गुरु के वचन संभालने का रहस्य

 

 गुरु के वचन संभालने का रहस्य

-रामकुमार सेवक

शब्द  और  सुरत  का मेल  उतना  ही  जरूरी है जितना कि भूख और भोजन का। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि हर जीवित व्यक्ति एक निश्चित अंतराल के बाद भूख का अनुभव करता है। यह एकतरफ़ा मामला नहीं है ,भूख लगी हो तो वह बिना भोजन किये शांत नहीं होगी। कुछ कुछ खाना ही पड़ेगा। सन्त - महात्माओं ने तो यहाँ तक कहा कि- भूखे भजन होय गोपाला , यह ले तेरी कंठी माला,

 परमात्मा से ही कहना पड़ा -कि-पहले भोजन दीजिए ,उसके बाद भजन हो सकेगा।

इसका अर्थ यह है कि भूख की समस्या बहुत प्रबल है। यह सिर्फ सांसारिक समस्या नहीं है ,भूख शांत हो तो  यह भौतिक समस्या अध्यात्मिक समस्या में परिवर्तित हो जाती है। 

भोजन की समस्या तो दो -चार रोटियों से शांत हो जाती है लेकिन दूसरी भूख मन की है। मन की भूख आँखों के द्वारा प्रवेश करती है और आसानी से शांत नहीं होती। सीता जी की छवि रावण के मन में बसी और उसे चोरी जैसा पापकर्म करना पड़ा।

कहने का भाव कि भूख के अनेक प्रकार होते हैं और इंसान को अधिकांशतः पतन की और अग्रसर करते हैं।

मैं एक दफ्तर में काम करता हूँ वहां के अधिकतर कर्मी दावत की बहुत इच्छा रखते हैं लेकिन ऐसी इच्छा सिर्फ एक ही दफ्तर के कर्मियों में पैदा होती हो ,ऐसी बात नहीं है। जो व्यक्ति लोगों के साथ कार्य -व्यवहार करता है तो अक्सर उसकी भूख दो -चार रोटियां खाकर शांत नहीं होती। उसे तो रोज ही दावत चाहिए।

   इस प्रकार मन की भूख मिटती ही नहीं। दावत की भूख कभी ख़त्म नहीं होती चूंकि उसमें लोभ स्थायी भाव है।

जिन संतों ने कहा-भूखे भजन होय गोपाला -उनकी तो दो -चार रोटी की भूख थी ,मन तो उनका भजन में ही था। इसका अर्थ है कि वे भजन करते थे तो उसका आनंद लेते थे।

 वहां सुरत की प्रवृति पूरा काम कर रही है अन्यथा किसी को लाख गीता सुना लें उसे कुछ पता ही नहीं चलता।

 महात्मा जे आर डी सत्यार्थी जी (पूर्व प्रधान-सन्त निरंकारी मंडल ,दिल्ली ) ने एक बार बताया कि वे दिल्ली के कालका जी क्षेत्र मे रहते थे। संस्कृत के बड़े विद्वान थे तो वे कुछ विद्यार्थियों को पढ़ाते भी थे। शिक्षक का और विशेषकर संस्कृत शिक्षक का बहुत सम्मान होता है।

पड़ोस में बुजुर्ग माता मृत्यु शय्या पर थी उनके परिजनों का ध्यान था कि शास्त्री जी उसे गीता सुना दें ताकि भगवान के चरणों में स्थान मिले।

सत्यार्थी जी कह रहे थे कि परिजनों का जैसा ध्यान था ,मैं उनके घर गया।

 माता के बायीं कान में मैं गीता के श्लोक पढूं तो माता माता दूसरी तरफ कान घुमा ले। दाए कान में श्लोक पढ़ने की कोशिश करू तो माता दूसरी तरफ कान घुमा ले। काफी देर कोशिश की लेकिन माता ने क्रोध में कहा -अरे ,दुष्टो,तुम चैन से मुझे मरने भी नहीं देना चाहते। छत पर कपडे लटके हैं और बारिश आने वाली है तो कपडे गीले नहीं हो जायेंगे क्या ?

सत्यार्थी जी के कहा -जिसका मन कपड़ों और परिवार में पड़ा है ,गीता उनका क्या संवारेगी ?   

 वास्तव में मन क्या सुनने का इच्छुक है और क्या नहीं सुनने का इच्छुक है ,यही बड़ा प्रश्न है।

-किसी -किसी के साथ स्थिति थोड़ी बदल जाती है क्यूंकि बुजुर्ग माता तो मृत्यु शय्या पर थी इसलिए शरीर जवाब दे रहा था लेकिन ज्यादातर लोग तो औपचारिकता वश सत्संग में आते हैं। मैं कई ऐसे सज्जनो को जानता हूँ जो सत्संग में तो सही समय पर आ जाते हैं लेकिन आते ही उन्हें नींद घेर लेती है।


यह समस्या भी काफी पुरानी है क्यूंकि महात्मा बुद्ध के समय में भी थी।  

महात्मा बुद्ध प्रवचन कर रहे थे। उनका प्रवचन सुनने के लिए बहुत लोग आये थे,उनमें एक धनि भक्त आसो जी भी थे। बुद्ध बहुत सार्थक सन्देश दे रहे थे लेकिन आसो जी को नींद में गहरी रूचि थी। नींद बार बार उन्हें दबोच लेती थी।

महात्मा बुद्ध प्रवचन कर रहे थे। उनका प्रवचन सुनने के लिए बहुत लोग आये थे,उनमें एक धनिक भक्त आसो जी भी थे। बुद्ध बहुत सार्थक सन्देश दे रहे थे लेकिन आसो जी की नींद में गहरी रूचि थी। नींद बार बार उन्हें दबोच लेती थी।

बुद्ध ने आसो जी को सोते देखा तो बोले-आसो जी,सो रहे हो ?

आसो जी ने सुना तो समझ गए कि गुरु जी ने देख लिया है। वे अचकचाकर बोले -नहीं महाराज।

प्रवचन चल ही रहे थे कि आसो जी दोबारा सो गए। बुद्ध इतने जाग्रत थे कि उन्होंने यह भी देख लिया।

बुद्ध ने फिर कहा -आसो जी ,सो रहे हो ?यह सुनकर आसो जी को शर्म आयी लेकिन गलती को स्वीकार कैसे करें इसलिए पहले की तरह बोले -नहीं महाराज।

थोड़ी देर बाद आसो जी के खर्राटें फिर गूंजने लगे। इस बार बुद्ध ने प्रश्न बदल दिया ,वे बोले-आसो जी,जीवित हो ?

आसो जी ने सोचा नहीं। नींद सोचने कहाँ देती है इसलिए आसो जी  ने मान लिया कि -वही सवाल है,जो पिछली बार पूछा था इसलिए उन्होंने पहले की तरह कहा-नहीं महाराज।

यह प्रसंग बताता है कि बोलने में तो रूचि है लेकिन सुनने में रूचि नहीं है इसलिए प्रश्न-जीवित हो के उत्तर में आसो जी ने खुद ही खुद को मृत घोषित कर दिया।

इस सन्दर्भ में मुझे सत्तर के दशक का एक उदाहरण भी याद रहा है,जो उस समय की सन्त निरंकारी मासिक पत्रिका में छपा था। विद्वान लेखक ने लिखा था कि बाबा गुरबचन सिंह जी की अध्यक्षता में एक सत्संग कार्यक्रम आर के पुरम नयी दिल्ली में आयोजित किया गया।

 हरिमोहन शर्मा जी की हाजिर जवाबी को याद करते हुए विद्वान लेखक ने लिखा कि हरिमोहन शर्मा जी ने सत्संग में एक ऐसा गीत गाया कि श्रोताओं को अपने साथ बहा लिया।

 यह प्रसंग बताता है कि कहा कुछ और जा रहा होता है और समझा कुछ और जा रहा होता है इस प्रकार शब्द और सुरत का मेल नहीं दीखता।

सत्संग में हरिमोहन शर्मा जी ने जो गीत गाया,उसमें उन्होंने नीचे की पंक्ति बदल दी। उसमें लिखा था -यह सरोजिनी नगर है --श्रोताओं ने कह दिया -हाँ जी।

 शर्मा जी ने श्रोताओं से कहा-यह तो आर के पुरम है ,फिर आप सरोजिनी नगर की हाँ में हाँ क्यों मिला रहे हो?

 भक्त गायक की यह हाजिरजवाबी देखकर श्रोता समूह बहुत ही आनंदित हो गया।      

स्पष्ट है कि शब्द और सुरत का मेल होना बहुत जरूरी है।युगपुरुष बाबा अवतार सिंह जी ने

अपने ग्रन्थ सम्पूर्ण अवतार बाणी में गुरमुखभक्त की विशेषता बताते हुए कहा है-

अट्ठे पहरे सुणदा रहन्दा अर्शां दी शहनाई नू ,

अवतार गुरु दा शब्द संभाले भुल्ले होर पढाई नू।

इस प्रकार उन्होंने सुनने को बहुत महत्व दिया है।

साध संगत में कहे गए शब्दों को भक्त पूर्ण समर्पण के साथ सँभालते हैं। वे सन्तजनों  के शब्दों को सिर्फ सुनकर ही नहीं छोड़ देते बल्कि उसे व्यवहार का अंग बनाते हैं ,इस प्रकार महात्मा बार बार समझाते हैं -शब्द ,सुरत का मेल।

पहले समझो कि उनके शब्दों का भाव क्या है ?भाव नहीं समझोगे तो आचरण में कैसे लाओगे?गुरु के कहे शब्द को आचरण में लाना, इस प्रकार उसे संभालना बहुत जरूरी है।