
ज्यादातर उन्हें हम जीते रहो कहते हैं |हमारे गांव में हमारे बुजुर्ग अनपढ़ होते थे लेकिन किसे क्या आशीर्वाद देना है,उन्हें बखूबी पता था |क्यूंकि विवेक जाग्रत था |बेटियों को क्या आशीर्वाद देना है और बहुओं को क्या कहना है ,यह भी उन्हें बखूबी पता था लेकिन कहे गए शब्दों का अपना प्रभाव जरूर होता है और वह बहू के व्यवहार को अनुकूल धारा में मोड़ सकता है इसलिए आशीर्वाद के शब्दों को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते |
यद्यपि अपने कहे शब्दों पर उन्हें बहुत भरोसा नहीं होता था चूंकि परमात्मा का बोध नहीं था लेकिन उनके आशीर्वाद फलते भी थे चूंकि परमात्मा अथवा किसी अज्ञात सत्ता को बीच में रखते जरूर थे |
आशीर्वाद के फलने अथवा साकार रूप लेने के पीछे जो तत्व काम करता था उसमें सद्भावना मूल तत्व है |
उनका विवेक भी पूर्णतः काम करता था |विवेक भी जीवन का एक आवश्यक तत्व है ||मुझसे मेरे एक मित्र ने वर्षों पहले यह प्रश्न पूछा था कि सेवक जी,विवेक किसे कहते हैं ?
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी ने एक बार दिल्ली में कहा था कि-
कान हमारे शरीर के साथ लगे होते हैं |किसी ने भी अगर कोई शब्द बोला तो हम उसे सुनते हैं |सुनने के बाद उन शब्दों का अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव भी होता है |
इस स्थिति में विवेक की भूमिका प्रबल होती है |विवेक उस फ़िल्टर की तरह होता है जो हमारा मार्गदर्शन करता है कि किस शब्द का क्या प्रभाव लेना है ?
यदि विवेक जाग्रत है तो हम अनुकूल प्रभाव लेंगे लेकिन अगर विवेक सुप्त है तो हम उन शब्दों का विपरीत प्रभाव ले सकते हैं |
सत्संग में आने के बावजूद हमारा जीवन बेहतर नहीं होता चूंकि कहा कुछ और जाता है और सुना कुछ और जाता है |
कुछ वर्ष पहले नव वर्ष पर बाबा हरदेव सिंह जी ने दिल्ली में कहा था कि सत्संग में किसी गायक ने मधुर स्वर में गया-
गुण गावां सुबह -शाम
लेकिन एक श्रोता ने सुना-गुड़ गावां सुबह -शाम |
उसे यह पूर्ण जाग्रति थी कि सत्संग में जो सुना जाता है उसे आचरण में भी लाना होता है इसलिए उसने खाद्यान्न में गुड़ की मात्रा बढ़ा दी |
परिजनों ने उसे रोकते हुए कहा-
गुड़ का ज्यादा खाना दांतों को ख़राब करेगा |उसने आपत्ति करते हुए कहा -हमने तो संगत में यह सुना है |आपको संगत में सुने वचनो को भी मानने पर भी आपत्ति है तो यह सही नहीं है |
परिजनों ने सम्बंधित गायक सज्जन से बात की तो पता चला कि उन्होंने गलत सुन लिया था इसलिए आचरण से पहले विवेक को जाग्रत रखना अति आवश्यक है |
सत्संग में जाने का मूल आशय ही विवेक की जागृति है |रामचरिमानस में कहा गया है-
बिनु सत्संग विवेक न होई,राम कृपा बिनु सुलभ न सोई |
मुझे लगता है कि जीवन मुक्ति के लिए विवेक जैसे आधारशिला है |विवेक जाग्रति का एक मात्र उपाय है-सत्संग |सत्संग की बातों को जीवन में व्यवहारिक रूप देना ही जीवन मुक्ति का एकमात्र उपाय है |
- रामकुमार 'सेवक'