राजनीति और अभिनय के सम्मिश्रण थे - अभिनेता उत्पल दत्त


आपने 1979  में बनी  फिल्म गोलमाल देखी होगी | फिल्म के नायक-नायिका तो अमोल पालेकर और बिंदिया गोस्वामी थे लेकिन जिस अन्य अभिनेता ने अपनी तरफ ध्यान आकर्षित किया,वो थे-उत्पल दत्त |एक ऐसे सनकी आदमी जिनकी धारणा थी कि वे लोग सही नहीं होते,जो मूंछ कटवाते हैं |

फिल्म की कहानी में यह नयी समस्या उठाना कहानीकार की खूबी है लेकिन सनकी उद्योगपति के रूप  में इस भूमिका को जीवंत करना आज तक उत्पल दत्त को ज़हन में ज़िंदा रखे हुए है |

हमारे देश में सिनेमा के कलाकारों पर एक तोहमत मढ़ी जाती है कि वो सिर्फ अपने ही काम से काम रखते हैं. देश के मुद्दों पर नहीं बोलते. पर ऐसा है नहीं. कुछ थे, जिनको देश के मुद्दों से उतना ही प्यार था, जितना कि किसी क्रांतिकारी को होता है.| उत्पल दत्त ने देश के प्रति अपनी भावना को तीव्रता से प्रकट किया |राजनीतिक रूप में वे मार्क्सवाद के करीब थे |उन्होंने अपनी कला में देश की राजनीति को घोल दिया था.|

उत्पल दत्त. पुरानी वाली गोलमाल के भवानी शंकर. जिन्हें बिना मूंछ के नौजवान गैरजिम्मेदार और मूर्ख लगते थे. बंगाली फिल्मों के महान एक्टर. मार्क्सवादी क्रांतिकारी. जो आज़ाद भारत में दो बार जेल में बंद रहे.|आइये अभिनेता उत्पल दत्त के जीवन को करीब से देखें -

उत्पल दत्त का जन्म बांग्लादेश के बारिसल जिले में हुआ था। उन्होंने अपनी शुरुआती पढ़ाई शिलांग से की। जहां से आगे की पढ़ाई के लिए उनके पिता गिरिजारंजन दत्त ने कोलकाता भेज दिया। उत्पल दत्त ने अंग्रेजी साहित्य से ग्रेजुएशन किया। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही उनका रुझान थियेटर की तरफ होने लगा। 

1940 में उत्पल दत्त अंग्रेजी थिएटर से जुड़े और अभिनय की शुरुआत की हालांकि उन्होंने अंग्रेजी के साथ ही बंगाली नाटकों में भी काम करना शुरू किया। 

नाटकों के निर्देशन और लेखन का काम भी उन्होंने किया। उनके कई नाटकों में बंगाल की राजनीति दिखी ,जिसकी वजह से विवाद भी हुए।

लगभग 40 सालों तक उत्पल दत्त राजनीति, इतिहास और हर दौर के साथ बदलते समाज को अपने नाटकों में पिरो-पिरोकर हिंदुस्तान को झकझोरते रहे | जब इससे पेट नहीं भरा, तो नक्सलवादी  आन्दोलन में भिड़ गए.| एक तरफ दिमाग में बौखलाहट पैदा करने वाले नाटक होते रहे और फ़िल्में आती रहीं. दूसरी तरफ नक्सलाइट आन्दोलन की राजनीति.|

 एक वक़्त था कि बंगाल में कोई भी मार्क्सवादी आंदोलन उत्पल दत्त के नाटकों के बिना अधूरा था. |वाम  विचारधारा वाले थिएटर एसोसिएशन ( IPTA )के फाउंडर मेम्बर थे- उत्पल दत्त.| 

 उनकी मूल पहचान  एक भारतीय अभिनेता , निर्देशक और लेखक-नाटककार के रूप में थी । उन्हें भुवन शोम फिल्म के  लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता  के तौर पर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला |

उत्पल दत्त को अधिकतर एक हास्य अभिनेता के रूप में याद किया जाता है। वर्ष 1979 की सुपरहिट फ़िल्म 'गोलमाल' में उनके द्वारा निभाए गये 'भवानी शंकर' के शानदार हास्य अभिनय के लिए आज भी याद किया जाता है |.उनके राजनीतिक विचारों की झलक उनकी फिल्मों में भी दिखाई देती है।

लेकिन जीवन की ज़रूरतें अपनी जगह हैं |पैसों की जरूरत पूरी करने के लिए सीधा बम्बई जाकर विलेन के रूप में भी स्थापित होने लगे | शानदार पर्सनालिटी और जानदार आवाज.ने इस अभिनय में उनकी मदद की | तिरछा खेला. गोलमाल में कॉमेडी. उसके लिए फिल्मफेयर जीत लिये | 

महान फ़िल्मकार सत्यजित रे और मृणाल सेन ने उनको अपनी फिल्मों में रखा |. इन दोनों लोगों के चुने अभिनेता की काबिलियत के बारे में भला कोई प्रश्न नहीं उठ सकता | 

आज़ादी के पहले से ही उत्पल दत्त थिएटर से जुड़े रहे.| शशि कपूर के ससुर जैफ्री केंडल के साथ थिएटर करते रहे | बाद में जब उन्हें लगा कि ये लोग भारत के शोषित समाज को प्रकट नहीं कर पा रहे हैं. तो छोड़ दिया |अपनी थिएटर कंपनी खोली . तय किया कि पॉलिटिक्स और सरकार को लपेटेंगे | देश अभी राजनीतिक रूप में आजाद हुआ है. सामाजिक और मानसिक रूप में आज़ाद करना पड़ेगा |

1966 में सात महीने बाद जेल से छूटे | विपरीत विचारधारा के लोगों को लगा कि अब सुधर जायेंगे. लेकिन जी अपनी प्रतिबद्धता छोड़ दे, वो उत्पल दत्त कैसे हो सकता है? बंगाल में उस वक़्त जो लहर चल रही थी नक्सलवाद की. इसी लहर में शामिल रहने के कारण फिर जेल गए |1969 में जब उत्पल दत्त फिल्म The Guru की शूटिंग कर रहे थे, तब उनको सरकार ने गिरफ्तार कर लिया. फिर बाहर आये |इस प्रकार अभिनय भी चलता रहा और जेल जाने का क्रम भी |इमरजेंसी के आस-पास उत्पल दत्त ने तीन नाटक निकाले |तत्कालीन सरकार ने  तीनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया. पर जहां भी चल पाया, लोगों ने पसंद किया |

बाद में 1988-90 के आस-पास उत्पल दत्त ने देश की ‘राजनीति में घुसे धर्म’ और कम्युनिज्म के गिरते असर पर फ़िल्में बनाईं:-Opiate of the People और The Red Goddess of Destruction.

उन्होंने 100 से ऊपर फ़िल्में की थीं | ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्में गोलमाल, नरम गरम और रंग बिरंगी तीनों के लिए कॉमेडी का फिल्मफेयर मिला | तीनों में अमोल पालेकर भी थे. | 

बांग्ला फिल्मो के लिए भी कई अवार्ड मिले |अगर वैसी फ़िल्में बॉलीवुड में बनी होतीं, तो हिंदी सिनेमा में कुछ और हीरे मौजूद रहते.|

उत्पल दत्त ने वो जिंदगी जी जिसपे फ़िल्में बन सकती हैं | एक बिंदास हंसोड़ आदमी, शानदार कलाकार, और  राजनैतिक विचारक -जीवन में और कितनी विविधता चाहिए?

उत्पल दत्त के नाटक जनता को बड़े पसंद आते थे. पर चीजें सरकार को पसंद नहीं आतीं? 1959 में उत्पल दत्त का एक नाटक आया. अंगार. इसमें कोयला मजदूरों की व्यथा और शोषण दिखाया गया था.|  1963 में आया नाटक कल्लोल. इसमें अरब सागर में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हिन्दुस्तानी सैनिकों के विद्रोह को दिखाया गया था. पर ये भी दिखाया गया कि कैसे कांग्रेस इन सैनिकों से नाखुश थी | 1962-65 में हिंदुस्तान चीन और पाकिस्तान से जंग लड़ रहा था. तत्कालीन कांग्रेस सरकार को उत्पल दत्त की देशभक्ति पर शक हुआ. और उनको बिना किसी ट्रायल के जेल में डाल दिया गया |Preventive Detention Act के तहत. तत्कालीन वजह थी एक आर्टिकल ‘Another side of the struggle’ जो ‘देशहितैषी’ में छपा था | 

उनकी बेटी विष्णुप्रिया दत्त एक इंटरव्यू में बताती हैं कि पापा को जेल से बहुत दिक्कत नहीं थी. थोड़े दिन लगे एडजस्ट करने में. फिर वहां भी लिखना-पढ़ना और थिएटर शुरू कर दिया था. साथ के कैदियों को लेकर क्रिकेट भी खेलने लगते. कहती हैं कि उत्पल दत्त की सबसे ख़ास बात थी कि वो किसी भी क्षण में कोई खतरनाक सा जोक मार देते थे | वे कभी टेंशन नहीं लेते थे | जहां घूमने जाते, वहां के इतिहास के बारे में गाइड से ज्यादा पता रहता था | गांधी जी  की पॉलिसी से ज्यादा इत्तेफाक नहीं रखते थे |

विचारधारा की दृष्टि से वो एक बड़े मार्क्सवादी क्रांतिकारी थे। उनके लिखे और निर्देशित कई बांग्ला नाटक विवादों में घिरे |1965  में बंगाल में कांग्रेस सरकार की हार के अहम कारणों में उत्पल दत्त की गिरफ्तारी भी एक वजह मानी गई। जब देश में आपातकाल लगा तो उत्पल दत्त ने तीन नाटक लिखे थे- बैरीकेड, सिटी ऑफ नाइटमेयर्स, इंटर द किंग। तीनो ही प्रतिबंधित हुए |

19 अगस्त 1993  को उनका निधन हो गया |एक प्रतिबद्ध विचारक और बहुमुखी अभिनेता के रूप में उन्हें सदैव याद किया जायेगा |

-कुणाल