एक महात्मा के पास एक जिज्ञासु आया |वह ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहता था |ब्रह्म कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जिसका हम लेन - देन कर सकें |
यह सिर्फ अनुभूति है,जैसे कोई बच्चा बाजार में अपने पिता की उंगली पकडे शान से चल रहा हो |यह अनुभूति मन को आनंद प्रदान करती है | जिनका मन उनके कहने में नहीं है उसके लिए ब्रह्मज्ञान प्राप्ति सरल नहीं है |जिज्ञासु यह अच्छी तरह जानता था |गुरु जी ने कहा -तुम्हें मेरी गायों को बारह वर्ष तक चराना होगा,उसके बाद तुम्हारी पात्रता पर विचार किया जायेगा |यह एक कठिन शर्त थी और समय भी बहुत ज्यादा था लेकिन सच्चे जिज्ञासु वर्षों की लम्बाई से नहीं घबराते और अपने संकल्प को पूर्ण करने में लगे रहते है |उसने बारह वर्ष तक खूब मेहनत की ,उसके बाद गुरु जी की सेवा में पहुँचा |
गुरु जी ने उसे एक पुरानी संदूकची देते हुए कहा कि इसमें एक कीमती सामान है |नदी पार मेरा एक मित्र रहता है,संदूकची का सामान बस उस मित्र को देकर आओ ,तुम्हें फिर ब्रह्मज्ञान मिल जायेगा |
शिष्य पिछली परीक्षा सफलतापूर्वक पार कर चुका था इसलिए आत्मविश्वास से लबालब भरा था |वह संदूकची लेकर चला |रास्ता कठिन था और नदी पार भी करनी थी |
वह पेड़ के नीचे जरा रुका तो ख्याल आया कि इस मैली सी संदूकची में ऐसा कौन सा कीमती सामान हो सकता है जिसे गुरु जी अपने दोस्त को देना चाहते हैं ?
एक बार तो उसे लगा कि संदूकची देखकर मन में कहीं लालच न आ जाए |इस संकोच ने उसके कदम को हल्का सा रोका लेकिन ध्यान आया कि बारह वर्ष बाद जब उसकी सेवा का परिणाम अधिक गायों के रूप में देखा तो गुरु जी कितने खुश हुए थे |उसे लगा कि वह गुरु जी का प्रिय शिष्य है |
इस ख़ुशी ने उसे हिम्मत से भर दिया |उसने जैसे ही संदूकची की चटकनी खोली एक चुहिया संदूकची से बाहर उछली और जंगल में गुम हो गयी |
वह सोच ही रहा था कि अब क्या किया जाये ?
लेकिन चुहिया को तो वापस पकड़ा नहीं जा सकता था इसलिए वह हताश गुरूजी के पास वापस लौट आया |
गुरु जी ने कहा- तुम छोटी सी चुहिया को नहीं संभाल सके,ब्रह्मज्ञान का तेज कैसे संभालोगे ? यह सुनकर जिज्ञासु लज्जित हुआ और कुछ न बोल सका |उसे मायूस देखकर गुरु जी ने उसे उलझे हुए धागों को सुलझाने का काम दे दिया |यह कार्य गायें चराने से भी कठिन था क्यूंकि जितना गुच्छा वह सुलझाता ,गुरु जी उसे और उलझे गुच्छों से मिला देते थे |
गायें चराने के वर्षों की तो एक सीमा थी लेकिन धागों की उलझनों का तो कोई अंत होता दिखाई न देता था |
जिज्ञासु परेशान हो गया |
उसने कहा-गुरु जी ये उलझे धागे तो जीवन भर न सुलझ पाएंगे तो क्या जीवन भर मैं ब्रह्मज्ञान से अनजान ही रहूंगा ?
गुरु जी बोले-अधीर होने की ज़रुरत नहीं है |अधीरता उलझनों को ख़त्म नहीं होने देती |अधीरता छोड़ धैर्य का दामन थाम लो |कोई उलझन सुलझे बिना न रहेगी |
जीवन में उलझनों का होना तो वैसा ही है जैसे सागर में लहरों का होना |
मुंबई या चेन्नई में जो कभी गए हैं उन्होंने समुद्र का किनारा भी देखा होगा |लहरों का बनना और बिगड़ना निरंतर चलने वाली क्रिया है |समुद्र के किनारे जो पर्यटक खड़े होते हैं वे लहरों के बनने बिगड़ने से कभी चिंतित नहीं होते |
इसी प्रकार सिनेमा हॉल में जो लोग फिल्म देखने जाते हैं वे परदे पर मर रहे योद्धाओं की चिंता नहीं करते क्यूंकि फिल्म जब समाप्त होती है तब परदे के आगे-पीछे कोई मनुष्य नहीं होता बल्कि कपडे का वह टुकड़ा बिलकुल अकेला वहां होता है |
उलझने तो जीवन भर रहेंगी उनके होते हुए भी मन को स्थिर रखना होगा |
रोचक बात यह है कि ब्रह्मज्ञान कोई बोझ नहीं है |यह कोई खोज नहीं है चूंकि खोज उसकी की जाती है जो कभी गुम हुआ हो |
परमात्मा हमारे कण-कण,रोम-रोम में है |कोई दूरी है ही नहीं तो खोजना किसे है ?
ब्रह्मज्ञान तो ऐसा दिव्य एहसास है जिसमें हम पुलकित होते हैं और कहते हैं-अरे यही है परमात्मा ?--वाह
-रामकुमार सेवक