गुरमत में अपनी लकीर बड़ी करने का अर्थ निरंकारी राजमाता जी ने जो बताया

 प्रस्तुति-रामकुमार सेवक 

यह मसूरी की बात है,निरंकारी राजमाता जी ने कभी एक कविता लिखी थी जो शायद 1981 के वार्षिक सन्त समागम में पढ़ी गयी थी ,शीर्षक था -कम्म सन्त दा सुखी संसार करना।

इस मीटर में राजमाता जी ने लिखा-हमने किसी दी लकीर नूं  मिटाना नहीं ,अपनी लकीर नू बड़ा बार- बार करना।

उस समय निरंकारी राजमाता जी मसूरी में ही मौजूद थे इसलिए उनसे मार्गदर्शन लेने का सुअवसर मिला। राजमाता जी ने अपनी लकीर बड़ी करने का आधार बताते हुए सतगुरु पर विश्वास की रेखा बड़ी करने की बात कही अर्थात सतगुरु के वचनो का विश्वास बढ़ाने की बात कही। हम जब निरंकार और साकार को एक ही मानते हैं तो बीच में कोई बाधा नहीं रहती। 

 यह सत्गुरु के प्रति विश्वास की उच्चतम अवस्था है।

सतगुरु के वचन शिष्य के कल्याण के लिए ही होते हैं इसलिए उन्हें सत्य मानने से जीवन को एक दिशा मिल जाती है। वह दिशा खुद को संवारने के लिए अति आवश्यक तो है ही हमें सक्षम भी बनाती है। सतगुरु के जो भी वचन आते हैं वे शिष्य के जीवन को सार्थक दिशा देने के लिए ही होते हैं।

सतगुरु की भूमिका की जब हम बात करते हैं तो हमें एक कुम्हार की बात याद आती है जो मिटटी से चिलम बनाना चाह रहा था लेकिन अंतर्प्रेरणा ने उसे प्रेरित किया कि चिलम तो जलाने का काम करती है और अंततः शरीर को रोगी बनाने का काम करती है इसके विपरीत एक सुराही हमें अंदर -बाहर से शीतल करती है और हमारे शरीर को रोगी भी नहीं होने देती। सतगुरु की भूमिका ऐसी ही सदा मंगलकारी होती है।

सतगुरु की कृपा हमारे विचारों और हमारे जीवन को सार्थक दिशा देती है। इसका अर्थ है कि सतगुरु सदा जीवन को रचनात्मक प्रेरणा देते हैं।

1986 में सतगुरु बाबा हरदेव सिंह जी ने मानवता को बचाने के लिए रक्तदान के रूप में स्वयं रक्तदान करके जीवन को एक नयी दिशा दी। रक्तपात में उलझी दुनिया को जीवन बचाने की दिशा में काम करने की जीवंत प्रेरणा दी। जिस प्रकार हर मनुष्य परमात्मा की कृति है इसलिए मनुष्य को मनुष्यता बचाने की दिशा में कार्य करके सतगुरु के वचन का महत्व व्यवहारिक रूप से सिद्ध करना चाहिए। अपनी लकीर बड़ी करने का यह एक उत्तम तरीका है।          

सतगुरु के वचन शिष्य के कल्याण के लिए ही होते हैं इसलिए उन्हें सत्य मानने से जीवन को एक दिशा मिल जाती है। सतगुरु की भूमिका ऐसी ही सदा मंगलकारी होती है।
सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी अक्सर फरमाते थे -सन्तन के मन रहत है ,सबके हित की बात ,घट- घट देखें अलख को पूछे ,जात न पाँत
यह सत्गुरु की कल्याणकारी भूमिका पर ही प्रकाश डाला जा रहा है कि सन्तों के मन में सबके हित की बात होती है। 
बाबा हरदेव सिंह जी ने तो अस्सी के दशक में ही मंगलाचरण और धुनि की रचना करवाई थी। 
मंगलाचरण में कहा गया है-परमपिता परमात्मा सब तेरी सन्तान , भला करो सबका प्रभु सबका हो कल्याण। इससे स्पष्ट है कि सन्तों का दृष्टिकोण सदा से सर्वहितकारी ही रहा है। 
निरंकारी धुनि में कहा गया है-तेरा रूप है यह संसार ,सबका भला करो करतार ,मेरी मांग यही दातार।     

सतगुरु की कृपा हमारे विचारों और हमारे जीवन को सार्थक दिशा देती है। इसका अर्थ है कि सतगुरु सदा जीवन को रचनात्मक प्रेरणा देते हैं।

राजमाता जी का दृष्टिकोण पूर्णतः अध्यात्मिक था। उनका कहना था -सुख सारी दुनिया दे,पा दे मेरी झोली विच ,फिर भी मिलाई रखीं संतां दी टोली विच। 

इतिहास बताता कि उनके मन में सब शिष्यों को सुख देने का भाव सदा ही रहा। उन्होंने खुद सेवा करके युवा पीढ़ी को सेवा का मर्म समझाया। उन्होंने कहकर ही नहीं सेवा ,सुमिरन,सत्संग के व्यवहारिक स्वरूप द्वारा अपनी भक्ति की लकीर आगे बढ़ाने की शिक्षा दी।    

जिस प्रकार हर मनुष्य परमात्मा की कृति है इसलिए मनुष्य को मनुष्यता बचाने की दिशा में कार्य करके सतगुरु के वचन का महत्व व्यवहारिक रूप से सिद्ध करना चाहिए। अपनी लकीर बड़ी करने का यह एक उत्तम तरीका है।