भोग लगवाते हैं |

भारतीय संस्कृति में हम लोग भोजन शुरू करने से पहले देवताओं को समर्पित करते हैं लेकिन यह परंपरा तो कभी की लुप्त हो चुकी है |

छीना -झपटी के इस युग में तो लोग ऐसी समृद्ध और जाग्रत परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं इसीलिए खूब धन होने के बावजूद घरों में प्रेम , शांति और बरक़त देखने को नहीं मिलती |



पिताजी जब सहयात्रियों को भी भोजन हेतु आमंत्रित करते तो हम लोगों को बहुत ही अजीब लगता था लेकिन सहयात्रियों पर इसका बेहद अनुकूल प्रभाव पड़ता था क्यूंकि पिताजी की भाषा भी जोड़ने वाली थी |उनकी भक्ति भाव वाली भाषा सत्गुरु के संदेशों को किसी के भी हृदय में उतार देने में सक्षम थी |

सेवा-सुमिरन -सत्संग के संस्कार इसी प्रकार जीवन में चमक पैदा करते हैं |