सत्संग के मंच से फलां व्यक्ति विचार करने वाला है,वह अंदर से में बहुत गंदे विचारों और कर्मो वाला आदमी है |वह सोचता है कि कोई उसके बारे में जानता नहीं है इसीलिए सफेदपोश बनकर सत्संग की अध्यक्षता करेगा इसलिए आज मुझे सत्संग में नहीं जाना है |मैं ऐसे गंदे आदमी के पैरों में अपना माथा रखना नहीं चाहता |आपको मैं रोकना नहीं चाहता ,मेरे रोज के साथी ने कहा |
वह अपनी जगह बिलकुल ठीक था लेकिन मैं तो बहुत से ऐसे लोगों को जानता हूँ जो इस आदमी से भी ज्यादा गंदे हैं और सफेदपोश बनकर विचार कर चुके हैं |तब तो तुम्हें कोई दिक्कत नहीं हुई ,फिर आज दिक्कत क्यों है ?मैंने उससे पूछा |
जिन सफेदपोश लोगों की चर्चा तुम कर रहे हो,मैं उनके बारे में उन दिनों जानता नहीं था इसलिए सत्संग में भी गया और नमस्कार भी की |लेकिन अब मैं उस आदमी के कुकर्मों से परिचित हूँ इसलिए यह मस्तक ऐसे आदमी के सामने नहीं झुकेगा |उन्होंने दृढ़ता से कहा |
लगता है आपने कबीरदास जी का दोहा नहीं पढ़ा-बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय ,जो दिल खोजा आपना ,मुझसे बुरा न कोय |
कबीरदास जी बुरे थे ही नहीं |उन्होंने हेराफेरी करके पैसा इकठ्ठा नहीं किया था और मैंने भी हेरा -फेरी करके पैसा इकठ्ठा नहीं किया है,इसलिए कम से कम इस आदमी को मैं सर नहीं झुकाऊँगा |वो बोले |
महात्मा जी,वह सतगुरु का आसन है |उस आसन पर जो भी बैठता है,हम उसे सतगुरु का प्रतिनिधि मानते हैं |मैंने विनम्रता से कहा |
वहां बैठे सतगुरु के प्रतिनिधि के सामने झुकना सतगुरु के सामने झुकना है इसलिए इस वजह से पुराना नियम तोडना ठीक नहीं है |मैंने आगे कहा |
क्या आप मानते हैं कि सतगुरु का यह प्रतिनिधि स्वयं सतगुरु ने चुना है ?वे बोले |
जी नहीं,उसे तो संयोजक महात्मा ने चुना है |
फिर तो वह सतगुरु का प्रतिनिधि नहीं हुआ ?फिर उसे सतगुरु का प्रतिनिधि नहीं मान सकते |आप जाईये ,मैं आपको तो नहीं रोक रहा-साथी महात्मा ने दृढ़ता से कहा |
लगता है आपने वह प्रसंग नहीं सुना जिसमें सम्राट अशोक के मंत्री ने उनसे कहा कि आप मामूली भिक्षुओं के सामने अपना सर झुका देते है जबकि आप इतने बड़े राज्य के सम्राट हैं |मामूली भिक्षुओं के सामने आपका सर झुकाना शोभा नहीं देता |आपका शीश तो इतने बड़े राज्य का शीश है,इसका इस प्रकार झुकना शोभित नहीं है |
सम्राट अशोक महात्मा बुद्ध के विचारों के सच्चे अनुगामी थे ,उन्होंने अपने मंत्री को शब्दों से नहीं व्यवहार से समझाने की कोशिश की |उन दिनों भी नगर में साप्ताहिक बाजार लगा करते थे जिनमें लोग सड़क पर रखकर सामान बेचते थे |
सम्राट ने मंत्री से कहा -एक फांसी पा चुके व्यक्ति का सर उस साप्ताहिक बाजार में ले जाओ और उसे बेचकर आओ ,तब पता चलेगा कि सर की कीमत क्या है ?
मंत्री को यह काम अच्छा तो नहीं लगा लेकिन राजाज्ञा का उल्लंघन करने का साहस नहीं था |मरे हुए आदमी का सर लेकर उस बाजार में गए|सुबह से रात तक सर लेकर खड़ा रहा लेकिन कोई उस सर को मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं हुआ और मंत्री महोदय मजबूरन ऐसे ही वापस आ गए |
सम्राट ने मंत्री से पूछा -सबका माल बिक जाता है,आपका क्यों नहीं बिका ?
महाराज ,कोई इंसान का सर खरीदने को तैयार ही नहीं हुआ |मंत्री जी बोले |
बकरे-भेड़- सूअर -भैंस तक के सर बिक जाते हैं ,आदमी क्या इनसे भी गया गुजरा है ?सम्राट ने कहा |
जी नहीं,लेकिन आदमी का सर तो किसी ने मुफ्त में भी नहीं लिया |
ज़रा सोचिये ,यदि सर मेरा या आपका होता तब क्या बिक जाता ?
नहीं महाराज ,मंत्री ने विनम्रता से कहा |
फिर आप ऐसे सर के झुकने से क्यों चिंतित हैं जिसे कोई मुफ्त में भी लेने को तैयार नहीं ?सम्राट बोले |
यह प्रसंग सुनाकर मैंने साथी महात्मा से कहा - इस सर को ,जब तक इसमें आत्मा है तो लोग इसे नमस्कार करते हैं लेकिन यदि आत्मा न हो तो इसे मुफ्त में भी कोई नहीं पूछता |
प्रसंग सुनकर मित्र बोले-आप तो अपराधी को बाइज्जत बरी कर रहे हैं ,क्या यह ठीक है ?
हम न्यायाधीश नहीं हैं |निरंकार ही सच्चा न्यायाधीश है जो सबका न्याय करता है |जिस सज्जन ने आज विचार करनी है,उसका न्याय भी निरंकार ही करेगा ,आप निरंकार का दायित्व अपने सर पर क्यों ले रहे हैं ?
सुनिए-कबीरदास जी ने कहा है-
कबीरा तेरी झोपड़ी गल कटियन के पास
करेगा सो भरेगा ,तू क्यों भय उदास |मैंने फाइनली कहा |
मित्र मौन थे लेकिन उनकी मुखमुद्रा बता रही थी कि वे अब भी संतुष्ट नहीं हैं |
माफ़ करना भाई साहब ,आपकी बातें बुद्धि को प्रभावित करती हैं इसलिए मैं आपके साथ रहना पसंद करता हूँ लेकिन आपकी बातें व्यवहारिक नहीं हैं |आज की दुनिया में लोग मौन तो रहते हैं लेकिन मूर्ख नहीं हैं ,उन्होंने निर्णायक स्वर में कहा |
अब मौन रहने की बारी मेरी थी |उनकी शंका दूर करने के चक्कर में मैं उस दिन स्वयं भी सत्संग में नहीं जा पाया |
मुझे लगता है कि बोलने वाले के व्यवहार और जीवन में उलझने की बजाय उसके शब्दों में से सार को ग्रहण करना चाहिए |
हम समय निकालकर सत्संग में जा रहे हैं तो सत्संग से जब लौटें तो हमारे भीतर भक्ति होनी चाहिए ,निरंकार के एहसास की ऊर्जा होनी चाहिए |अगर सत्संग में जाकर भी गिले-शिकवे में ही पड़े रहे तो बची-खुची भक्ति भी ख़त्म हो जायेगी |