दीपावली के अगले दिन की निराली सुबह

अभी अभी सुबह की सैर करके लौटा हूँ |कल रात दीपावली थी लेकिन सुबह बहुत सुखद लग रही है |कई वर्षों के बाद दीपावली के अगले दिन की सुबह ऐसी देखने को मिली है |वास्तव में कल रात को ही बेटे मेरा ध्यान इस ओर दिला रहे थे किस आज पटाखे कुछ कम चल रहे हैं चूंकि दिवाली की रात को इतना ज्यादा धुंआ होता था कि सांस लेने की मुश्किल से बचने के लिए उपाय करने पड़ते थे |कभी -कभी तो पुलिस को भी बुलाना पड़ता था |  

निरंकारी कॉलोनी (दिल्ली) में दूसरी बार मैं 1996 में बसा |उस वर्ष दीपावली 11 नवंबर को थी |

बच्चे छोटे थे लेकिन देर तक जागते रहे |इसके बावजूद मेरे भीतर का कवि देर तक जागता रहा और उसने एक कविता लिखी |

कविता में एक प्रकार का व्यंग्य था चूंकि बारूद का धुंआ इतना ज्यादा था कि मुझे किसी युद्ध का दृश्य ध्यान आ गया और मैंने लिखा -

बारूदी धमाके थे -चारों ओर,आकाश धुंआधार था   

सांस लेना मुश्किल था ,घुटन का आजार था 

पेड़ उदास थे ,और पौधे थे मायूस 

बेबस से खड़े थे-झाड़-फानूस 

वातावरण लाचार और मैं बीमार था 

भयभीत और तनावग्रस्त -क्यूंकि भविष्य -अनिश्चित और दुश्वार था 

कहीं हिटलर के कहकहे 

मुसोलिनी के सपने ,तो कहीं सिकंदर 

खडग लिए तैयार था 

भव्य अट्टालिका रंग -बिरंगे बल्बों से सजी थी -जबकि 

पास खड़ी झोपड़ी में गहन अन्धकार था 

थक चुकी थी लालटेन और ढिबरी या लैम्प अंधेरों से लड़ते-लड़ते 

आखिर किस -किस अँधेरे से लड़ता -राशन के,भाषण के 

सत्ता व दलाल के मेल से ,ब्लैक में बिकते मिट्टी के तेल से ,

किस किस से लड़ता -इसलिए मुँह छिपाकर बैठ गया 

बहुमत का शासन है,इसलिए चला गया -अंधकार के खेमे में 

क्यूंकि बहुमत उसी के साथ है,लेकिन रुक नहीं पाया 

क्यूंकि लैम्प आखिर लैम्प है -बुझा हुआ ही सही 

इसलिए अँधेरे से मेल -जोल बना नहीं पाया 

और बल्बों की झालरों में भी निभ नहीं पाया 

इसलिए अमावस है,अँधेरा है 

सूना -सूना सा लगता बसेरा है 

धमाके अब भी हो रहे हैं 

और उड़ रहा है अब भी -बारूद का धुंआ 

पटाखे जैसे हँस रहे हैं, गरीब की बेबसी पर 

धुंए और धमाके का कर रहा -विचलित सा समाचार है,जबकि 

आज कोई युद्ध नहीं हो रहा

महज़ दीपावली का त्यौहार है , महज़ दीपावली का त्यौहार है |

आज सुबह के सुखद एहसास ने मुझे ऐसा नशा दिया कि लगा - कविता लिखना या कविता प्रस्तुत करना कभी कभी गगनचुम्बी सफलता भी पा लेता है |

योगदान चाहे बढ़ती हुई महंगाई या लोगों के आत्मबोध का हो लेकिन स्वच्छ पर्यावरण की दिशा में इस सफलता पर मैं भी ख़ुशी मना लूँ  तो क्या नुक्सान है ?     

- रामकुमार 'सेवक'