भारत के अनेकता में एकता के चरित्र को खतरे में क्यों डाला जाये ?

 
-रामकुमार सेवक

परमात्मा ने इंसान पर यह कृपा की है कि वह अपने भावों को प्रकट कर सकता है। जब मैं सत्संग में जाता हूँ तो कुछ लोगों को पाता हूँ,जो मूक हैं अर्थात बोल नहीं पाते ।वे लोग अपनी बातों को इशारों की भाषा द्वारा कहने की कोशिश करते हैं। एक तरफ ये लाचार लोग हैं ,दूसरी तरफ एक बड़ा वर्ग है जो बात -बात पर गोली मारत्ने की बात करता है।

इन लोगों को भी परमात्मा ने बोलने की क्षमता दी है ऐसी -ऐसी बातों को फैलाते हैं कि इलाके की शांति भंग होने का खतरा पैदा हो जाता है।  

 ऐसा लगता है जैसे बाड़ ही खेत को खाने में लगी हो। संसद सदस्य होने के नाते संसद सदस्यों को यह विशषाधिकार प्राप्त है कि संसद में वे जो कुछ बोलेंगे उसके लिए उनके विरुद्ध अभियोग नहीं चलाया जा सकता लेकिन यह विशेषाधिकार प्राप्त होने का अर्थ यह नहीं है कि भारत के अनेकता में एकता के चरित्र को खतरे में क्यों डाला जाये ?     

बचपन से ही हम सुनते आये हैं

ऐसी बानी बोलिये ,मन का आपा खोय ,

औरन को सीतल करे आपहु सीतल होय।

कबीर दास जी की यह बात हमें अहंकार से बचाती है। आदमी ऊंची बातें कहने से और शेखी बघारने से बच जाता है लेकिन इन दिनों एक नया मुहावरा अस्तित्व में आया है-नफरती बोल।

 यह मुहावरा हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या परमात्मा ने हमें बोलने की शक्ति इसलिए दी है कि हम कभी भी कुछ भी बोल दें। एक शायर कहते हैं कि-

उम्र भर सोचना मुख़्तसर बोलना।

एक सज्जन कहा करते थे कि-जहाँ आपका कार्य पांच रूपये खर्च करके हो जाता है उस कार्य के लिए आप दस रूपये क्यों खर्च करेंगे ?

स्पष्ट है कि अनावश्यक रूप से कोई इंसान पैसे का अपव्यय करना नहीं चाहेगा ,फिर शब्दों का अपव्यय क्यों करता है इंसान ?यह बात भी सोचने की है कि बोले गए शब्द इंसान के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इसलिए शब्दों को सोच-समझकर बोलना चाहिए।

भारतीय संसद जनतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर है।पूरे भारत से चुने हुए प्रतिनिधि संसद में बैठते हैं। सांसदों का अपना गौरवपूर्ण इतिहास है पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर अम्बेडकर, अटल बिहारी वाजपेयी ,चंद्रशेखर,डॉ राममनोहर लोहिया ,मधु लिमये,द्वारकाप्रसाद मिश्र जैसे विद्वानों और सुषमा स्वराज ,इंदिरा गाँधी,नज़मा हेपतुल्ला और ,सुमित्रा महाजन आदि विदुषियों ने संसद का गौरव बढ़ाया है। ऐसे वक्ताओं के भाषणों को हम अब भी चाव से  सुनते हैं।

इतिहास साक्षी है कि पांडवों की महारानी द्रोपदी ने मजाक में व्यंग्य किया -अंधे की औलाद अंधी --शब्द कटु थे इसलिए बहुत कुछ सहना पड़ा। भरी सभा में चीर हरण भी हुआ और महाभारत के युद्ध में जन-धन की भयंकर हानि भी हुई । चार शब्दों के कथन का भयंकर परिणाम झेलना पड़ा।

निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी ने एक बार अपने प्रवचन में कहा कि द्रोपदी ने तो चलो ये शब्द बोल दिए लेकिन सुनने वाला क्या विवेकी पुरुष था ?

नहीं, अगर सुनने वाला दुर्योधन की बजाय कोई विवेकी पुरुष रहा होता तो उसने ऐसे शब्दों को पकड़कर नहीं बैठ जाना था ,बल्कि ऐसी बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देनी चाहिए।

घरों में कई बार ऐसे विवाद हो जाते हैं लेकिन जो समझदार लोग होते हैं वे विवेक पूर्वक सोचते हैं कि बड़ी भाभी ने यदि कुछ गलती कर भी दी तो उसे ,गलती को प्रतिष्ठा का विषय नहीं बना लेना चाहिए।नकारात्मक ख़बरों को फैलाने से जितना बचा जाए उतना ही बढ़िया है।   

सत्गुरु की शिक्षा सदैव से ऐसी बातों को पानी पर लकीर के समान समझने की रही है। वे ऐसी बातों को हमेशा दरगुजर कर दिया करते थे। उनके इस सहनशील दृष्टिकोण ने हमारी ऊर्जा के व्यर्थ उपयोग से बचाया है। इस प्रकार परिवार और समाज में शांति बनाये रखने में अपना योगदान दिया है।

21 सितम्बर को जब लोकसभा के सम्मानित सदस्यों में से एक के द्वारा एक समुदाय विशेष के विरुद्ध खतरनाक टिप्पणी की गयी तो पूरा सदन अवाक रह गया और कुछ लोगों को तो ऐसा लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे शब्दों को पार्टी हित के नाम पर भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।

परिवार में हम सदैव शांति स्थापित करने के पक्ष में होते हैं। निरंकारी परिवारों में इस सम्बन्ध में कुछ अच्छी परम्पराएं देखने को मिली हैं। जैसे दिल्ली में जब निरंकारी मिशन का वार्षिक सन्त समागम हुआ करता था तो उस अवसर पर हो रही सेवाओं में जब भाग लेने का अवसर मिलता था तो मैंने देखा कि सेवा करने वाली माताएं अपने छोटे -छोटे बच्चों के हाथों से हम लोगों तक खाद्य वस्तुएं पहुँचाती थीं।

उन माताओं के प्रति मेरे मन में एक विशेष प्रकार की श्रद्धा रही क्यूंकि वे उन बच्चों के हाथों से खाद्य सामग्री हम तक पहुंचाकर उन बच्चों में सेवा के संस्कार पैदा कर रही थीं।

इस परिपेक्ष्य में जब मैं अपने सम्मानित संसद सदस्यों के वचन और व्यवहार को तोलता हूँ तो मुझे उन माताओं का व्यवहार अधिक स्वागत योग्य लगता है। हो सकता है उनकी शिक्षा बहुत ज्यादा हो या वे बहुत अच्छा भाषण देने में समर्थ हों लेकिन उनका सुन्दर व्यवहार और संस्कारित करने की उनकी सामर्थ्य इन चुने हुए प्रतिनिधियों से बाजी मार ले जाती हैं।

हमारे जन प्रतिनिधियों को यह सोचना होगा कि हम जिन लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं ,अथवा जो हमें विशिष्ट व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं उनकी आशाएं सात्विक संस्कारों को बचाये रखने की है। लोकसभा की कार्यवाही में भाग लेने वाले इन सदस्यों पर भारतीय जन मानस काफी खर्च भी करता है तो संसद सदस्यों को यह सोचना होगा कि भारतीय जनमानस को हम क्या लौटा रहे हैं ?