इतिहास -अग्नि परीक्षा लेकर भी सीता को किया न माफ़ -यह कैसा इन्साफ ?

रामकुमार सेवक   

न जाने क्यों सीताजी के प्रति मेरे मन में एक सहानुभूति का भाव है चूंकि वे निरपराध थीं इसके बावजूद उन्हें कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ा | 

धर्मशास्त्रों तथा मान्यताओं के अनुसार सीता जी का जन्म त्रेता युग में हुआ |


एक युग हज़ारों साल का होता है, इस परिपेक्ष्य में देखें तो मेरी सहानुभूति से सीता जी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता |लेकिन उनसे सहानुभूति मन को एक बल प्रदान करती है |एक ख़ुशी प्राप्त होती है, यह ख़ुशी मेरे ख्याल से श्रद्धा के कारण है |यह श्रद्धा जन्मजात है इसलिए इसे अंधश्रद्धा भी कहा जा सकता है लेकिन मन में जो आनंद उत्पन्न होता है वह वास्तविक है |यह आनंद ही मुझे सीता जी के बारे में कहने और लिखने को प्रेरित करता है |

सीता जी के जन्म की कथा अद्भुत है |मैं उत्तर प्रदेश में जन्मा -पला-बढ़ा हूँ |द्वितीय कक्षा में जब पढता था तो सीता जी और राम जी के बारे में शायद पहली बार पढ़ा |

राम जी का नाम तो उससे भी पहले सुना था |भगवान् का अस्तित्व मेरे लिए राम का नाम ही था |सीता जी चूंकि रामजी की पत्नी थीं इसलिए उनके प्रति भी श्रद्धा हुई ,बहरहाल उनके जन्म की बात को आगे बढ़ाते हैं |

जनक, जी मिथिला के राजा थे |उनके राज्य में अकाल पड़ा |विद्वानों अथवा धार्मिक लोगों ने राजा को सलाह दी कि वे स्वयं खेत में हल चलाएं तो राज्य का इस विपत्ति से छुटकारा हो सकेगा |राजा ने सलाह मान ली | खेत में हल चलाते हुए ,वहाँ पड़े एक घड़े में एक कन्या मिली |राजा की तब तक कोई संतान नहीं थी |राजा ने उसे अपनी पुत्री माना |

राजा जनक और उनकी पत्नी सुनयना ने इस कन्या को अपना समझा और उसके बचपन का आनंद लेने लगे | 

सीता जी में असाधारण शक्ति रही होगी चूंकि बेटी सुन्दर हो ,यह तो साधारण बात है लेकिन असाधारण शारीरिक शक्ति रखती हो यह भाव विश्वास करने योग्य नहीं लगता |

जनक जी के महल में शिवजी का एक मजबूत धनुष था |सीता जी उसे खेल ही खेल में इधर से उधर रख देती थीं |

जनकपुर (नेपाल) में तो कहते हैं कि बाएं हाथ से उठा लेती थीं |रामायण धारावाहिक में हमने देखा कि राम जी के अलावा कोई राजा उसे हिला तक नहीं पाया और सीता जी उसे बाएं हाथ से उठा देती थी, यह कथन अतिशयोक्ति लगता है |

राजा ने यह देखा तो तय किया कि जो राजकुमार धनुष तोड़ देगा उसी से सीता का विवाह होगा |यह निश्चय राजा जनक का था ,इस दृष्टि से देखें तो यह स्वयंवर तो नहीं था |लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे लगता है कि सीता जी और रामजी एक दूसरे के लिए ही बने थे |उनके आकर्षण से प्रेम तक पहुँचने की कहानी पुष्पवाटिका में एक-दूसरे को अनायास ही देखने से शुरू हुई |यह प्रेम सफलता तक पहुंचा चूंकि रामजी ने राजा जनक की शर्त पूरी कर दी और अंततः विवाह हो गया  |

पिछले दिनों जब धारावाहिक रामायण का यह प्रसंग पुनः देख रहा था तो मुझे ख्याल आया कि राम जी तो विश्वमित्र जी के साथ राजा जनक के दरबार में आये थे |

वे स्वयंवर के लिए आमंत्रण पर वहां  नहीं गए थे |जब सारे राजा और राजकुमार जोर आजमा चुके तब राम जी को अवसर मिला |मैं सोचता हूँ कि यदि स्वयंवर में आये राजाओं में से कोई धनुष तोड़ देता तो क्या होता ?

इस कल्पना को आगे बढ़ाने की बजाय क्यों न उसी ओर बढ़ें जो वास्तविक तौर पर जन प्रचलित है |राम जी ने सहजता से धनुष तोड़ दिया और विवाह हो गया |धनुष तोड़ते ही परशुराम जी आपत्ति लेकर आ गये इस प्रकार विघ्न शुरू हो गया |राम जी ने उनका भ्रम दूर किया और समस्या टल गयी | 

साहसिक फैसला      


सीता जी के साथ यहाँ तक सब बढ़िया है लेकिन कुछ ही समय बाद राम जी को चौदह वर्ष का वनवास हो गया |उनकी पत्नी होने के नाते सीता जी ने राम जी का साथ देना बेहतर समझा और वनवास का कठिन मार्ग चुना |

यह उनका साहसिक कदम था |उन्हें राजा दशरथ और राम जी की माताओं ने रोका कि वनवास का निर्णय सिर्फ राम के लिए है |

पतिव्रता स्त्री होने के नाते सीता जी को यह तर्क स्वीकार नहीं हुआ |राम जी ने स्वयं भी उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन पति की यह बात उन्हें रुचि नहीं |प्रजा तो राम को वनवास दिये जाने के एकदम विरुद्ध थी | उनके राजमहल में सुखपूर्वक रहने के पक्ष में सारे तर्क थे लेकिन उनके पतिव्रत का पलड़ा ज्यादा भारी था,परिणामतः उनका निश्चय ज्यूँ का त्यूँ रहा |इससे स्पष्ट है कि वे मुश्किलों से घबराने वाली नहीं थी |

वनवास के दौरान 

वनवास की कठिनाई समझी जा सकती है |वे राजकुमारी ,राजवधू और राजरानी थीं लेकिन काँटों और पत्थरों से भी वे विचलित नहीं हुईं |

अयोध्या से निकलकर राम जी ने गुह से मित्रता की |वे एक वनवासी सामंत थे लेकिन राम जी के भक्त थे |उन्होंने वहीं राम जी को रोकना चाहा |लेकिन राम जी के लिए किसी कूटनीति का कोई अर्थ न था चूंकि उन्होंने नये धर्म की स्थापना करनी थी |वे मन-वचन -कर्म से पूर्ण नैतिक थे |सीताजी ने वही मार्ग चुना , जो राम जी का मार्ग था | उन्होंने वनवासियों से रत्तीभर भी घृणा नहीं की और उनके हृदयों में स्थायी छाप छोड़ी |

यहाँ राम जी का कुशल नेतृत्व सामने आता है |राम जी गुह को गले लगाते हैं |केवट को भक्ति प्रकट करने का अवसर देते हैं |इस प्रकार जननायक के रूप में प्रकट होते हैं |राम जी भाई हैं तो सीताजी भाभी हैं ,श्रद्धेय हैं |

कठिन परीक्षा और बेशर्म सवाल    


पंचवटी से सीता जी का अपहरण हो जाता है |लंका का राजा रावण अपनी बहन के अपमान का बदला लेने के लिए सीता जी का अपहरण कर लेता है |

यह बड़ी अजीब बात है और लगता है, शाश्वत समस्या है कि पुरुष से नफरत की सजा स्त्री को दी जाए |उन्हें ऐसे लोगों के बीच रहना था जिनके जीवन मूल्य एकदम अलग थे |उनकी भाषा भी एकदम  एकदम भिन्न रही होगी |


यहाँ सीता जी के लिए नयी चुनौती सामने थी | यह एक दुखद स्थिति थी, जिसका मुकाबला सीताजी को स्वयं करना था चूंकि उन्हें बचाने वाला कोई न था |

रामकथा बताती है कि रावण उनसे विवाह करके, उन्हें पत्नी बनाकर अपने महल में रखना चाहता था जबकि पहले से ही उसकी अनेक पत्नियां थीं |

उस समय की परंपरा की दृष्टि से यह कोई विचित्र बात नहीं थी |राजा दशरथ जी के भी तीन पत्नियां थीं |जनक जी की पत्नी सुनयना जी का जिक्र तो है लेकिन अन्य कोई पत्नी होने का हमने न कोई जिक्र सुना या पढ़ा |सीता जी रावण के विवाह प्रस्ताव को आराम से स्वीकार कर सकती थीं |यह आसान मार्ग था लेकिन सीताजी की दृढ़ता ने पतिव्रत धर्म को नयी ऊंचाई दी |

बहरहाल राम जी और उनके भाइयों की एक ही पत्नी होने का जिक्र है |इसका अर्थ है कि राम जी एक नए युगधर्म का निर्माण कर रहे थे |

जो, युगधर्म को स्थापित करता है उसे अनेक चुनौतियों का मुकाबला करना ही होता है |मुझे लगता है कि पत्नी का अपहरण उनके लिए बहुत बड़ी त्रासदी और चुनौती थी चूंकि ऐसा कोई बल नहीं था जो प्रशासन की और से उनकी सहायता कर सके |वे मात्र एक वनवासी थे जिसके पास एक आज्ञाकारी भाई के सिवा अन्य कुछ नहीं था जबकि रावण की लंका भी सोने की थी |खूब बड़ा और एकजुट -एकमत परिवार था |वह अत्यंत साधनसंपन्न था |

रावण की कैद में सीता जी ने संयम, दृढ़ता और राम जी के प्रति अटूट निष्ठा को प्रमाणित किया |यह तब है जबकि माया अर्थात स्त्री की वृति चंचल मानी गयी है |आज तो कहा भी जाता है-

बन जाते हैं सब रिश्तेदार जब ज़र पास होता है,

टूट जाता है गरीबी में जो रिश्ता ख़ास होता है |

जब वनवास के तेरह वर्ष पूरे हो चुके थे तब सीताजी का अपहरण हुआ |यह तथ्य हमें रामानंद सागर की रामायण से ज्ञात हुआ अन्यथा  रामलीला में तो वनवास के अगले दिन ही सीता जी का अपहरण हो जाता है |इसका अर्थ है कि वनवास के तेरह वर्ष इतने कष्टदायक नहीं रहे होंगे जितना कि चौदहवां वर्ष कष्टदायक रहा |

भाषा की भिन्नता पर हावी -सभ्यता और प्रेम 


हर देश  में अनेकों भाषाएँ होती हैं उनकी बोलियां होती हैं |लंका की भाषा सीता जी की भाषा नहीं थी |इसके बावजूद सीता जी ने लंका में सहानुभूति और कुछ समर्थन भी हासिल किया |यह कैसे हुआ, इसकी गहराई में जाने पर हम पाते हैं कि उन्हें  मानवीय भावनाओं की भाषा आती रही होगी |

उन की यह विशेषता खासकर मुझे प्रभावित करती है कि अशोक वाटिका में एक पेड़ के नीचे ही उनका पूरा समय गुजरा |बरसात के दिनों में पेड़ के नीचे दिन-रात रहना सुखद तो नहीं हो सकता |कैद वैसे भी  कभी सुखदायी नहीं होती |

सीता जी ने वनवास का समय इतने संयम से बिताया कि त्रिजटा आदि जिन राक्षसी स्त्रियों को सीता जी को फुसलाने और बहलावे में न आने पर प्रताड़ित करने की जिम्मेदारी दी गयी थी ,उन स्त्रियों को भी सीताजी ने अपने पक्ष में कर लिया |इस प्रकार उन्होंने वह कठिन समय पार किया |

विभीषण जी से वे कभी नहीं मिली लेकिन उनकी सद्भावना हासिल करने में सफल रहीं |हनुमान जी से भी उनकी प्रथम भेंट लंका की अशोक वाटिका में हुई |यहाँ उनकी मानवीयता और व्यवहारकुशलता के प्रमाण हमें मिलते हैं |

भक्ति 

रावण अशोक वाटिका में अक्सर ही जाया करता था |वहां तैनात स्त्रियां भी पूरी निष्ठा से अपनी ड्यूटी निभा रही थीं लेकिन किसी भी प्रकार से रावण अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो पा रहा था |कभी -कभी तो वो क्रोध में विकराल हो जाता था |ऐसे ही एक समय उसने सीता जी पर तलवार तान दी |यह एक बेहद खतरनाक क्षण था लेकिन ऐसे समय भी सीता जी की दृढ़ता कायम रही |उनकी भक्ति ने उनका साथ दिया |

रावण की पत्नी मंदोदरी उसके साथ थी ,उसने रावण को रोका और वह चला गया |

रावण अत्यंत मायावी था |एक दिन तो उसने राम जी का कटा हुआ सिर ही प्रस्तुत कर दिया था |इस चाल के कामयाब होने की पूरी संभावना थी चूंकि एक पतिव्रता स्त्री यदि अपने पति का कटा हुआ सिर देखे तो उसका विवेक जाग्रत रह पाना अत्यंत कठिन है |लेकिन सीता जी ने पूर्ण परिपक्वता का प्रमाण देते हुए अपने मन को विचलित न होने दिया और कुछ ही समय बाद मायावी सिर माया में विलीन हो गया |

अग्निपरीक्षा     


वनवास की असली कठिनाई तो लंका विजय के बाद शुरू हुई |जिस रावण को इतना साहस नहीं हुआ कि सीता जी को उनकी सहमति के विरुद्ध स्पर्श कर सके उन्हीं सीता जी को राम जी के पास जाने से पहले अग्नि परीक्षा देनी पडी |यहाँ मेरा ह्रदय टुकड़े -टुकड़े हो जाता है चूंकि वहां किसी ने सीता जी पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया था |

समाज में एकतरफा रूप से कुछ लोग रावण को उज्जवल चरित्र का समझते हैं |इस निष्कर्ष के समर्थन में वे प्रायः यह तर्क देते हैं कि अपनी कैद में रावण सीता जी के साथ कुछ भी कर सकता था |तर्क अपनी जगह सही है लेकिन रावण ऐसा कर ही नहीं सकता था चूंकि उसने कुबेर के पुत्र नलकुबेर की प्रेमिका रम्भा के साथ बलात्कार किया था |

रम्भा एक अप्सरा थी और रावण के भतीजे की प्रेमिका होने के कारण उसकी पुत्रवधू के समान थी |रावण को उसने यह बताया भी लेकिन कामांध रावण ने उसका कोई तर्क न सुना |जब नलकुबेर ने पूरा घटनाक्रम सुना तो उसने रावण को श्राप दिया कि -किसी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध यदि तू अपनी मनमानी करेगा तो तेरे सिर के टुकड़े हो जाएंगे |अपने सिर के टुकड़े हो जाने के डर से ही वह सीताजी से एक सुरक्षित दूरी बनाकर रखता था |इसके बावजूद लंका विजय के बाद राम ने उनकी अग्नि परीक्षा ली |      

रामजी का रक्षात्मक रवैया 


यहाँ रामजी का स्वरुप बदल जाता है |रामायण के पूरे घटनाक्रम में रामजी एक आज्ञाकारी पुत्र नज़र आते हैं |वे अपने माता-पिता-गुरु आदि के प्रति पूर्णतः निष्ठावान हैं |सीता जी के प्रति भी वे पूर्णतः सहृदय हैं और सीताजी भी उनके प्रति पूर्णतः निष्ठावान हैं|दोनो को ही एक-दूसरे से कोई शिकायत नहीं है |सिर्फ एक ऐसा अवसर नज़र आता है जब वे आजकल की स्त्रियों की भांति त्रिया हठ के प्रभाव में दिखती हैं |यह अवसर है रावण के मामा मारीच के सोने के हिरन वाले रूप को सत्य मान लेने का |

राम जी ने उन्हें सत्य बताने की पूरी कोशिश की |लेकिन वे समझ न सकीं और दारुण दुःख उठाये |

इस अवसर के अलावा सीताजी के जीवन में अविवेक का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता |फिर भी राम जी ने पहले उनकी अग्नि परीक्षा ली ,तब उन्हें स्वीकार किया |

ऐसा लगता है कि राम जी यह महसूस कर रहे थे कि सुग्रीव ,विभीषण आदि सीधे-सीधे तो कुछ नहीं कहेंगे लेकिन भीतर ही भीतर सीताजी के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगा सकते हैं |यद्यपि विभीषण और सुग्रीव दोनों का ही जीवन सार्थक बनाने वाले श्रीराम जी ही थे लेकिन यह डर राम जी के मन में शायद रहा होगा |

यह भी हो सकता है कि राम जी ऐसे राज्य की स्थापना का प्रयोग कर रहे हों जहाँ किसी के भी मन में उनके और उनके परिवार के प्रति प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष आशंका का अस्तित्व न हो |यह एक उच्चतम अवस्था है जो रामजी को रक्षात्मक रवैया अपनाने को मजबूर कर रही हो और उन्हें सीताजी के प्रति कठोर होना पड़ा हो |

यह कैसा इन्साफ ?


वर्ष 1980के आस-पास इस नाम की एक फिल्म आयी थी |इसमें एक गाना था,जिसके बोल थे- 

अग्नि परीक्षा लेकर भी 

सीता को किया ना माफ़,

राम यह कैसा इन्साफ ?

आज चालीस वर्ष बीतने पर भी यह गीत मेरे मन-ओ-मस्तिष्क में ताजा है | 

हुआ यह कि पराई धरती पर तो किसी ने भी कुछ नहीं कहा लेकिन वह धरती, जहाँ की सीता महारानी थी, उस धरती पर रहने वाले इतने उदार न थे | वे बेहद कठोर निकले |

राम जी लोगों को नए मॉडल का अर्थात नैतिक और आदर्श प्रशासन देना चाहते थे ,उनका पूरा परिवार उनके पीछे पूर्ण समर्पित भाव से खड़ा था लेकिन जनता इतनी समर्पित नहीं थी |

साधरण धोबी ने सीताजी के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया |यहीं मुझे राम जी ज्यादा कठोर लगते हैं | 

मुझे लगता है कि अपनी पत्नी,जिनकी वे कठोर परीक्षा भी ले चुके थे और स्वयं अपने प्रति उन्हें इतना कठोर नहीं होना चाहिए था |उन लोगों की क्या परवाह करनी है जो ह्रदय की भाषा ही नहीं समझते |

बहरहाल इतिहास हमें ऐसे सबक सिखा चुका है इसके बावजूद स्त्री पर अत्याचार आज भी समाप्त नहीं हुए हैं इंसान इतिहास को पढता तो है लेकिन उसमें जो सबक मिलते हैं उन्हें व्यवहार में लागु करने की कोशिश कभी नहीं करता |किसी कवि के खूब कहा है-

ठोकर खाके भी न संभले,यह है इंसां का नसीब 

फ़र्ज़ निभा देते हैं ,राह के पत्थर अपना |