-रामकुमार सेवक
कोई इंसान यदि श्रद्धालु है तो उसे एक परमात्मा अथवा जिस शक्ति के प्रति श्रद्धालु है तो उसके प्रति विश्वासी भी होना चाहिए। मेरी यह बात पढ़कर आप में से कुछ कहेंगे कि इसमें क्या शक है?
यह
तो है लेकिन जो श्रद्धालु होगा उसे अपने इष्ट के प्रति विश्वासी भी होना चाहिए। एक बात और है कि उसे डगमगाना नहीं चाहिए। हमारे देश में और सिर्फ हिन्दू धर्म में ही लाखों देवी-देवता हैं। इस परिपेक्ष्य में यदि अन्य धर्मो को भी देखें तो यह संख्या कई गुनी हो सकती है।
बहुदेववाद के इस ज़माने में किसी एक के प्रति शत प्रतिशत श्रद्धा होनी तो लगभग असम्भव लगती है।
अगर श्रद्धा बँटी हुई है तो हर पूजास्थल पर भीड़ तो होगी लेकिन उसका विश्वास शत प्रतिशत नहीं होगा।
विश्वास का शत प्रतिशत न होना यह प्रमाणित करता है कि जिसके प्रति श्रद्धा रखी जा रही है उस पर शक है इसलिए मेरा मानना है कि उपनिषदों में जो एक ईश्वर की बात कही गयी है वही सत्य है।
सामान्यजन में एकेश्वरवाद के मुख्य प्रवर्तक हैं कबीर। चौदहवीं शताब्दी में
जन्मे कबीर का ईश्वर पर गहरा विश्वास था। उस विश्वास के भरोसे से ही उनके अंदर इतनी हिम्मत आ गयी कि उन्होंने न हिन्दुओं को बख्शा न मुसलमानो को। जहाँ भी उन्होंने पाखण्ड देखा उसे उखाड़ फेंका।
चौथी कक्षा में कबीर को पहली बार पढ़ा। पढ़ाते समय हमारे शिक्षक उनकी कई रोचक बातें बताया करते थे।उन्होंने बताया कि कबीरदास जी कहते थे –
दुनिया ऐसी बावरी पत्थर पूजन जाय ,घर की चक्की कोई न पूजे जिसका पीसा खाय।
बाद में हमने कबीर जी की इस बात को यूँ भी पढ़ा-
पाहन पूजे हरी मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ,ता से तो चाकी भली जो पीस खाय संसार
यह सुनकर मैं बहुत हैरान होता
था क्यूंकि
मैं तो पूजा करने मंदिर जाया करता था और वहां तो पाषाण मूर्ति को ही परमात्मा माना जाता है।
कबीर की बात बिलकुल सत्य थी क्यूंकि मूर्ति कुछ कहती- सुनती तो नहीं ही थी। हम बच्चे परीक्षा में उत्तीर्ण होने की प्रार्थनाएं करते लेकिन शंकर जी की प्रतिमा पर भी रत्ती भर भी प्रभाव नहीं पड़ता।
लेकिन हम सब माँ के डर से हाथ जोड़े खड़े रहते।बाद में महर्षि दयानन्द जी ने भी कबीर की बात को ही प्रमाणित किया
बाद में महर्षि दयानन्द जी ने भी कबीर जी की बात को ही प्रमाणित किया। ईश्वर को एक मानना इसलिए जरूरी है क्यूंकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि विश्वास मजबूत हो तो श्रद्धा भी मजबूत हो जाती है।
उसके अपने लाभ हैं। पहली बात तो यह है कि आत्मविश्वास बढ़ जाता है। इस विश्वास के पीछे यह एक तथ्य है कि यह अन्धविश्वास होता है और यह अन्धविश्वास सामान्यजन का काम तो चला ही देता
है।
यह वैसे ही है कि बचपन में जब कक्षा में जाने के लिए देर हो जाती थी तो हम बड़ी बहन को साथ ले जाते थे। उससे भीतर का भय हट जाता है लेकिन
इंसान यह नहीं सोचता कि बड़ी बहन प्रत्यक्ष है तो ईश्वर को भी प्रत्यक्ष होना चाहिए
लेकिन जिस सवाल का जवाब न मिले उसमें माथपच्ची क्या करनी ,उससे आगे बढ़ लेना चाहिए।
हालांकि जवाब तो है लेकिन इंसान व्यस्त रहता है
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कबीर जी
को पाखंडी लोग अपना प्रबल दुश्मन मानते थे इसलिए कड़ी मेहनत करने के बावजूद आर्थिक समस्याएं मौजूद रहती थीं। लेकिन कबीर जी अटल प्रभु के सहारे क्षमता से बढ़कर काम कर देते थे। उनका सन्त सेवा में अटल यकीन था।
एक बार उन्होंने दो -चार सन्तों को भोजन के लिए निमंत्रित किया। यह सोचकर इतना अजीब लगता है कि खुद के खाने का प्रबंध तो हो नहीं रहा और कबीर दावत देने से भी पीछे नहीं हट रहे।
कबीर दास जी ने तो अपना काम कर दिया और काम भी स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं किया बल्कि सन्त सेवा का ही भाव था। दो -चार सन्तों की सेवा का प्रबंध तो माता लोई कर सकती थी लेकिन सन्त भी तो परोपकारी ठहरे और सन्तों के दोस्त भी तो सन्त ही थे।
दो
-चार सन्तों के स्थान पर पचासों सन्त वहां पहुँच गए।कबीर जी ने जब भीड़ को अपने दरवाजे पर देखा तो घर से पलायन करने के सिवा कोई और उपाय नहीं सूझा क्यूंकि क्षमता से अधिक लोगों का प्रबंध तो यह मालिक ही कर सकता है।
मालिक ने कृपा की और चमत्कारिक ढंग से पूरा प्रबंध हुआ। सब सन्तों के लिए भोजन और आदर -सत्कार का प्रबंध हुआ।शाम के समय कबीर साहब डरते डरते घर के अंदर घुसे।
रास्ते से ही लग गया कि कई लोग ,जो कबीर जी को जानते भी नहीं थे उनकी प्रशंसा करते जा रहे थे कि-धन कबीर ,धन कबीर |
कबीर जी ने इस पर कहा -
कबीर मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर
पाछे लागा हरी फिरे,कहत कबीर कबीर
ताने और खड्डी आदि अपनी व्यवसायिक दिनचर्या के माध्यम से उन्होंने मानव को प्रभु से जोड़ा।
उन्होंने कहा- प्रभु की खोज व्यर्थ है क्यूंकि प्रभु कहीं छिपा हुआ नहीं है।उन्होंने प्रभु को कण -कण में व्यापक माना ।जो रोम -रोम में समाया हुआ है उसके लिए मन की आँखें खोलने की आवश्यकता है और कहा-
कंकड़ -पत्थर जोड़ के मस्जिद लई बनाय ,ता पर मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय
आगे वे कहते हैं -चींटी के पग नेबर बाजे तो भी साहब सुनता है।
इस प्रकार वे बिलकुल स्पष्ट हैं क्यूंकि श्रद्धा है लेकिन श्रद्धा अकेली नहीं है ,उसके साथ विवेक और विश्वास भी है। प्रभु से जुड़ने की प्रेरणा देते हुए वे हिरन को भी माध्यम बनाते हैं। वे कहते हैं –
कस्तूरी कुण्डल बसै मृग ढूंढें वन माहि। ऐसे ही जग में राम हैं ,दुनिया देखे नाहीं।
कबीरदास जी के राम किसी से नफरत नहीं करते क्यूंकि वे किसी को हेय नहीं मानते। वे मुल्ला- मौलवियों को भी सबक सिखाते हैं और पंडितों को भी।
बोलते समय वे किसी का लिहाज नहीं करते। पांडित्य के अहंकार से शेष सबको दबाने वाले लोगों से कबीर कहते हैं -
जो तू बहमन बाहमनी जाया आन बाट काहे नहींआया |
इस प्रकार उन्होंने अहंकार के मर्मस्थल पर चोट की। इसके नतीजे भी उन्हें भुगतने पड़े लेकिन उन्होंने सिद्ध कर दिया श्रद्धा निर्भीक होती है जैसे, बाबा अवतार सिंह जी ने भी अपने ग्रन्थ सम्पूर्ण अवतार बाणी में लिखा -
कहे अवतार प्रभु के प्यारे निर्भय मौत से लड़ते हैं।
दुनिया लाख डराए चाहे काम न पर यह छोडूंगा।
अवतार यह जीवन रहे या जाए इस से मुख ना मोडूँगा।
जिसे परमात्मा पूर्ण भरोसा है,सिर्फ वही यह घोषणा कर सकता है।
बाबा अवतार सिंह जी की यह वाणी भक्त का खरापन प्रमाणित करती है। आजकल का ज़माना खरेपन का नहीं है। इसलिए मुक्ति की बात करने वालों की तो कमी नहीं है लेकिन मुक्ति की अवस्था के निकट तक पहुंचे लोगों का घोर अकाल है|
संदेह
करने वाला व्यक्ति जब मुझे मिलता है तो अनायास ही मेरे ध्यान में कब्ज
के किसी रोगी का चेहरा आ जाता है। कब्ज के रोगी का पेट साफ़ नहीं रहता इसलिए हाजमे की समस्या हमेशा बनी रहती है।ऐसा व्यक्ति पहले एक कदम आगे रखता है और दूसरा एक कदम पीछे कर लेता है। कोई भी सोच सकता है कि ऐसा इंसान मंजिल पर कभी नहीं पहुँचेगा।
एक
ब्रह्मवेत्ता सत्गुरु ब्रह्म की अनुभूति के द्वारा इंसान को दृढ करते हैं। वे उसे समझाते हैं कि परमात्मा ही परम सत्य है। इंसान समझता भी है कि यह सत्ता चर्म चक्षुओं से नज़र नहीं आती है। धीरे -इंसान इस सच्चाई को महसूस करने लगता है कि चर्म चक्षुओं से तो हवा भी नज़र नहीं आती लेकिन हमारे शरीर में जीवन ऑक्सीजन की शक्ति से ही है। इस प्रकार हवा तो जीवन का आवश्यक तत्व है।हवा तो
जीवन है | शायर निदा फ़ाज़ली साहब की बात याद आती है कि-
खुदा मुझको ऐसी खुदाई न दे कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे।
खुदा ऐसे एहसास का नाम हैं ,रहे सामने पर दिखाई न दे।
लेकिन ब्रह्मवेत्ता सत्गुरु के चरणों में समर्पित होकर मनुष्यको इस रहस्य का ज्ञान होता है कि सचमुच परमेश्वर ही परम सत्य है। इस अवस्था में इंसान का विश्वास बढ़ जाता है और विश्वास से जुड़कर श्रद्धा अर्थ ग्रहण करती है और इंसान मुक्ति की उपलब्धि हासिल कर सकता है ।