सुकून - ब्रह्मज्ञानी को भी यदि जीवन में सुकून हासिल न हो तो यह उसके ब्रह्मज्ञानी होने पर बड़ा प्रश्न चिन्ह है ?

 रामकुमार सेवक  

सुकून कहीं बाहर से नहीं आता बल्कि हमें खुद अपने भीतर से निकालना पड़ता है |हमारे भीतर पूरा का पूरा परमात्मा मौजूद है ,इसके साथ खुद को कनेक्ट करना पड़ता है |

इसका एक ही उपाय है कि तूही निरंकार बोलकर इंसान रुके नहीं बल्कि जैसे ही शब्द पूरे करे ,उन्हें सुने |इस अवस्था में आते है तो निरंकार का सुमिरन activate हो जाता है |फिर सुमिरन का पूरा लाभ मिलता है | 

वक्ता के रूप में हमने शब्द बोले लेकिन उन्हें सुनने के लिए एक क्षण भी नहीं रुके |

हमने सुमिरन के शब्द बोले अर्थात वक्ता की भूमिका निभाई ,अब भूमिका शुरू होती है श्रोता की |

सुमिरन में कोई दूसरा नहीं है तो श्रोता की भूमिका भी हमें खुद ही निभानी है |

श्रोता की भूमिका इंसान नज़रअंदाज़ कर देता है इसलिए सुमिरन पूरा होता ही नहीं |वह इन्सान बोलता रहता है इसलिए उसका सुमिरन रटन बन जाता है |

सुमिरन और रटन का अन्तर इस उदाहरण से समझा जा सकता है  कि एक होता है- पानी पीना और दूसरा पानी को कंठ के नीचे न उतरने देना ,जैसे भगवान शिव  के बारे में कहते हैं कि उन्होंने जहर को कंठ से ऊपर ही रखा था |जहर के सन्दर्भ में तो यह जरूरी था लेकिन सुमिरन के सन्दर्भ में तो श्रोता की भूमिका को निभाना अति आवश्यक है |

इंसान राम -राम बोलता है लेकिन राम बोलने में भी जुबान का ही इस्तेमाल करता है,कान इस्तेमाल करना भूल जाता है |इस प्रकार पूरी प्रक्रिया रटन  तक सीमित रह जाती है इसलिए सिख दर्शन में शब्द और सुरत के मेल का निर्देश दिया गया है |

एक मंदिर में गीता पर एक पंडित जी प्रवचन कर रहे थे |पंडित जी की कथा में श्रोताओं की अच्छी भीड़ उमड़ रही थी |भीड़ को देखकर पंडित जी हर्षित थे |

कथा संपन्न होने वाली थी तो पंडित जी ने श्रोताओं के श्रोता भाव की परीक्षा ली |उन्होंने लोगों से पूछा-गीता का उन्नीसवां अध्याय किस किसने पढ़ा है ,हाथ खड़ा करो ?

लोगों को अपने पठन- पाठन का पूरा अहंकार था | उन सबने हाथ खड़े कर दिए |

पंडित जी बोले -भाइयों,गीता में कुल अठारह अध्याय हैं ,आपने उन्नीसवां अध्याय कैसे पढ़ लिया ?यह सुनकर श्रोताओं को जैसे सांप सूंघ गया |सब बहुत लज्जित हुए |

इसीलिए शब्द और सुरत का मेल बहुत जरूरी है |

वे सब गीता पढ़ते तो थे लेकिन खुद नहीं सुनते थे इसलिए गीता पढ़ने के बावजूद वे प्रश्न का सही उत्तर न दे सके और अच्छा काम करने के बावजूद शर्मसार हुए | 

जैसे -जैसे हम शब्द और सुरत का समन्वय करने में सफल होते हैं सुकून आने लगता है|इसीलिए सुमिरन में प्रतीक्षा की भूमिका नहीं है क्यूंकि वह खुद की ही भीतरी अवस्था है |पूरा परिवर्तन अपने ही भीतर करना है इसलिए यह आत्मानुभव है इसीलिए बाबा अवतार सिंह जी ने अपने ग्रन्थ सम्पूर्ण अवतार बाणी में गुरसिख की विशेषता बताते हुए लिखा -

अट्ठे पहरे सुणदा रहन्दा अर्शां दी शहनाई नू 

अवतार गुरु दा शब्द संभाले भुल्ले होर पढ़ाई नू  

वह आकाश की शहनाई अर्थात अनहद नाद को सुनता है |शब्द संख्या 27 में वे कहते हैं -

घर दस्सां मैं की साहिब दा,कर ना सक्के जीभ बयान 

अरबां नाद करोड़ां बाजे ,नाद इहदे दर तरले पाण

भैरवी इत्थे गिद्धा पावे ,नचदा -गाउँदा ए मल्हार 

देवी-देव रबाबी इहदे ,धर्मराज ने छेड़े तार     

 इस प्रकार पूरे दृश्य में कुछ अलौकिक दृश्यों का चित्रण किया गया |इस शब्द -चित्रण में सुनना ही मूल आधार है |

वर्ष 2004के वार्षिक समागम की गुरुवंदना में भक्ति पर बल देते हुए निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी ने भक्ति के अंग सुमिरन पर पहुत बल दिया था | इसका अर्थ है कि हममें निरंकार के प्रति ज्यादा जाग्रति होनी चाहिए |इसमें समय और वार का कोई बंधन नहीं है लेकिन सुमिरन की मात्रा को बढ़ाना चाहिए |  

देखा जाये तो सुमिरन ही सुकून का मूल है | 

बाबा गुरबचन सिंह जी ने 1973  में हुई मसूरी कॉन्फ्रेन्स में परिवारों में जागरूकता लाने के लिए बड़े कदम उठाये थे लेकिन उन कदमो का असर व्यक्तिगत स्तर पर उतना नहीं पड़ा जितना जरूरी था इसलिए पर्याप्त असर देखने को नहीं मिला | बाबा हरदेव सिंह जी ने बहुत बारीकी से वास्तविकताओं को समझा लेकिन उनके आदेशों  को व्यवहार में पूरी तरह नहीं लाया जा सका इसलिए  परिवारों में असंतोष और आपसी समन्वय का अभाव महसूस होता है |  यदि मन के स्तर पर अध्यात्म कमजोर हो तो मन में अस्थिरता नज़र आती है इसलिए विगत दिनों संपन्न हुए 76 वे वार्षिक सन्त समागम में सुकून को केंद्रीय विषय बनाया गया |मुझे भी कुछ भाव लिखने का अवसर मिला |कविता यहाँ प्रस्तुत है-  

76  वां समागम - कविता 

मात -पिता की कृपा से ही मानव तन तो पाया है 

लेकिन ज़रा सोच तू मानव क्या ईश्वर को भाया है ?

ईश्वर को भाया है तो फिर काम-क्रोध से यारी क्यों ?

ईश्वर से तो बनी नहीं फिर बैर से रिश्तेदारी क्यों  ?

ज़रा सोच ले मानव तू ,क्यों इक -दूजे पर भारी है ?

सूकून हृदय का ,हासिल करना ,पहली जिम्मेदारी है। 


निकट बैठने से भट्टी के ,आग की लपटें आएँगी 

जरा सोच ले मानव तू ,क्या लपटें तुझे बचाएंगी ?

काम,क्रोध और वैर के पुतले ,सोच जरा तू क्यों न बदले 

पहले अपना आप बदल फिर मन में शीतलता आये 

शीतलता के बाद ही मन में कोमलता की पारी है 

सूकून हृदय का हासिल करना पहली जिम्मेदारी है। 


मन की आँखें खोल ज़रा ,हे मानव खुद से यारी रख 

जिसे देख लें हो जाए अपना मन में बातें  प्यारी रख 

मीठी भाषा, भोली आशा, भक्ति की तैयारी रख 

मन में अपने प्रेम बसाकर ,छल और कपट को छोड़ना होगा 

दया का आँचल ओढ़ना होगा, मन को अहम से मोड़ना होगा 

सबसे पहले काम यह कर ले छोड़ना कल पर भारी है 

सूकून हृदय का हासिल करना पहली जिम्मेदारी है।


सत्गुरु की रहमत से हमने ब्रह्म का ज्ञान तो पाया है |

लेकिन सुकून नहीं मिल पाया क्योकि अहम ही भाया है |

मनमत रहेगी जीवन में तो निरंकार फिर साथ न होगा |

साथ में होकर भी जीवन में सत्गुरु का एहसास न होगा |

एहसास नहीं होगा तब तक जब तक वाणी में आरी है |

सुकून हृदय का हासिल करना पहली जिम्मेदारी है |  

धन्यवाद,धन निरंकार जी