देखकर यह समागम मैदान
बोला -एक आम इंसान
बाप रे -इतनी भीड़
आदमी जैसे छिला जा रहा है -
छिलने की बात कुछ हजम नहीं हुई -
मन-बुद्धि में चुभी हो-जैसे कोई सुई -
और - मैं बोल उठा-
मित्र-बेशक संख्या बहुत ज्यादा है -इस समागम मैदान में
लेकिन यह भीड़ नहीं है |
भीड़ तो है-रेलवे स्टेशनों पर ,गलियो में बाज़ारो में
सड़कों पर हज़ारो में ,
एक-दूसरे को धकियाती मगर-सुधार के ,उद्धार के,परोपकार के उपदेश
साथ-साथ सुनाती
हिन्दुओ की भीड़ ,मुसलमानो की भीड़ ,
औरतो की भीड़,किसानो की भीड़
नारे लगाती-अपनी चीखों से आसमान गुंजाती
आग लगाती ,दुकाने जलाती
दुबक जाते जिसे देखकर -भोले -भाले लोग
अपने घरो में डरकर -उसे कहते हैं-भीड़
मगर -मेरे भाई ,जिसे कह रहे हो आप -भीड़ -इस मैदान में
वह नहीं है -भीड़
सभ्यता की , शांति की
प्रेम में लिपटी ,एक मधुर क्रांति की
श्रद्धा की,मर्यादा की -सहिष्णुता की ,बंधुत्व की
लाखो-करोडो की संख्या के बावजूद
विचारधारा के एकत्व की |
इसे देखकर -भ्रम तो हो सकता है -मगर
भय उत्पन्न नहीं होता
शहर चलता रहता है-अपनी रफ़्तार से -
कोई भी व्यक्ति -अपने मन की -शांति नहीं खोता
क्योंकि -जिसे कह रहे हो-आप भीड़
इसका आधार भक्ति है ,निराकार है -
वास्तव में यह तो मानव परिवार है -
जो दिखा रहा है -दुनिया को
कि-यदि इंसान को बनना नहीं है-डायनासोर
होना नहीं है लुप्त-इस धरा से
तो-रफ़्तार के साथ-साथ
धैर्य का दामन भी थामना होगा ,
और इसके लिए
ब्रह्मवेत्ता सत्गुरु से -इनका ज्ञान -माँगना होगा
ताकि दुनिया की भीड़
हो जाए परिवर्तित -एक अनुशासित परिवार में
और-हो जाए -सत्य की रौशनी
घोर अन्धकार में
आप जिसे कहते हो-यह भीड़ है
दरअसल -यह सुरक्षित भविष्य की उम्मीद है
मानवता की उम्मीद है-मानवता की उम्मीद है-
(संभवतः 2014 के वार्षिक निरंकारी सन्त समागम में पढ़ी गयी कविता )
- रामकुमार 'सेवक'