कल रात मैं एक सिख विचारक-प्रचारक को सुन रहा था |उनकी परिपक्वता को मैं सदा ही प्रणाम करता आ रहा हूँ,इसका कारण यह है कि उनके प्रवचन से मेरा ज्ञान और उसके प्रयोग से अनुभव बढ़ता है |
कल रात मैं उनका जो प्रवचन सुन रहा था ,उसमें वे विचार और कृत की बात कर रहे थे |
वे सिख धर्म के छठे गुरु हरगोबिंद जी का एक प्रसंग सुना रहे थे,जिसमें एक माता उन्हें भावों में बहकर कह रही थी कि-तुम पतित, मैं पतित पावन ,इसका सीधा सा अर्थ यह है कि तुम पतित हो और मैं पतित को पावन करने वाली हूँ | |
यह भाव सुनकर पास खड़े सेवादार से रहा नहीं गया चूंकि हर किसी की अपनी भावनाएं होती हैं |उसने माता को धकेलते हुए कहा-यह क्या बोल रही है ?तुझे पता भी है कि इसका मतलब क्या है ?
माता घबरा गयी लेकिन गुरु जी ने उस सेवादार को रोकते हुए कहा-अरे,तूने ये क्या कर दिया -माता के साथ बहुत बढ़िया सम्बन्ध बना हुआ था |
गुरु का दृष्टिकोण यही होता है,वह शब्दों को नहीं हृदय के भावों को ही महत्व देता है |
गुरु की पहचान ही यह होती है कि वह शिष्य के भावों को ही पकड़ता है |
महात्मा कह रहे थे कि भीतर का विचार ही भाव है और वही गुरु और शिष्य के बीच पुल का काम करता है |
कुछ वर्ष पहले मैंने सन्त निरंकारी (मासिक पत्रिका)में सम्पादकीय लिखा था,जिसका शीर्षक था - नीयत और नीति |मुझे बहुत शिद्दत से याद आ रहा है कि वर्षों पहले दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक सत्संग कार्यक्रम सरकारी कार्यालयों में कार्यरत निरंकारी अनुयाइयों के लिए -सत्य की और -शीर्षक से सत्संग कार्यक्रम महात्मा अजायब सिंह जी अध्यक्षता में आयोजित किया गया था |
उसमें मुझे भी अपने उदगार व्यक्त करने का अवसर मिला था | मैंने नीति और नीयत पर बात की थी |
महात्मा जिसे विचार और किरत कह रहे थे,मैं उन्हें नीति और नीयत कह रहा था |और बाद में यही मैंने सम्पादकीय आलेख में लिखा था कि-नीति तो बहुत अच्छी हो सकती है लेकिन उससे पहले नीयत में अच्छाई का होना बहुत जरूरी है |
गुरु अथवा सत्गुरु सदैव नीयत की अच्छाई को ही महत्व देता है |कल एक मित्र बता रहे थे कि-निरंकारी बाबा अवतार सिंह जी की सेवा करते समय कह रही थी-तू ही निरंकार ,मैं तेरी शरण -तू मेरी शरण |
किसी समझदार सेवादार ने उसे कहा-कि सुमिरन के शब्दों को ठीक करो |
बाबा जी ने कहा माता के शब्दों में जो मिठास थी ,उससे दिल को बड़ी ठंडक मिल रही थी |
बाबा हरदेव सिंह जी गुरु को समदर्शी कहते थे कि गुरु के आसन पर बैठकर भी शिष्य अक्सर गुण भी देखता है और अवगुण भी लेकिन गुरु सबके गुण ही देखता है,इसीलिए गुरु समदर्शी होता है |
महात्मा के प्रवचन सुनकर मुझे बहुत सुकून मिला चूंकि मुझे जो शिक्षा मिली है ,उसके अनुसार हर धर्म के गुरु पूज्य हैं |
यहाँ आज के युग के अनुसार सिर्फ यही ध्यान रखना आवश्यक है कि जिस गुरु को पूज्य मान रहे हैं वह वास्तविक गुरु होना चाहिए |
ज़ूम पर ऑनलाइन सत्संग कार्यक्रमों में मैंने अनेक बार उस प्रसंग को दोहराया जो बाबा हरदेव सिंह जी अनेक बार कहते थे |उनका कहना था कि-कांच और हीरे की प्रजाति एक जैसी है लेकिन दोनों के मूल्यों में भारी अंतर है चूंकि लाख प्रशंसा करने के बावजूद कांच हीरे में नहीं बदल सकता है इसलिए मैं अक्सर ही कहता हूँ कि हर धर्म का गुरु मेरे लिए पूज्य है बशर्ते वह वास्तविक हो | धन्यवाद
- रामकुमार 'सेवक'