इंसान के कर्म ही उसकी वास्तविक पहचान बनते हैं -निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी

प्रस्तुति-रामकुमार सेवक     

निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी मनुर्भव के आदर्श को हमेशा महत्व देते थे |भारतीय समाज बेशक अनेक धर्मो और जातियों में विभाजित है लेकिन बाबा जी स्वर सदैव विश्व बंधुत्व को वरीयता देते थे |इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सब भाषाओँ और संस्कृतियों को अपनी भाषा तथा संस्कृति मानते थे |

14 सितम्बर 1999 को अमृतसर (पंजाब ) में आयोजित विशाल सन्त समागम लो सम्बोधित करते हुए उन्होंने दिव्य गुणों को जीवन में अपनाने का आह्वान किया |

अध्यात्म का विराट सन्देश देते हुए उन्होंने पंजाबी भाषा में संवाद किया |उन्होंने सर्व भाषा और सर्व संस्कृति के साथ अपनत्व प्रकट करते हुए मानवता का स्वर बुलंद किया |उनका मूल भाव यह था कि भाषाएँ सब मनुष्यों और  समाजों को जोड़ने की सूत्रधार हैं इसलिए उन्हें इसी रूप में देखा जाना चाहिए |बाबा जी अपने प्रवचन में कहा कि -  आप सब मानव जीवन को सुन्दर रूप देने का प्रयत्न कर रहे हो |इस प्रकार संसार को भी सुन्दर रूप देने की कोशिश हो रही है |

महापुरुषों की भावना 

महापुरुष -सन्त-भक्त  अपने हृदयों में सदैव ऐसे भाव रखते हैं कि सारे संसार का भला हो जाए |यहाँ गीतों,कविताओं,व्याख्यानों माध्यम से मालिक से ऐसी ही मांग मांगी गयी कि सारा संसार सुखी हो |ये मांगे किसी खास फिरके,प्रान्त और भाषा वाले लोगों के लिए नहीं बल्कि   सारे संसार के लिए भले की कामना की गयी |

इतिहास के प्रमाण 

हम इतिहास भी देखते हैं |महापुरुषों के वचन पढ़ते-सुनते हैं ,उसमें भी हमें यही देखने को मिलता है कि उन्होंने भी इंसानो के बीच कोई भेद-भाव नहीं किया |उन्होंने सारे संसार को अपना जाना और माना |उन्होंने सारे संसार के भले की कामना भी की और भला किया भी |आज भी आप ऐसी ही भावनाओं को उजागर कर रहे हो |उन्हीं भावनाओं  को ही हृदयों में स्थापित करने के यत्न कर रहे हो |

अगर हृदयों में ऐसी भावनाएं नहीं बसीं तो जो इंसान का,मानवता का  पतन हो रहा है वो होता ही चला जायेगा |इसे रोकने की बहुत आवश्यकता है |

जैसे यदि कहीं आग लगी हो तो हम उसे रोकने की कोशिश करते हैं |अन्यथा जंगल के जंगल तबाह हो जाते हैं,जब कितने ही दिन आग लगी रहती है |आग बुझाने के कितने -कितने यत्न किये जाते हैं |हैलिकॉप्टरों पर टंकी रखकर ऊपर से पानी का छिड़काव किया जाता है |

जहाँ तक पहुंचा जा सकता है वहां तक पहुंचकर आग बुझाने की कोशिश की जाती है |इसी प्रकार जो विपरीत भावनाएं इंसानो के हृदयों में घर कर चुकी हैं वे आग का रूप ले चुकी हैं |वो आग लगातार फैलती चली जा रही है |

आग के विभिन्न रूप 

आधार या कारण चाहे कोई भी हो |महापुरुषों ने कहा है-

वर्णा वरण न भावै ,खै - खै जलै बांस अँगियारा | 

किस तरह वर्ण वर्ण को भा नहीं रहा है |एक भाषा बोलने वाला इंसान दूसरे की भाषा बर्दाश्त नहीं कर रहा है |एक पहरावे वाले को दूसरे का पहनावा बर्दाश्त नहीं हो रहा है |इसी प्रकार संस्कृतियों को देख लें ,जातियों को देख लें |भाषाओँ,प्रांतों और मुल्कों को देख लें |एक दूसरे को पसंद न आने वाली बात कदम-कदम पर देखी जा रही है इसीलिए कहा गया - खै - खै जलै बांस अँगियारा |बाँसों की तरह रगड़कर आग लग रही है |हवा के साथ आग और फैलती है |महापुरुष चाहते हैं कि हमें इस आग को फैलने से रोकना है |

अग्निशमन के उपाय 

आग फैलने से तब रुकेगी जब हम पानी का सहारा लेंगे |यहाँ जिस पानी की बात कही जा रही है,उसका नाम है-आपसी प्यार |यह वह प्यार है,जो हम देते चले जाते हैं |हम दूसरों के साथ सद्व्यवहार करते चले जाते हैं |हम मनो से मेल मिटाकर हर इंसान के लिए भलाई की कामना करते चले जाते हैं |जो यह आग है,दिलों में उतरी हुई है,जो रूकती नहीं है,बल्कि अंगारे का रूप ले लेती है |अंगारे से भी ऊपर का रूप ले लेती है |ऐसी परिस्थितियों में तबाही ही तबाही हुआ करती है |

आज हम ऐसे हालात देख ही रहे हैं|यह कोई नयी बात इस मंच से नहीं कही जा रही है |   ये सारे नज़ारे आज हमें देखने को मिल रहे हैं |हम इन सब दौरों से गुजर चुके हैं |जहाँ आग ही आग,नफरत ही नफरत |वैर ही वैर ,ईर्ष्या ही ईर्ष्या |यही हमें देखने को मिला है |इसी कारण यह धरती तप रही है |इस धरती को शीतलता और ठंडक की ज़रुरत है |

जैसे यदि बरसात न हो तो सूखे पड़ जाते हैं |सूखा पड़ता है तो न फसल होती है और न पीने का पानी मिलता है |पशु भी पानी के बगैर दम तोड़ने लगते हैं |तपिश ही तपिश ,ताप ही ताप |

दुनिया में तपिश और ताप भी 

ताप जिसे हो हम कह देते हैं कि बुखार है |आदमी रोगी हो गया है |इस प्रकार इंसान की तरफ से दुनिया को देन मिल रही है |यह हम भली-भांति अपनी आँखों से देख रहे हैं |कानो से सुन भी रहे हैं |हाहाकार का शोर -ओ-गुल ही ही सुनाई दे रहा है |

इतिहास का सुनहरा दौर 

कभी यहाँ प्यार के नगमे गूंजे थे |सन्तों-भक्तों -गुरुओं ने यहाँ कभी प्यार के तराने छेड़े थे |आकाश में वो स्वर गूंजे और हमें सुनाई पड़े |और हमने उनका आनंद लिया |लेकिन जो परमार्थ से दूर थे और विपरीत भावनाएं रखते थे |लालसाओं और खुदगर्जियों से युक्त रहे |उन्होंने मधुर संगीत नहीं पैदा किया |उन्होंने केवल शोर ही पैदा किया है |वह शोर कानो को अच्छा नहीं लगता |बल्कि हमें बेचैनी ही देता है |

इसके विपरीत अगर मधुर संगीत सुनाई दे तो हमारे कानो को राहत देता है और मन को भी सुकून मिलता है |

हमारे हृदय की यह चाहना रहती है कि यह मधुर संगीत बजता ही रहे |दिल में सुकून बना रहे |इसी प्रकार आपसी प्रेम की महक होती है |हम चाहते हैं कि महक मिलती ही रहे |अगर गन्दगी है और उससे निकली हुई बदबू हो तो वह हमें पसंद नहीं आती |हम उससे परे हटने की कोशिश करते हैं |

संत -महात्मा-भक्तजन इसी प्रकार खुशबू के प्रतीक रहे हैं |वे सबको महक ही देते हैं |उन्होंने सदा से इंसानो को राहत ही दी है |आज भी इसी राहत की ज़रुरत है |यह सुगंध चारों तरफ फ़ैल जाये ,इसी की ज़रुरत है |

सुगंध का कारण 

यह जो सुगंध है,जो राहत प्रदान करती है यह दिव्य गुणों के कारण ही होती है |प्यार वाली सोच और ऐसी भावना के कारण ही होती है |संतों-महात्माओं-भक्तों की जो सोच रही है,उसे ही अपनाना होगा |वही भावना अपने हृदयों में बसानी होगी |यह नहीं कि उनका नाम ले लिया,उनकी जय-जयकार बोल दी उनकी जुबान से निकले वचनो को पढ़ लिया ,सुन लिया ,सुना लिया |सिर्फ इसी से हमारे जीवन में महक पैदा होने वाली नहीं है |कहते भी हैं-

बने बातों से गर बात तो बात ही क्या है |

अगर कहने-सुनने से जीवन महक जाए तो क्या मुश्किल है |फिर तो सबसे सरल काम यह ही है |यदि इससे ही बात बन जाये तो कौन है जो जिक्र नहीं कर सकता |



राष्ट्रीय तरक्की के परिपेक्ष्य में आकलन 

जिक्र से ही अगर बात बने तो दूरदेशों में अक्सर ही जाने का मौका मिलता है |वहाँ वे कितनी तरक्की कर चुके हैं |आगे से आगे बढ़ते जा रहे हैं |अगर उस दृष्टि से देखें और तुलना करें तो भारत और आस -पास के देशों में आज भी कितना पिछड़ापन है |उस तरक्की की अगर तुलना करते हैं तो ,हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि हिंदुस्तान ने भी काफी तरक्की की है |अनेकों क्षेत्रों (Fields )में तरक्की की है |लेकिन फिर भी जब आपस में तुलना करते हैं तो हम यही पाते हैं कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है |कहने का भाव यही है कि इस तरह उन देशों में रहने वाले हिन्दुस्तानियों के प्रति बेहतर भाव नहीं रखते |यहाँ गाहे -ब-गाहे अशांति और विवादों की ख़बरें आती रहती हैं |एक -दूसरे के वैरी बन जाते हैं |जाति और धर्म का नाम लेकर एक-दूसरे से टकरा जाते हैं |

इस पक्ष से जब देखते हैं तो हम कमजोर पड़ते चले जा रहे हैं |महापुरुष-सन्तजन हमेशा यही कहते हैं कि जो वैर के आधार हैं इन्हें हमें मिटाना है |हमें वास्तविक तरक्की करके दिखानी है |दुनियावी तरक्की तो करनी ही है ,जैसे औद्योगिक (Industrial )क्षेत्र में ले लें या तरक्की तो करनी ही है |साथ ही वे साधन जिनसे हर कोई सुख पाए |यह तरक्की तो जरूर करनी है साथ ही प्यार और शांति वाली तरक्की करनी है | 

वास्तविक तरक्की देश को आगे बढ़ाने वाली 

शांति और प्रेम वाली तरक्की अगर हमने कर ली तो यही देश को आगे बढ़ाएगी |जो तरक्की हमें करके दिखानी है वह है सहनशीलता वाली प्रेम वाली ,मानवता वाली |इसी से हिंदुस्तान का बोलबाला हो पायेगा |यही कमी हमें अखर रही है |इसीलिए सन्तों- भक्तों-महापुरुषों ने शुरू से ही यह आवाज़ दी है कि हे मानव ,तू इस परम पिता परमात्मा ,निरंकार के साथ अपना नाता जोड़कर अपनी भावनाओं को सुन्दर बना ले |महापुरुषों-गुरु-पीर-पैगम्बरों के वचनो को सुनकर ,अपने हृदयों में स्थान देकर जिस मार्ग पर वो चले उसी पर चलता जा | तभी तू सही मायनो में उस अवस्था को प्राप्त करेगा जो वास्तव में महत्वपूर्ण मुख्य तरक्की मानी जाएगी |लोग कहेंगे कि इसने बहुत सुन्दर रूप धारण कर लिया है |जीवन में इतना निखार आ गया है |यह आज सही मायनो में मानव कहलाने का हक़दार बन गया है |यह मानवता को बुलंदियों को ले जाता जा रहा है |यह निरंतर प्यार को फैलाता जा रहा है |यह तरक्की वाकई बहुत महत्व रखती है |इसके पीछे ही वास्तविक सुख छिपे हुए हैं |

अन्य मुल्कों की तरक्की के परिपेक्ष्य में आध्यात्मिक तरक्की 

अन्य मुल्कों की तरक्की और अपनी तरक्की की दिशा के परिपेक्ष्य में देखें तो ठीक है कि भौतिक तरक्की के
क्षेत्र में आगे बढ़ गये ,हम भी उस स्तर तक पहुँच गये लेकिन अगर हमारे मनो से ईर्ष्या -वैर आदि विपरीत भावनाएं नहीं गयीं तो एक जाति वाला स्वयं को ऊंचा और दूसरे को नीचा मानकर चलता रहेगा |राम की जय जयकार करने वाला अल्लाह के रूप में नाम लेने वाले को भायेगा नहीं |इसी प्रकार अल्लाह कहने वाला राम कहने वाले को भायेगा नहीं |पगड़ी पहनने वाला टोपी पहनने वाले को बर्दाश्त नहीं करेगा |एक भाषा बोलने वाला दूसरी भाषा बोलने वाले को बर्दाश्त नहीं करेगा |यदि अहंकार से युक्त रहेंगे तो तरक्की का कोई अर्थ नहीं |इस तरक्की से क्या हासिल हुआ यह अनुमान हम लगा सकते हैं |

सारे सुख और सब सुविधाएँ तो हो गयीं लेकिन मनो में अब भी अशांति है |यह अशांति सुख के साधनो से भी हमें सुख नहीं लेने देगी |जैसे यदि हम बर्फ से ढकी ऊंची चोटी पर चढ़ जाएँ और वहाँ भी हम लड़ते रहें तो सुकून और चैन कैसे मिल पायेगा ?

हम कहें कि बहुत ठंडा कमरा है , AC भी लगा हुआ है |यहाँ Central Air Conditioning तो गर्मी बिलकुल नहीं है लेकिन उसके कमरों में रहने वालों के मनो में आग जली हुई हो तो उन्हें ठण्ड का क्या लाभ मिल रहा है,जरा सोचें |कहने का भाव यही है कि सन्त-महात्मा-भक्तजन चाहते हैं कि हमारे अन्तर्मन में शांति हो |

तरक्की के साथ मनो में भी शीतलता हो 

तरक्की के साथ मनो में शीतलता तब होगी जब हमारे मनो में शीतलता के मूल परमात्मा का निवास होगा |इस निरंकार प्रभु परमात्मा को जो अपने मन में बसा लेता है तो मनो में सदभाव बनते हैं | वही मानवीय गुणों से युक्त होकर जीवन के सफर को तय करते हैं |वही इस धरती के लिए वरदान माने जाते हैं |इसलिए मनो को ही सही रूप देने की ज़रुरत है |

मानवता का सीधा सम्बन्ध मन से हैं |अगर मन में राम बस जाता है तो मानव बन जाते हैं अगर मनो में रावण बस जाता है तो मनो में विपरीत भावनाएं अहंकार और हिंसा आदि जन्म लेती हैं इसलिए मन से इसी रावण को शांति ,प्रेम,सहनशीलता आदि दिव्य गुणों को विकसित करके मिटाना है|रावण कौन सा ?रावण क्रोध रूपी ,वैर रूपी ,द्वेष रूपी है |इसके रहते मन में प्यार और मानवता स्थापित नहीं हो सकती |

अगर हम सही मानव बनना चाहते हैं ?

अगर हम सही मानव बनना चाहते हैं तो हमें राम को अपना आधार बनाना होगा | इस परम पिता परमात्मा निरंकार को अपने हृदय में स्थान देना ही होगा |अगर इसे हृदय में नहीं बसाया तो हम दानव ही रहेंगे |हम फिर शैतान का रूप ले सकते हैं इसलिए हमें दिव्य गुण रूपी राम को अपने हृदय में स्थान देना ही होगा |

मानव सर्वोत्तम 

सार्थक भावों से युक्त जब हम हो जाते हैं तो मानव को सब जीवों में सिरमौर माना गया है |इसके विपरीत हम उन योनियों से भी बदतर होते जा रहे हैं क्यूंकि हमारा मन मैला हुआ पड़ा है |मन में अंधकार फैला हुआ है |मन भ्रमो और भ्रांतियों से युक्त हुआ पड़ा है |हमारा मन इतना अहंकारी हुआ पड़ा है कि हम अपने से ऊपर किसी को नहीं देखना चाहते |हम स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और सबसे बुद्धिमान समझते हैं |हम अपनी दौलतों और जातियों का अभिमान करते हैं |

ऐसा लगता है कि मन अहंकार से भरा पड़ा है |इस अवस्था में हम इस बात पर विचार करें कि फिर रावण से हम कैसे अलग हुए ?

रावण और कंस को भी तो अहंकार ही था |वह भी तो कठोर हृदय वाला था कि मासूम बच्चे पैदा होते और वह दीवारों से पटककर उनका अन्त करवा देता |वो भगवान को भी ललकारता रहता था |

अहंकार और कठोरता जिनके हृदयों में रहती है वे शैतान नहीं तो और क्या हैं ?

शैतानो के सिर पर सींग नहीं होते |उनके कर्म ही उन्हें देवता या शैतान सिद्ध करते हैं |

उनके कोई पूँछ नहीं लग जाती |उनकी आकृति नहीं बदल जाती |उसके मन की मेल बताती है कि वह मानवता के विपरीत चल रहा है |उसकी सोच ,उसके भाव और उसकी चाल ही उसे शैतान का नाम दिलवाती है |इसीलिए कहते भी हैं-करतूत पशु की मानुष जात | 

कहने का भाव कि वैसे तो यह मानव के रूप में आया है लेकिन काम मनुष्यों वाले नहीं हैं |मनुष्यों के बारे में तो यह कहा गया-

अवर जोनि तेरी पनिहारी ,इस धरती पर तेरी सिकदारी |

सारी योनियां तेरी सेवा के लिए बनी हैं क्यूंकि तू सर्वश्रेष्ठ योनि में जन्मा है |