कविता.. निरंकारी समागम - मानवता की उम्मीद

देखकर यह समागम मैदान 

बोला -एक आम इंसान 

बाप रे -इतनी भीड़ 

कंधे से कंधा मिला जा रहा है-

आदमी जैसे छिला जा रहा है -

छिलने की बात कुछ हजम नहीं हुई -

मन-बुद्धि में चुभी हो-जैसे कोई सुई -

और - मैं बोल उठा-

मित्र-बेशक संख्या बहुत ज्यादा है -इस समागम मैदान में 

लेकिन यह भीड़ नहीं है |

भीड़ तो है-रेलवे स्टेशनों पर ,गलियो में बाज़ारो में 

सड़कों पर हज़ारो में ,

एक-दूसरे को धकियाती मगर-सुधार के ,उद्धार के,परोपकार के उपदेश 

साथ-साथ सुनाती 

हिन्दुओ की भीड़ ,मुसलमानो की भीड़ ,

औरतो की भीड़,किसानो की भीड़ 

नारे लगाती-अपनी चीखों से आसमान गुंजाती

आग लगाती ,दुकाने जलाती 

दुबक जाते जिसे देखकर -भोले -भाले लोग 

अपने घरो में डरकर -उसे कहते हैं-भीड़ 

मगर -मेरे भाई ,जिसे कह रहे हो आप -भीड़ -इस मैदान में

वह नहीं है -भीड़ 

बल्कि यह तो है एक उम्मीद 

सभ्यता की , शांति की 

प्रेम में लिपटी ,एक मधुर क्रांति की 

श्रद्धा की,मर्यादा की -सहिष्णुता की ,बंधुत्व की 

लाखो-करोडो की संख्या के बावजूद 

विचारधारा के एकत्व की |

इसे देखकर -भ्रम तो हो सकता है -मगर 

भय उत्पन्न नहीं होता 

शहर चलता रहता है-अपनी रफ़्तार से -

कोई भी व्यक्ति -अपने मन की -शांति नहीं खोता 

क्योंकि -जिसे कह रहे हो-आप भीड़ 

इसका आधार भक्ति है ,निराकार है -

वास्तव में यह तो मानव परिवार है -

जो दिखा रहा है -दुनिया को 

कि-यदि इंसान को बनना नहीं है-डायनासोर 

होना नहीं है लुप्त-इस धरा से 

तो-रफ़्तार के साथ-साथ 

धैर्य का दामन भी थामना होगा ,

और इसके लिए 

ब्रह्मवेत्ता सत्गुरु से -इनका ज्ञान -माँगना होगा 

ताकि दुनिया की भीड़ 

हो जाए परिवर्तित -एक अनुशासित परिवार में 

और-हो जाए -सत्य की रौशनी 

घोर अन्धकार में 

आप जिसे कहते हो-यह भीड़ है 

दरअसल -यह सुरक्षित भविष्य की उम्मीद है 

मानवता की उम्मीद है-मानवता की उम्मीद है-


 (संभवतः 2014 के वार्षिक निरंकारी  सन्त  समागम में पढ़ी गयी कविता )

रामकुमार 'सेवक'