विचार मंथन - चोरी करो मगर ध्यान से , इसका क्या अर्थ है,

 ओशो ने बताया 

 

 एक बहुत अदभुत फकीर हुआ नागार्जुन। 

वह एक गांव से गुजर रहा है और उस गांव की रानी उसका बड़ा आदर करती है। उसने उसको भोजन खिलाया है। नंगा फकीर है और उसको एक हाथ में सोने का पात्र दे दिया है और कहा, लकड़ी का पात्र यहां छोड़ दो। सोने का पात्र है और उस पर हीरे जड़े हैं। उसकी लाखों की कीमत होगी।

नागार्जुन ने ले लिया और चल पड़ा। 

रानी थोड़ी चकित हुई क्योंकि उसने भी सोचा था त्यागी है, कहेगा कि मैं छू नहीं सकता सोने को। हम त्यागी को ऐसे ही पहचानते हैं। हम त्यागी को भी सोने से ही पहचानते हैं जब तक वह यह न कहे, हम छू नहीं सकते सोने को। तब तक हम त्यागी को नहीं पहचानते हैं। 

जब कोई त्यागी कहता है, यह सब मिट्टी है, हम नहीं छूते। लेकिन मिट्टी को तो वह रोज छूता है और सोने को इनकार करता है। अगर मिट्टी ही है तो बेफिक्री से छुओ। 

नहीं, लेकिन वह कहता है सोना मिट्टी है, हम न छुयेंगे और मिट्टी को मजे से छू लेता है। तब जरा शक होता है कि सोना मिट्टी नहीं है। वह कह रहा है कि सोना मिट्टी है लेकिन उसको सोना सोना दिखाई पड़ रहा है।

उस रानी ने उसको, फकीर को कहा- अरे आपने मना नहीं किया? 

कहना था कि यह सोने का पात्र! 

उसने कहा, कैसा सोने का पात्र? कहां का सोने का पात्र? 

उस रानी ने कहा -मैंने लाखों रुपये खर्च किये हैं। 

उसने कहा, वह तेरी नासमझी होगी। तू जान, तेरा काम जाने। मुझे क्या मतलब? मुझे इसमें रोटी मांगनी है, पात्र किसी का भी हो। रोटी इसमें खानी है। उससे मुझे मतलब है, इससे ज्यादा मुझे मतलब नहीं है। मुझे पात्र होने से मतलब है। वह लकड़ी का था सोने का था, काहे का था, वह तुम्हारा हिसाब होगा। हमारा काम इतना है, इसमें रोटी और दाल रखकर हम खा लें। हमारा इतना काम तो यह दे देगा न पात्र। 

उस स्त्री ने कहा, उतना तो दे ही देगा। लेकिन मैं सोचती थी, सोने का है, आप शायद इनकार करेंगे। उसने कहा, मैं फकीर आदमी मुझे सोने से क्या मतलब? आप समझ रहे हैं। उसने कहा, मैं फकीर आदमी मुझे सोने से क्या मतलब? होगा सोने का। वह उनके लिए होगा, जिनको सोने का मतलब होगा। रानी चकित हुई। फकीर तो चला गया।

नंगा फकीर है, सोने का पात्र है, हीरे जड़े हैं, वे चमकते हैं धूप में। 

गांव के एक चोर को दिखाई पड़ा। उस चोर ने कहा, हैरानी! मरे जाते हैं, परेशान हुए जाते हैं। न हीरे मिलते हैं, न सोना मिलता है। यह आदमी नंगा आदमी है, इसको कहां से इतना बढ़िया पात्र मिल गया?

मगर जिंदगी ऐसी है यहां जो दौड़ता है जिन चीजों के पीछे उन्हीं को खो देता है। यहां जिंदगी का नियम यह है कि भागो किसी के पीछे, और वह भाग खड़ा होगा। और तुम उसकी तरफ पीठ करके भागो और वह थोड़ी देर में तुम्हारे पीछे पता लगाता हुआ आता होगा कि यह मामला क्या है, आप जा कहां रहे हैं?

उस चोर ने कहा, लेकिन यह फकीर कितनी देर तक बचा सकेगा इस पात्र को। चोर उसके पीछे हो लिया। 

फकीर गांव के बाहर मरघट में ठहरा है एक टूटे खंडहर में, भरी-दोपहरी में पीछे पदचाप सुनायी पड़ते हैं तो उसने सोचा कि मेरे पीछे तो कोई कभी नहीं आता है। मालूम होता है, इस पात्र के पीछे कोई आ रहा है। यहां दुनिया बड़ी अजीब है। यहां आदमियों के पीछे कोई नहीं जाता, हाथ में सोने के पात्र हों तो बहुत लोग चले जाते हैं। 

यहां आदमी की तो कोई इज्जत नहीं है, हाथ में पात्र क्या है, यह सवाल है। आत्मा की तो कोई कीमत नहीं है यहां। कपड़े कैसे हैं, खीसे गरम हैं या नहीं गरम हैं, वह मूल्यवान है।

वह गया फकीर अंदर।

उसने सोचा, नाहक यह बेचारा भरी-दोपहरी में इतनी दूर तक आया। रास्ते में कह देता तो वहीं इसको दे देते। और अब न मालूम कितनी देर तक इसको छिपकर बैठना पड़ेगा। 

मेरे तो सोने का समय हो गया है। तो उसने खिड़की से वह पात्र बाहर फेंक दिया और सो गया। 

वह चोर वहीं खिड़की के नीचे छिपा था, पात्र को गिरते देखा तो बड़ा हैरान हो गया। उसने कहा, अजीब आदमी है। इतना कीमती पात्र ऐसे फेंक दिया है। खड़े होकर उसने कहा, कि धन्यवाद! मैं तो चोरी करने आया था और आपने पात्र फेंक ही दिया।

उस फकीर ने कहा, मैंने सोचा, नाहक तुम्हें चोरी करवाने के लिए मैं क्यों जिम्मेवार बनूं? असल में चोरों के लिए वे सब लोग जिम्मेवार हैं जिनकी तिजोरियों पर ताले हैं। 

उसने कहा, मैं क्यों फिजूल झंझट में पडूं? तो मैंने कहा, फेंक दूं। मैं भी झंझट से बचूं, आराम से सो जाऊं। तुम भी अपना ले जाओ, तुम भी चोर न बन पाओ।

उस चोर ने कहा, अजीब आदमी हैं, क्या मैं थोड़ी देर भीतर आ सकता हूं? 

उस फकीर ने कहा, इसीलिए मैंने पात्र बाहर फेंका। भीतर तो तुम आते, लेकिन तब, जब मैं सो गया होता। 

इसीलिए मैंने पात्र फेंका कि जगते में भीतर आ जाओ तो शायद सोने का पात्र ही नहीं, कुछ और भी तुम्हें दे सकूं।

वह चोर भीतर आ गया। वह पैर पकड़कर उस फकीर के बैठ गया। उसने कहा, मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा।मेरे  मन में ईर्ष्या होती है। कभी-कभी ऐसा होता है, कब वह दिन होगा कि मैं भी ऐसे सोने के पात्र खिड़की के बाहर फेंक दूं।

उस फकीर ने कहा- बस, हो गया काम। यही मैं चाहता था। अब तू जा, बात हो गयी। 

नहीं, उसने कहा, इतनी जल्दी न जाऊंगा। इतनी शांति कहां पायी कि सोने का पात्र इस तरह फेंक सकते हो। 

इतना आनंद कहां पाया कि सोने के पात्र का कोई मूल्य नहीं मालूम पड़ता है। इतनी खुशी, इतनी जिंदगी कहां मिल गयी? कुछ मुझे भी रास्ता बताओगे तुम? लेकिन एक बात पहले कह दूं, उस चोर ने कहा कि मैं और भी संतों के पास गया हूं। चोर अक्सर संतों के पास जाते हैं। असल में चोरों के सिवाय शायद ही कोई जाता हो। वे जाते हैं। संतों के पास अक्सर गया हूं, वह मुझसे पहले तो यही कहते हैं कि चोरी छोड़ दो फिर कुछ हो सकता है। वह छूटती नहीं अपने से। वह छूट सकती नहीं। तो एक पहले बात बता दूं कि चोरी छोड़ने की बात मत करना।

वह फकीर हंसने लगा और उसने कहा, फिर मालूम होता है तुम संतों के पास गये ही नहीं। तुम भूतपूर्व चोरों के पास गये होगे। क्योंकि जो पहले से एकदम चोरी छोड़ने की बात करते हैं, जरूर कुछ गड़बड़ है, चोरी से कुछ लगाव है उनका। पहली बात यही करते हैं? उसने कहा, यही करते हैं। सब जानते हैं कि मैं चोर हूं तो वह पहले यह कहते हैं कि चोरी छोड़ो, फिर कुछ हो सकता है। बात वहीं अटक जाती है। वह शर्त ही पूरी नहीं होती। 

उस फकीर ने कहा, हम ये बातें न करेंगे। हमें चोरी से कुछ लेना-देना नहीं है। उस फकीर की बात सुनकर चोर ने कहा, फिर अपना तुपना मेल हो सकता है। कहिए, मैं करूंगा। उस फकीर ने कहा, एक काम कर। चोरी ध्यानपूर्वक करना।

तो उसने कहा, क्या मतलब? चोरी करूं? 

उस फकीर ने कहा, बिलकुल बेफिक्री से कर, लेकिन ध्यानपूर्वक। 

उसने फकीर से पूछा, यह ध्यानपूर्वक चोरी का क्या मतलब हुआ? 

उस फकीर ने कहा, जब तू चोरी कर तो पूरा जागा हुआ शांत मन से, पूरे होश से भरे हुए चोरी करना। बेहोशी में मत करना। पूरा जाग्रत होकर कि चोरी कर रहा हूं, जानते हुए हाथ उठाना, ताले तोड़ना, धन निकालना जानते हुए कि चोरी कर रहा हूं, बस इतना, और कुछ नहीं। उस चोर ने कहा, यह हो सकेगा। नतीजे की खबर कब दूं। उस फकीर ने कहा, पंद्रह दिन तक मैं यहां टिका हूं, तू आ जा, जब तुझे लगे कि कुछ और पूछना है।

वह चोर दूसरे दिन आया और रोने लगा और उसने कहा, मुश्किल में डाल दिया, आदमी बड़े अजीब मालूम पड़ते हैं। क्योंकि मैं कल चोरी करने गया। ऐसा मौका जिंदगी में कभी भी नहीं मिला था। राजा के महल में पहुंच गया। तिजोरी खुल गयी। अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा था उस तिजोरी के सामने। हाथ डालता हूं होशपूर्वक, तो हाथ भीतर नहीं जाता है।

 क्योंकि जैसे ही मुझे खयाल आता है कि चोरी कर रहा हूं, हाथ रुक जाता है। क्योंकि चोर मैं भी नहीं होना चाहता हूं। चोर! अगर कोई कह दे तो मैं उसकी गर्दन काट डालूं। चोर मैं भी नहीं होना चाहता हूं। होश छूटता है तो हाथ भीतर चला जाता है। लेकिन जैसे ही होश आता है, मुट्ठी खुल जाती है, हाथ बाहर लौट आने लगता है। आधी रात बीत गयी और आखिर बिना चोरी किये वापस लौट आया। 

यह तो तुमने मुश्किल में डाल दिया। सीधा कहो न कि चोरी मत करो। उस फकीर ने कहा, चोरी से हमें कुछ लेना-देना नहीं। बस ध्यानपूर्वक करो। क्योंकि इतना मैं जानता हूं कि ध्यानपूर्वक आज तक कोई चोरी नहीं कर सका है, न कर सकता है।

ध्यानपूर्वक क्रोध कर सकते हैं? कैसे करियेगा, ध्यानपूर्वक क्रोध? ध्यानपूर्वक क्रोध नहीं हो सकता। ध्यानपूर्वक बुराई नहीं हो सकती। ध्यानपूर्वक पाप नहीं किया जा सकता और जो ध्यानपूर्वक किया जा सकता है वह पुण्य है, वह पाप नहीं हो सकता।

इसलिए मैं इतना जो जोर देता हूं कि बुराई की इतनी चिंता न लें जितनी चिंता इस बात की लें कि आपका जीवन ध्यानपूर्वक हो जाये, एक मेडिटेटिव हो जाये, ध्यानपूर्वक जीने लगें। तब आप पायेंगे कि जिंदगी सब तरफ से बदलनी शुरू हो गयी क्योंकि ध्यानपूर्वक बुरा तो किया ही नहीं जा सकता। फिर वही शेष रह जाता है जो किया जा सकता है।(साभार )