ब्रह्नज्ञान के अनुभव - ब्रह्मज्ञानी की अवस्था -प्राप्ति आसान नहीं

 -रामकुमार सेवक 

ब्रह्मज्ञान सिर्फ दो हथेलियों को हिलाते हुए देख लेना मात्र नहीं हैं बल्कि यह सिर्फ शुरूआत भर है |

सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी ने अनेक बार हमें समझाया कि ब्रह्मज्ञान सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है और मात्र हथेलियों को देखने से ब्रह्मज्ञान नहीं हो जाता |

आप 24 अप्रैल 2016 को किये गए उनके प्रवचन को एक बार दोबारा सुनें ,उसमें उन्होंने ब्रह्मज्ञान प्राप्ति पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया था |पांच प्रणो की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि-जब ब्रह्मज्ञान दिया गया तो उससे पहले पाँच प्रण लिये गए थे |

दूसरे प्रण की चर्चा करते हुए बाबा जी ने कहा था कि प्रण को उस रूप में माना ही नहीं गया |

बाबा जी ने कहा कि यदि पाँच प्रणो को माना ही नहीं गया तो ब्रह्मज्ञान हुआ ही नहीं ,फिर कैसी भक्ति और कैसी मुक्ति ?

(वर्ष 2000 के आस-पास सन्त निरंकारी मंडल से छपी मेरी किताब बूँद -बूँद सागर में एक अध्याय -प्रण ही मानिये में भी इस विषय पर ब्रह्मज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया गया था ) 

इससे स्पष्ट है कि हथेलियों को हिलाते हुए देखना मात्र ब्रह्मज्ञान नहीं है,बल्कि यह एक अवस्था है |बाबा हरदेव सिंह जी ने अपने अनेक प्रवचनों में अनेक बार समझाया कि इसके लिए खुद के ऊपर बहुत मेहनत करनी पड़ती है |

जो ब्रह्मज्ञान के विद्यार्थी हैं वे इस बात को भली भांति समझ सकते हैं कि एक ब्रह्मज्ञानी ,जिन्हें हिन्दुओं द्वारा भक्त शिरोमणि कहा गया,भक्त रैदास जी यह कहा करते थे कि मन चंगा तो कठोती में गंगा |

ब्रह्मज्ञान के विद्यार्थी कठोती में गंगा से ज्यादा इसकी शर्त अर्थात मन चंगा होने पर ध्यान केंद्रित करते हैं |मन चंगा के लिए सबसे बढ़िया उपाय हैं-पाँच प्रण |

रैदास जी के समय में पाँच प्रण इस रूप में तो बिलकुल नहीं रहे होंगे |

वे तो रामानंद जी के शिष्य थे |रामानंद जी कबीर जी और धन्ना जाट के भी गुरु थे और आसानी से किसी को शिष्य नहीं बनाते थे इसलिए इस रूप में हम वाकई सौभाग्यशाली रहे हैं कि भक्ति के स्कूल में हमारा प्रवेश आसानी से हो गया लेकिन आगे की मेहनत तो करनी होगी ,तब अपने गुरु के विश्वास की कसौटी पर हम खरे उतर सकेंगे |

(रैदास जी तथा अन्य कुछ सन्तों के जीवन और शिक्षाओं के बारे में मेरी प्रगतिशील साहित्य से प्रकाशित पुस्तक हमारे सन्त-महापुरुष के प्रथम भाग में प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है ) 

मन चंगा होना ब्रह्मज्ञानी की अवस्था है |पाँच प्रणो के बारे में  जरा सोचें,,पहले ही प्रण में कहा गया है कि तन-मन-धन परमात्मा की देन हैं ,इन्हें परमात्मा के ही समझें |

इन्हें परमात्मा का ही समझने का सवाल मन की अवस्था से जुड़ा है |अवस्था का आधार आस्था है |

बाबा हरदेव सिंह जी ने मन के बारे में एक प्रवचन में समझाया कि ऐसा कोई है नहीं जिसने मन पर आसानी से काबू पा लिया हो |इसके बारे में कहावत है-मन जीते जग जीत अर्थात मन को जीतने के लिए विश्व को जीतने के बराबर मेहनत करनी पड़ती है |

विश्व विजेता बनने का लक्ष्य लेकर सिकंदर यूनान से आया था और भारत से जीतकर न जा सका |यह एक ऐतिहासिक सत्य है लेकिन यहाँ मैं मन को जीतने में लगने वाली मेहनत की और अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि सिकंदर बहुत मेहनती इंसान था लेकिन सारे देशों पर विजय न पा सका अर्थात जगजीत न हो सका और रैदास जी अथवा कबीर जी ने मन को जीतने वाली अवस्था हासिल की इसका अर्थ  है कि ये दोनों सिकंदर से अधिक शक्तिशाली थे |

हमारा सत्गुरु हमें ऐसी ही अवस्था में देखना चाहता है इसलिए हमें यह अवस्था प्राप्त करनी ही होगी तब ब्रह्मज्ञानी होने के गौरव से गौरवान्वित हो सकेंगे |धन निरंकार जी-