रामकुमार सेवक
गलती करनी आसान है लेकिन उसका परिमार्जन करना अति कठिन है क्यूंकि वह अनायास हो जाती है |
सरकारी दफ्तर में जो लोग काम करते हैं वे भली भाँति जानते हैं कि कुछ लोगों की, काम को हलके में न लेने की आदत होती है |
ऐसे लोग दफ्तर के समय के बाद भी उस कार्य को ही अपने दिल -ओ-दिमाग में पालते रहते हैं मज़े की बात यह है कि ऐसे लोगों से ही ज्यादा गलतियां होती हैं |
आदरणीय निर्मल जोशी जी बहुत व्यवहारिक इंसान थे |इस स्थिति में वे कहते थे कि गलतियाँ होना तो अवश्यम्भावी है क्यूंकि जो काम करेगा उसी से गलतियाँ भी होंगी |रसोई में जो काम करती है उससे प्लेट आदि का ज्यादा टूटना तो स्वाभाविक ही है क्यूंकि जो निकम्मा या कामचोर है उससे तो गलती होने से रही
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दफ्तरों में यह एक बड़ा वर्ग है लेकिन समस्या तो कर्मठ के साथ होती है |कर्मठ इंसान प्रायः संवेदनशील भी होता है |अक्सर तो उच्चाधिकारी कर्मठ इंसान की कदर करते हैं लेकिन कई गैर इरादतन की गयी गलतियाँ यदि किसी अधिकारी द्वारा पकड़ ली जाए तो स्थिति शर्मसार करने वाली होती है |उस समय उस कार्यकर्ता का मनोबल बनाये रखने की बहुत ज़रुरत होती है |व्यवहारकुशल अधिकारी इस आवश्यकता को बारीकी से पहचानते हैं और अपने अधीनस्थ को कमजोर नहीं पड़ने देते |
एक स्थिति यह भी होती है कि कुछ लोग आदतन गलतियाँ करते हैं |सबसे शर्मनाक बात तो यह है कि वे अपनी गलती को कदापि स्वीकार नहीं करते | दिक्कत तो तब आती है जब वे उसका दोष किसी और के सिर पर मढ़ देते हैं |यद्यपि यह आँखों में धूल झोंकने वाली क्रिया हमेशा ही सफल नहीं होती |झूठ तो कभी न कभी पकड़ा ही जाता है |
ऐसी परिस्थिति के लिए ही यह कहावत बनी है कि-करेला और नीमचढ़ा |इसे चोरी और सीनाजोरी भी कह सकते हैं |
मेरे मित्र विवेक शौक़ जी ने निरंकारी कॉलोनी दिल्ली में विचार प्रकट करते हुए एक बार यह अति महत्वपूर्ण प्रसंग बताया था |एक पिता और उसका पुत्र एक साथ रहते थे |पुत्र अपने पिता के लिए बड़ी समस्या था क्यूंकि गलतियां बहुत करता था और जान -बूझकर करता था | पिता इसके कारण बहुत दुखी रहता था |किसी ने बेटे को समझाया कि किये गए अच्छे -बुरे कर्मो के परिणामों को अवश्य भुगतना पड़ता है |यह सुनकर उसमें भय हुआ और अंततः सुधार के लक्षण शुरू हुए |पिता यह देखकर बहुत प्रसन्न था |
बेटे ने अपने पिता से पूछा कि अब तक जो गलतियाँ कर चुका हूँ उन का परिमार्जन कैसे सम्भव है ?
पिता का समझाने का अपना तरीका था ,उसने एक मनोवैज्ञानिक ढंग से शुरूआत की |अब बेटा जब भी कोई गलती करता पिता घर की एक अपेक्षाकृत गंदी दीवार पर एक कील ठोक देता |
बेटे ने पिता से कील गाड़ने का रहस्य पूछा |
बेटे को यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि कीलों के रूप में उसकी गलतियों के स्मारक उभरे हुए हैं |
बेटा मूलतः समझदार था |गलतियां होने का एकमात्र कारण कुसंगति थी |बेटे को यह समझ आया तो उसने संगति बदल ली |
अब सुधार होना शुरू हो गया | अब जैसे -जैसे वह अच्छे कर्म करता ,पिता गाड़ी हुई कील निकाल देता |धीरे -धीरे कीलें बाहर आ गयीं |बेटे ने देखा कि कीलें तो निकल गयी लेकिन उनके निशान छोटे -छोटे गड्ढों के रूप में दीवार की गंदगी में वृद्धि कर रहे हैं |सारी कीलें बाहर आने के बावजूद दीवार पहले जैसी खूबसूरत नहीं रह गयी है |इसलिए बेहतर है जीवन की खूबसूरती को बरक़रार रखा जाये ,गलती करने से यथासंभव बचा जाए |