अध्यात्म सहज समाधि में कर्मयोग है ,पलायन नहीं

 






-रामकुमार सेवक

आदमी की सोच बिलकुल अजीब है ,किसी भी चीज के कारण वह  अपने मन से तय कर लेता है और उनका दोष किसी अन्य पर डाल देता है।

उसके निष्कर्ष बिलकुल अजीबोगरीब रहते हैं। अपने विरोधियों को वह एकतरफा दोषी मानकर  ,वह उन्हीं पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। आज सुबह सैर करते वक़्त मेरा पैर फिसल गया। चोट लगनी थी  सो लग गयी। सबसे बड़ी दिक्कत तो यह थी कि चोट को मैं  परिजनों से छिपा नहीं पाऊंगा क्यूंकि हल्दीयुक्त दूध तो उन्हीं से गर्म करवाना पड़ेगा।

मेरी पत्नी कहेगी कि सावन के इस महीने में इस बार हम किसी धर्मस्थल पर नहीं गए इसलिए हो हो इसके पीछे किसी किसी देवी-देवता का अभिशाप  है।

तुमने जब से इस संस्था को ज्वाइन किया है किसी भी देवी-देवता को पूजना छोड़ दिया है और हमें भी पूजने से रोक दिया है तो भुगतना तो पड़ेगा   ही।

हमारे घर में दो बेटियाँ हैं और इस मामले में उनकी राय मेरे साथ कम मिलती है लेकिन मामला छिपने वाला नहीं था इसलिए मैंने उनके किस संदेह का क्या उत्तर देना है सोचना शुरू कर दिया।

मुझे अपने आदर्शों का बचाव तो करना ही था।मेरा स्पष्ट मानना है कि चाहे -अनचाहे हमसे भूल हो ही जाती हैं इसलिए किसी और में दोष ढूंढने की बजाय आत्मनिरीक्षण करना चाहिए।

बैंक के एक सेवानिवृत अधिकारी , जो मेरे मित्र भी थे , एक बार बता रहे थे कि एक आदमी ने बैंक से कर्ज लिया।

एक बार किश्त समय से चुकाई नहीं जा सकी तो नाराज होकर बोला-मैंने तो कर्ज लिया ही नहीं। बैंक अधिकारियों  ने जब चेक की कॉपी दिखाई और   उसके हस्ताक्षर भी दिखा दिए  तब वह व्यक्ति शांत हुआ। अब इंकार की गुंजाईश ही बची।

हम जिन घटनाओं के शिकार होते हैं यदि गहराई में उतरें तो उस पर हमारे ही हस्ताक्षर देखने को मिलते हैं।अध्यात्म  कहता है  कि जो कुछ परिणाम हम भोगते हैं वे सब हमारे ही किये गए कर्मो के परिणाम होते हैं। मन-वचन कर्म के आधार पर हम पूर्णतः निर्दोष नहीं होते हैं और परमात्मा कल्पना नहीं हकीकत है। इसके बारे में महात्मा समझाते हैं कि परमात्मा की चक्की में आवाज़ नहीं होती लेकिन पीसती यह बहुत बारीक है | 

 मुज़फ्फरनगर में जब मैं पढता था तो उन दिनों मैं एक बाजार से गुजरता था |एक मकान के ऊपरी छज्जे की दीवार पर, लिखा था -दुःख के बीज जवानी के दिनों में रास -रंग के द्वारा बोये जाते हैं जिनकी फसल बुढ़ापे में दुःख भोग के द्वारा काटनी पड़ती हैं।

दुःख की फसल का शास्त्र तो बिलकुल सीधा साधा है लेकिन इंसान सत्य स्वीकार करना नहीं चाहता। वह किसी काले जादू की आड़ ले लेता है ,किसी विरोधी के तंत्र- मंत्र को दोषी मान लेता है और नहीं तो सास अपनी बहू को दोषी ठहरा देती है और बहू सास को।

जबकि सुख और दुःख का आना बिलकुल सहज है। कबीर जी के बारे में तो मैंने सुना है कि कोई सुख ऐसा नहीं जिसके साथ दुःख लगा हो इसलिए वे कहते हैं कि सुख तो मैं बिलकुल नहीं चाहता।

उनका पूरा जोर सहज अवस्था को प्राप्त करने पर रहा है। अपने एक शब्द में वे कहते हैं-

संतो सहज समाधि भली

 संतो सहज समाधि भली

साईं ते मिलन भयो 

जा दिन ते सुरत अन्त चली

आँख मूँदूँ कान रूँधूँ काया कष्ट धारूँ

खुले नैन मैं हँस-हँस देखूँ सुंदर रूप निहारूँ

कहूँ सो नाम सुनूँ सो सुमिरन जो कछु करूँ सो पूजा

गिरह उध्यान एक सम देखूँ भाव मिटाऊँ दूजा

जहँ-जहँ जाऊँ सोई परिकरमा जो कछु करूँ सो सेवा

जब सोऊँ तब करूँ दण्दवत पूजूँ और देवा

शब्द निरंतर मनुआ राता मलिन बचन का त्यागी

उठत-बैठत कबहुँ बिसरै ऐसी तारी लागी

कहै 'कबीर' यह उनमुनि रहनी सो परगट कर गाई

सुख-दुख के इक परे परम सुख तेहि में रहा समाई

संतों, सहज समाधि ही भली है|

 जब से साईं से मिलन हो गया है तब से मैं ने किसी और से लौ नहीं लगाई है| आँख बंद करता हूँ कान, और शरीर को कष्ट पहुँचाता हूँ| खुली आँखों से हँस-हँस कर उसका सुंदर रूप देखता हूँ. जो बोलता हूँ वह नाम है, जो सुनता हूँ वही सुमिरन है, जो करता हुँ वह पूजा है. मेरे लिए घर और उद्यान सब समान है, मेरे लिए उनमें कोई अंतर बाक़ी नहीं है|

 मैं जहाँ भी जाऊँ वही मेरे लिए परिक्रमा है और जो कुछ करूँ वही उसकी सेवा है| जब मैं सोता हूँ तब वही मेरी दंडवत है| मैं किसी और देवता की पूजा नहीं करता. मेरा मन निरंतर उसी के गीत गाता है और कोई कुशब्द मेरी ज़बान पर नहीं आता. उठते-बैठते उसकी याद ताज़ा रहती है और इस राग का क्रम टूटने नहीं पाता|

 कबीरकहते हैं कि मेरे हृदय में जो उन्माद था उसे मैं ने प्रगट कर दिया है. मैं परम सुख की उस अवस्था में पहुँच गया हूँ जो सुख और दुख दोनों से परे है| 

 कबीर दास जी पलायनवादी नहीं थे। वे विवाहित थे और दो बच्चों के पिता भी थे तो जीवन संघर्ष को उन्होंने जिया ही होगा लेकिन वे सहज ही रहे। उन्होंने एक भजन में अपनी सहजता का रहस्य बताते हुए

कहा  है-

ध्रुव ,प्रह्लाद ,सुदामा ने ओढ़ी,शुकदेव ने निर्मल कीनी

दास कबीर ने ऐसी ओढ़ी,ज्यूँ की त्यूं रख दीनी -------

यह उनका जीवन जीने का ढंग था कि किसी संघर्ष ने उनके जीवन की चादर पर दाग लगाने का दुस्साहस नहीं किया।

 झूठ तो बहुत फैलाया गया लेकिन झूठ से वे डरे नहीं और सत्य का अपना बल होता है जो भक्त पर कोई दाग लगने नहीं देता। लेकिन यह उनकी भक्ति का  मौलिक ढंग था। वे परमेश्वर को सामने देखकर महसूस करते हैं इसलिए उनकी भक्ति दिखावटी नहीं होती। वे परमात्मा से सहज संवाद करते हैं इसलिए उनमें भक्ति का अभिमान नहीं होता। इसलिए उनकी भक्ति व्यवहारिक और जीवंत होती है। उसमें परमात्मा खुद समाहित रहता है इसीलिए उसके बारे में पढ़ने- कहने -सुनने का अपना आनंद होता है।

इस प्रकार की भक्ति में कर्मकांडों का बोझ नहीं होता इसलिए सहज समाधि बोझिल  नहीं होती। जो  सही अर्थों में तत्वज्ञानी होते हैं वे सत्य को अनुभव करते और उसे मन से स्वीकार करते हैं। वे अनुभव करते हैं कि सत्य अनुभूति की कोई किताब नहीं होती जिसे आप पढ़कर ज्ञानी हो जाओ। सत्य एक रोशनी है जो तत्व ज्ञान से भिन्न नहीं है इसलिए तत्ववेता किसी शरीर में सीमित नहीं होते बल्कि उनकी रोशनी उन्हें प्रकाश पुंज के रूप में ,एक जीवंत शक्ति के रूप में परिणत कर देती है।

ऐसी शक्ति ही पीर-पैगंबर ,गुरु या अवतार के रूप में प्रकट होकर परमात्मा से एकत्व स्थापित कर लेती है।राम ,कृष्ण और बुद्ध जैसे महामानव इसी प्रकार विश्व को ज्योतिर्मय कर रहे है और चूंकि हर मनुष्य को प्रभु ने अपनी छवि से बनाया है इसलिए कोई भी मनुष्य साधना करने पर इस ऊँचाई को हासिल कर सकता है  |