मै उसे बहुत दिनों से वहां बैठा देखा करता था |
वह जामा मस्जिद
की सीढ़ियों के नीचे,एक कोने में
बैठा रहता था | उसके हाथ में एक पुरानी ऊनी टोपी थी | उसी को वह भिक्षा पात्र के रूप
में इस्तेमाल करता था |
उसकी अवस्था सत्तर को पार कर गयी थी, फिर भी वह खूब मजबूत दिखाई पड़ता
था |उसका कंठ और
स्वर तेज और गंभीर था |उसकी आवाज़ सुनकर लोग उसे मुड़कर जरूर देखते थे मानो उसकी आवाज़ पर
ध्यान न देना कोई पाप हो |
उसके चेहरे पर थोड़े-बहुत चेचक के दाग थे | उसके मुँह से निकले शब्द "दे दे खुदा की राह पर "
ही सदा सुनाई पड़ते थे, इसके अलावा कोई और शब्द बोलना वह जानता था कि नहीं ,कह नहीं सकता |
उससे किसी को
कभी कोई बात करते मैंने नहीं देखा | लोग उसे बहुधा पैसे देते थे |
पैसा टोपी में
डालने पर उसने किसी को कोई आशीर्वाद दिया हो,ऐसा भी मैंने नहीं सुना , परन्तु उसके चेहरे के भाव, जो अमिट रूप से एक जैसे बने रहते थे , देखकर अनायास ही किसी भी मनुष्य
की उस पर श्रद्धा हो जाती थी|
संभव है ,वह मन ही मन आशीर्वाद देता हो|बहुधा मैंने देखा था, लोग चुपके-से उसके निकट जाते, पैसा उसकी टोपी में डालते और आगे
बढ़ जाते |
कई लोग कहते थे
कि जो लोग सट्टे बाजार के खिलाड़ी हैं,उन्हें वह भाग्यशाली नंबर .बताता था |कुछ लोग तो लाटरी का शुभ न.भी
उससे पूछते थे |
उन नम्बरों के
टिकटों पर कोई बड़ा इनाम निकला या नहीं निकला ,कह नहीं सकता |
इसके बारे में
कुछ कहना अंदाज़े के अलावा कुछ नहीं है |
मेरी दुकान चावड़ी
बाजार में थी|
आपको शायद लग
रहा होगा कि मैं कोई बड़ा व्यसायी हूँ जिसका कागज़ आदि का बिजनेस है लेकिन ऐसा नहीं
है |आपकी ग़लतफ़हमी
दूर करना मेरा नैतिक कर्तव्य है |
असल में उस
भिखारी की वास्तविकता के इर्द-गिर्द एक रहस्यमय आवरण लिपटा हुआ था |
मैं पूछना
चाहता था कि वह कहाँ का था |उसकी बीवी ज़िंदा है या नहीं ?भिखारी बनने से पहले वह क्या करता था आदि प्रश्न मेरा ध्यान लगातार
उसकी तरफ खींचते थे |
मैंने यह भी
सुना था कि जासूसी संस्थाओं के लोग इस तरह के वेश बनाकर आने-जाने वालों पर नज़र
रखते हैं |
इस आकर्षण का
एक बड़ा कारण यह भी था कि वह शक्ल से भिखारी लगता नहीं था क्यूंकि वह कोई ऐसी आवाज़
नहीं लगाता था कि आने-जाने वाले लोग उसकी तरफ आकर्षित हों और उसकी टोपी में कुछ
पैसे डालें |
चावड़ी बाजार
में कागज़ की बड़ी दुकाने हैं जिनमें लाखों रुपयों का कारोबार होता है और मेरे जैसे
लोगों का गुजारा चलता है |मैं कागज़ की बड़ी गांठें गोदाम के बाहर निकालकर दुकान तक पहुंचाने
का काम करता हूँ |
शाम को घर की
तरफ निकलता हूँ तो बेहद थक जाता हूँ |
अख़बार पढ़ने का
मुझे बहुत शौक है |सेठ जी अक्सर
ही व्यंग्य से कहते हैं कि- अबे ,अगर स्कूल की किताबों में भी इतनी दिलचस्पी तेरी रही होती तो दुकान
में मजदूरी न करनी पड़ती |
मैं उनसे कभी
नहीं बताता कि पढ़ने में मेरी पूरी दिलचस्पी थी लेकिन मेरे जैसे मजदूरों की औलादों
का कोई भविष्य नहीं होता |पेट भर खाना रोज मिल जाए तो भी गनीमत है |
किसी से यह बात
बताने का कोई फायदा नहीं है इसलिए ऐसे समय मैं अख़बार एक तरफ रखकर दुकान के किसी
काम में लग जाता हूँ |
सत्य तो यह है
कि बचपन में बात सुनी थी कि पढोगे -लिखोगे तो बनोगे नवाब,खेलोगे -कूदोगे तो बनोगे खराब |
यह दूसरी बात
है कि पढ़ने -लिखने से कोई वाजिद अली शाह की तरह नवाब नहीं बन जाता बल्कि किस्मत से
ही कोई इंसान नवाब बन सकता है |
वाजिद अली शाह
इसलिए नवाब बने क्यूंकि उनके अब्बा नवाब थे |
राहुल गाँधी
हिम्मत से कह सकते हैं कि मैं किसी राजा से डरता नहीं हूँ लेकिन संविधान की दृष्टि
में बराबर होने के बावजूद कोई और यह कहने की हिमाक़त नहीं कर सकता और अगर कोई कहे
भी तो लोग उसे पागल ही कहेंगे |
मेरे कहने का
तात्पर्य यह है कि नवाब जैसी ज़िंदगी बशर करने के लिए पढ़े-लिखे होना बिलकुल भी
जरूरी नहीं है बल्कि जरूरी है कि खुदा उसे किसी नवाब की औलाद के रूप में जन्म दे |
सुबह और शाम उस मुसलमान भिखारी के दर्शन
होते हैं और मैं सोचता हूँ कि यह बचपन से ही तो भिखारी नहीं रहा होगा |उसके माता-पिता ने भी उसके जन्म
पर ख़ुशी मनाई होगी ,उसके साथ कुछ
सपने जोड़े होंगे |जवानी के दिनों
में इस भिखारी के भी कुछ सपने रहे होंगे |
सत्तर साल की
उम्र में जामा मस्जिद के इलाके में भीख मांगने के सपने तो शायद ही कोई देखता हो | मैं जानना चाहता था कि वह कहाँ का
है,उसके साथ
कौन-कौन लोग रहते हैं ?सरकार से उसकी उम्मीदें क्या-क्या हैं तथा इस उम्र में उसके सपने
क्या-क्या हैं ?
अगर मैं किसी
अख़बार का पत्रकार रहा होता तो हो सकता है कि मैं ऐसे लोगों की पीड़ा के बारे में
लिखता और मामले को किसी समाधान तक पहुँचाने की कोशिश करता |
वहाँ से आगे
निकलते ही मैं बस के बारे में सोचने लगता कि क्या बैठने की सीट मिलेगी क्यूंकि
शरीर जवाब दे रहा होता था |
अखबार में मैं
अपने जैसे लोगों की पीड़ा पढ़ना चाहता था लेकिन वहां बड़े-बड़े आदमियों की बातें लिखी
होती थीं कि किस मीटिंग में किसने क्या कहा |
ऐसी गर्मी के
मौसम में भी बड़े-बड़े लोगों को अलग-अलग रंगों की,बंद गले की जाकेट पहने देखकर मेरे
मन में सवाल पैदा होता है कि क्या इन्हें गर्मी नहीं लगती ?
एक बार मैंने
यह बात सेठ जी से पूछी तो उन्होंने कहा-अबे,इतना मत सोचा कर ,गर्मी तो सबको लगती है लेकिन फैशन भी तो कुछ जरूरी फैक्टर होता है |
सब तेरी तरह
लेबर थोड़े ही होते हैं |चल गोदाम की तरफ चल उसकी सफाई कर |
अख़बार में फ़िल्मी हीरोइनों की फोटो छपी होती थी | उस पन्ने को पढ़ने की बहुत इच्छा
होती थी लेकिन वो पन्ना सेठ जी दबा लेते थे |
आज उस फ़कीर को
देखकर मुझे किसी पीर की याद आ गयी |
फ़कीर हमेशा की तरह फटेहाल था
लेकिन खुश था जबकि रोज उसके चेहरे पर
मायूसी छाई रहती थी |
पीर हमेशा मुस्कुराते ही रहते हैं चूंकि रोटी की चिंता
उन्हें नहीं करनी पड़ती |उन्हें तो किसी भी चीज की चिंता नहीं करनी पड़ती |
माँ से एक बार
मैंने फकीरों की ख़ुशी के कारण के बारे में पूछा तो उसने बताया कि फ़कीर लोग असल में
खुदा के बन्दे होते हैं |
मैंने पूछा -हम
भी तो उसी खुदा के बन्दे हैं |क्यों अम्मा ?
हम गुनहगार
बन्दे हैं जबकि फकीरों की रूह पाक होती है |
उन दिनों एक
बड़े फ़कीर को गिरफ्तार किया गया था चूंकि उसके डेरे पर एक औरत की मौत हो गयी थी |
क्या गिरफ़्तारी
के बाद भी फ़क़ीर की रूह पाक रही होगी मैंने अम्मा से पूछा लेकिन अम्मा ने उस सवाल को ठन्डे बस्ते में खिसका
दिया था |
xxx-
मैंने एक
धार्मिक किताब में पढ़ा है कि किसी फ़कीर को भीख में रात को दो रोटी से ज्यादा मिल
गयी तो उसकी बीवी बहुत खुश हुई कि सुबह का इंतज़ाम हो गया लेकिन फ़कीर से उसकी ख़ुशी
देखी न गयी और उसने दोनों रोटियां कुत्तों को खिला दी |
लेकिन मेरी नज़र
में यह कोई समझदारी नहीं है |रूह पाक रखने का यह तरीका समझदारी भरा नहीं है,मेरा ख्याल है |
कबीर दास जी
भी कहते थे-
साईं इतना
दीजिए जामे कुटुंब समाय -
मैं भी भूखा न
रहूँ साधु भी भूखा न जाय |
अच्छे गृहस्थ
की यह निशानी है कि परिवार के साथ मेहमान का भी ख्याल करे |इतना संग्रह तो फ़कीर को भी अलाउ होना चाहिए |यह लोकतंत्र का ज़माना है |
कबीर दास जी ने
इससे ज्यादा संग्रह की इच्छा नहीं रखी जबकि लोकतंत्र के मान्यता प्राप्त रखवाले
अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए एक -एक जनप्रतिनिधि को कई-कई करोड़ में खरीदते हैं और इस प्रकार सत्ता का संग्रह करते हैं |
इस हिसाब से
कबीर दास जी व्यवहारिक फ़कीर नज़र आते हैं जबकि वे उस तरह के फ़कीर नहीं थे कि-आयी
मौज फ़कीर की,दिया झोंपड़ा
फूँक |
इस प्रकार सैयद
फ़कीर भी झोंपड़ा फूंक डालने वाला फ़कीर तो
नहीं था | लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान और उसकी आँखों की बेपरवाही उसे आम लोगों
से अलग कतार में खड़ा कर देती थी |
एक बार उसे सड़क
पर बहुत सारे रूपये नज़र आये लेकिन उसने उन्हें उठाया नहीं |वह उन्हें अपलक देखता रहा |उतनी देर में पीछे से आने वाले
राहगीर ने वे रूपये उठाये और उन्हें जेब के हवाले करके ऐसे चला गया,जैसे कुछ हुआ ही न हो |
सैयद फ़कीर से
जब रुपयों के बारे में, बाद में ढूंढने आये उन रुपयों के मालिकों ने पूछा तो उसने कह दिया
कि रूपये यहीं गिरे पड़े थे |
उन्होंने उससे
पूछा और लालच दिया कि तुम अगर बता दो कि रूपये कौन ले गया है तो हम तुम्हें कई
हज़ार रूपये दे सकते हैं लेकिन इस लालच का उस पर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा और उसने
कहा-जो रूपये ले गया है ,उसकी शक्ल तक भी मैंने कभी नहीं देखी |लोगों ने उससे पूछा कि उसकी शक्ल
क्यों नहीं देखी तो उसने मासूमियत से कहा क्यूंकि मेरी निगाह तो रुपयों पर थी |
फिर तुमने
रूपये लिये क्यों नहीं तो वह बोला -कैसे लेता ,रूपये मेरे थे ही नहीं |
उसकी यह बात
सुनकर रुपयों के मालिकों ने सोच लिया कि सैयद फ़कीर तो बिलकुल पागल है |
मेरी नज़र में
यह पागलपन नहीं था बल्कि उसकी सच्चाई थी |उसे खुदा का डर भी था कि
यदि उसने किसी और के पैसे पर कब्ज़ा किया तो नतीजा बुरा होगा |
किसी और के
पैसे को हथियाने से बेहतर है कि अपने मुकद्दर के चमकने की इंतज़ार की जाए |
उसे खुदा की
मेहरबानी पर पूरा भरोसा था |उसी की वजह से वह मुझे पीर या फ़कीर लगता था |हालांकि अगर मुझे इतने सारे पैसे
सामने पड़े दीखते तो मैं खुद उस पैसे को कभी नहीं छोड़ता क्यूंकि मुझे मुकद्दर की
बजाय कर्म पर अधिक भरोसा है |
इसके बावजूद
मेरी नज़र में सैयद फ़कीर गलत नहीं था |
मुझे यह भी
लगता था कि गाज़ियाबाद में जी टी रोड पर जो छोटी सी दरगाह है,उसे वहां गद्दीनशीन हो जाना चाहिए
|
वहाँ उसे खाने
-पहनने की कोई दिक्कत नहीं रही होती बल्कि मुझ जैसे छोटे लोगों का भी इंतज़ाम हो
सकता है लेकिन जो सामने पड़े नोटों को भी अपनी जेब के हवाले न करे उससे क्या उम्मीद
की जा सकती है |
अगले दिन जब
सैयद फ़कीर वहां आया तो उसके लक्षण बदले हुए थे |असल में आज उसका कुर्ता बेहद चमक
रहा था |उसके रोज वाले
कुर्ते की तुलना में आज का कुरता देखकर मुझे लगा कि आज सूरज जैसे पश्चिम से निकला
है |
आज उसकी आँखों
में सुरमे जैसा भी कुछ लगा हुआ था |
मुझे नसीर की
याद आ गयी ,वह मुज़फ्फरनगर
में मेरे साथ पढता था |जिस दिन उसका निकाह था ,तो उसकी आँखों में काजल लगाया गया |
काजल के साथ वह
कुछ अजीब सा प्राणी लग रहा था |फ़कीर सैयद भी आज कुछ अजीब लग रहा था |
मैंने उसे छेड़ा
तो वह खुल गया जबकि आज से पहले मैंने उसका एक ही संवाद सुना था -देदे खुदा की राह
में |
असल में उसका
दर्द बहुत गहरा था |नसीर की तरह
उसका भी निकाह हुआ था |उसकी बीवी शबनम बेहद खूबसूरत थी |
उस ज़माने में
औरतें सुरमे का बहुत सुन्दर इस्तेमाल करती थीं |काइयाँ से काइयाँ शौहर या आशिक़ भी
सुरमे की धार से बच न पाता था |
तब उसका नाम
सैयद फ़कीर न था बल्कि नफीस था ,नफीस अहमद |
नफीस का अर्थ
है -औरों से हटकर और गुणों में अनूठा |नफीस शौहर को पाकर शबनम बहुत खुश थी |
नफीस नाम का ही
नफीस नहीं था बल्कि उसका काम करने का ढंग भी अलग था |
शहर के परले
सिरे से भी पेर्सनलिटी निखारने के लिए लोग नफीस की दुकान पर ही आते थे |
दरअसल
दुकान तो नफीस के बड़े भाई की थी लेकिन
कारीगर तो नफीस था |जब उसे वक़्त
मिलता उसके दिमाग में शेर-ओ-शायरी भी गूंजने लगती था और वह शेर कहने लगता था |
उसकी कुर्सी पर
बैठा शख्स अगर उसे बीच में टोक देता तो वह आपे से बाहर हो जाता |शकील ,जो कि उसका बड़ा भाई था और दुकान
का मालिक भी ,ने उसे लाख
समझाता और उसे उबलते देखकर ठन्डे स्वर में
बोलता कि- ठण्ड रख ---ठण्ड रख |
इस तरह शकील
उसके गुस्से पर पानी के छींटे मारता था और इस तरह नफीस को कण्ट्रोल में रखता था |
शकील की दो
बीवियाँ थीं |
नफीस शायर था
तो रोशन दिमाग भी था |वह शकील को कभी भी तेज आवाज़ में कुछ नहीं कहता था क्यूंकि शकील
उससे पांच साल बड़ा था |
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शबनम उसे बहुत
प्यार करती थी और नफीस भी उसे |
इस तरह
घर-संसार बढ़िया चल रहा था |नफीस अपने दोस्तों में अक्सर कहा करता था कि उसकी बीवी उसका इतना
ख्याल रखती है कि उसे अपने हाथ से खुजलाने तक नहीं देती |उसे घर में कुछ करने नहीं देती |
घर में सब्जी
तक रोज उससे पूछकर बनायीं जाती थी |
अगर कभी बताई
गयी से अलग सब्जी बने |बताई गयी सब्जी नहीं भी बने तो जो सब्जी बनेगी वह बताई गयी सब्जी से ज्यादा स्वादिष्ट होगी या वह होगी
जो नफीस को और भी ज्यादा पसंद होगी |जैसे नफीस को मीट का पुलाव सबसे ज्यादा पसंद था ,साथ ही कढ़ी और चावल तो उससे भी
ज्यादा पसंद थे |
अगर नफीस ने
कढ़ी -चावल बनाने को कहा और शबनम ने उन्हें नहीं बनाया तो नफीस ने देखा कि थाली में
मीट का पुलाव डाला गया है |इस तरह शबनम नफीस की नाराज़गी का आधार ही ख़त्म कर देती थी |
शबनम उससे बेवफाई करेगी,इसका नफीस को रत्ती भर भी अंदाज़ा
नहीं था लेकिन एक दिन नफीस ने देखा कि शबनम भाई जान की कुछ ज्यादा ही तारीफ कर रही
है |
शकील की तारीफ
वह भी करता था लेकिन उसका मुख्य कारण उसकी दुकान थी जो कि मेन मार्किट में थी |
दुकान खूब चलती
थी |चलने का मुख्य
कारण तो नफीस का हुनर था लेकिन अगर दुकान मेन
मार्किट में न होती तो नफीस के हुनर की क्या वैल्यू रह जाती लेकिन शबनम के
मुँह से शकील की तारीफ़ उसके कलेजे में भाले की तरह चुभ रही थी |उसकी आँखों में लगे सुरमे की धार
आज उसे ही घायल कर रही थी |वह बेहद उबल रहा था लेकिन आज कुछ बोलना ठीक न था |
उसके मन में आ रहा था कि शकील से अलग रहकर दुकान
खोली जाये |
लेकिन अलग
दुकान लेना और चलाना क्या आसान है ?मार्किट में दुकानों के किराये सुनकर ऐसा लगता था जैसे किसी ने
लोहे के चने चबाने का कम्पटीशन ओर्गनइज़ कर रखा हो |
अलग दुकान
खोलने की बात सोची तो जा सकती थी लेकिन उस सपने को ज़मीन पर उतारना आसान न था |अब उसे शकील से नफरत होने लगी थी |घर में मियां-बीवी के झगडे तो आम
होते हैं |रसोई में इतने
बर्तन होते हैं तो उनकी आवाज़ तो होती ही है |इतना तो कोई भी समझ सकता है लेकिन जुमेरात की सवेरे नफीस ने
बेस्वाद खाने की बात कही तो शबनम ने कह दिया कि इतनी आमदनी में तो इतना ही स्वाद
आएगा |मैं इससे बढ़िया
सब्जी नहीं बना सकती |अगर इससे बढ़िया सब्जी चाहिए तो होटल से मंगवा लो |
शकील ने
तनख्वाह अभी दी नहीं थी इसलिए नफीस ने सुना -अनसुना करने की कोशिश की |
वह चुप रहा
लेकिन शकील बोला-अरे भाई ,शायरी थोड़ी कम किया कर |कुछ दिनों से तुम्हारा ध्यान काम में कम लगता है |
यह सुनकर जैसे
नफीस ने आपा खो दिया |वह बोला-शायरी करना जानवरों का काम नहीं है |
शायरी भी एक
हुनर है और पर्सनालिटी डेवेलप करना भी |
मालिक के फज़ल
से मुझे दो-दो हुनर मिले हैं |
नफीस ,इतना घमंड मत कर ,खुदा से डर |
यह तुम कह रहे
हो,जिसने सगे चाचा
की बेटी को भी नहीं बख्शा और उस लाचार लड़की को अपनी बेगम बना लिया |
शकील
चिल्लाया-अब और कुछ मत बोलना ,नहीं तो अच्छा नहीं होगा |
नफीस की कम
बोलने की आदत थी लेकिन शबनम और शकील के गठजोड़ ने जैसे उसे पागल कर दिया |
वह बोला-खुदा
से कुछ नहीं छिपाया जा सकता |उसे अच्छी तरह मालूम है कि किस तरह तुमने आयशा से निकाह किया |उसकी मजबूरी का फायदा उठाया |
दुकान सिर्फ
तुम्हारी नहीं है ,उसमें मेरा बराबर
का हिस्सा होना चाहिए लेकिन तुम मुझे कारीगर की तरह सिर्फ तनख्वाह देते हो |जबकि मैं उसमें दिन -रात खटता हूँ
|
यह कहकर वह
बाहर निकल गया |वह पढ़ा -लिखा
था ,समझदार था |उसे लगा कि-आज कुछ ज्यादा ही बोल
गया |शकील ने अगर
उसे दुकान से अलग कर दिया तो खाना उतना भी स्वादिष्ट नहीं मिलेगा जितना कि अभी मिल
रहा है |
यह शकील;को भी पता था कि नफीस जैसा काम
शहर का एक नाई भी नहीं जानता लेकिन सुल्ताना और आयशा अब पुरानी हो चुकी थी इसलिए
उसकी नीयत शबनम पर आ गयी थी |
शबनम का नया
जोड़ा जब से उसने बनवाया ,आधी फतह तो जैसे हो ही गयी |
शबनम भाईजान का
इतना गुणगान करती कि नफीस को लगने लगा कि यदि दुकान अलग न की तो अपनी घरवाली को भी
गंवा बैठेगा |धीमी
काम को भी एक
अग्नि माना गया है |बड़े-बड़े तपस्वी
तक काम की अग्नि में झुलसते हुए देखे गये हैं |इस्लाम में जो जन्नत की कल्पना है
उसमें हमेशा जवान रहने वाली परियों की कल्पना है |शबनम भी परी से कम तो न थी लेकिन
जैसे - जैसे उसकी आदत में बेवफाई शामिल हो रही थी उसकी खूबसूरती धीमी हो रही थी |
नफीस को शबनम
की बातों का भरोसा नहीं रहा था |रहते तो अब भी वे साथ थे लेकिन घर,भीतर से जो पहले हरा भरा गुलशन था
अब जैसे काँटों से भरा ,उजड़ा हुआ चमन था |
चारदीवारी तो
वही थी ,मोहल्ला भी वही
था लेकिन अब उसमें वह बात नहीं बची थी |
अभी वह अलग
दुकान की कोई बेहतर स्कीम सोच पाता जैसे
जलजला आ गया |
सुबह -सुबह जब
नफीस लघुशंका के लिए आदतन उठा तो उसने देखा कि शबनम बिस्तर पर नहीं है |रात को तो साथ ही सोये थे |नीचे कहीं उसकी मौजूदगी के निशान
न थे |
नफीस को वह
सीढ़ियों से उतरती दिखाई दी |उसके पीछे-पीछे शकील भी आ रहा था |
यह देखकर नफीस
के क्रोध की सीमा न रही |अब शकील के लिए उसके मन में जरा भी इज्जत न रही |उसे ख्याल आ गया कि जब वह पढता था,रोज रात को रमेश के साथ रामलीला
देखने जाया करता था |उस में एक प्रसंग बालि का भी था |
बालि सुग्रीव
का बड़ा भाई था लेकिन उसने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी तारा को हथिया लिया
था |भगवान राम ने बालि को कहा कि छोटे भाई की पत्नी -पुत्रवधु,छोटे भाई की पत्नी और छोटी बहन के
बराबर होती है ,जिसे तुमने
अपने घर में रख लिया है इसलिए तुम्हें मारने में पाप नहीं लगेगा |तुम्हें मारने में शर्म की कोई
बात नहीं है |
नफीस ने दसवीं
तक ठीक-ठाक पढाई की थी और हिन्दू धर्म की भी उसे ठीक-ठाक समझ थी |रामलीला देखने का तो उसे बचपन से
ही शौक था |
हालांकि वह
मंदिर कभी नहीं जाता था |हर जुमे की नमाज पढ़ने वह मस्जिद जरूर जाता था |वह सच्चा मुसलमान था क्यूंकि खुदा
का डर उसे था |
वह बोला-बड़े
भाई आज आपने अपना बड़प्पन खो दिया |अरे तुम्हारी दो बीवियां हैं फिर भी तुम्हारी नज़र मेरी बीवी पर
मैली है |
खुदाई कहर तुम
पर जरूर टूटेगा क्यूंकि तुमने अपने छोटे भाई की बीवी को भी नहीं बख्शा |कल को तो तुम औलाद की बीवी को भी
नहीं बख्शोगे ?तुम्हें इस
बारे में क्या सफाई देनी है |
जिनके बाजुओं
में दम होता है वे सफाई नहीं देते बल्कि ज़िंदगी के मज़े लेते हैं |
सफाई की इच्छा
रखना और उस पर यकीन करना तो तुम्हारे जैसे नामर्दों का काम है |
शकील ने यह बात
इतनी ऊंची आवाज़ में कही कि नफीस ने लाठी उठा ली और सीधे उसके सिर पर वार किया |
नफीस के सिर पर
जैसे खून सवार था |पीछे से आ रही
शबनम को देखकर उसे लगा कि इसे भी छोड़ना ठीक नहीं |लाठी उसके हाथ में थी ही |उसने भरपूर वार किया |
लेकिन वह साइड
से बचकर निकलने लगी इसलिए लाठी सिर की बजाय
सीधे कंधे पर पडी और वह नीचे गिर गयी |इसके साथ ही नफीस घर से बाहर निकल
गया |
कई साल गायब
रहने के बाद वह जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर आकर बैठने लगा |वह भूल ही गया कि वह दिल्ली का
नहीं है बल्कि मुज़फ्फरनगर का है |इसका मतलब है कि पुलिस क्व रिकार्ड्स में उसके खिलाफ कुछ ख़ास न था |वह चाहता तो मुज़फ्फरनगर जा सकता
था लेकिन वहां के लिए उसके मन में कशिश न थी |अब तो जमा मस्जिद की वे सीढ़ियां
ही उसका मुस्तकिल डेरा थीं क्यूंकि एक खुदा ही किसी को देशनिकाला नहीं देता |हम सब उसके बच्चे-बच्चियां हैं |इस तरह जब वह सोचता तो न शबनम के
लिए गिला रहता था और न शकील के लिए शिकवा |
धीरे -धीरे वह
भूल गया कि उसकी एक बीवी थी जो उसके बड़े भाई से लगी थी और उसका बड़ा भाई किसी से न
डरता था |
जो जन्मा है एक
दिन मरेगा भी |उसने खुद से
कहा-शकील को तो अय्याशी निबटायेगी ,शबनम को उसकी मौज-मस्ती और नफीस को खुदा क्यूंकि लाठी तो उसी ने
मारी थी |
उसकी
अन्यारात्मा ने कहा-किसी को सजा या इन्साफ देना इंसान का काम नहीं है ,हुकूमत का काम है या फिर खुदा का
काम है |
दो दिन बाद
नफीस को अपने किये पर कटाई पछतावा नहीं था क्यूंकि शकील भी अपराधी था और शबनम भी
इसलिए अपराधियों को मारने से कोई गुनाह
नहीं लगता |
लड़ाइयां होती
रही हैं और लोग मरते रहे हैं इसलिए मेरा अपराध बहुत बड़ा नहीं है |सैयद फ़कीर ने यह बात कही और चैन की
नींद सो गया |
लेकिन जल्दी ही
उसकी नींद खुल गयी |उसके कान में आ
रहा शोर बहुत ज्यादा था |
लेकिन आस -पास
लेटे लोग आराम से सो रहे थे |अगर शोरोगुल रहा होता तो ये लोग चैन से कैसे सो रहे होते ?सैयद ने सोचा |
यह सपना भी
नहीं था क्यूंकि पीछे की मस्जिद ज्यूँ की त्यूं खड़ी थी और धुंए की बू भी नाक में
घुस रही थी |
चौकीदार रोज की
तरह घूम रहा था |उसकी सीटी की
आवाज़ खूब साफ़ सुन रही थी |इसका मतलब यह था कि शोर सपने का नहीं था ,ख्यालों का था,बल्कि असली था |
नफीस घर और घर
के लोगों को तो बहुत पीछे छोड़ आया था लेकिन पीछे छोड़ने के बावजूद उसका अपराध ख़त्म
न हुआ था |
सैयद फ़कीर उठ
गया |उसने नल पर
मुँह-हाथ धोया और डायरी में नज़्म लिखने लगा |
वह समझ गया कि
जिसे सुनकर वह सो नहीं सका वह शोर बाहर का नहीं,
था |
वह शोर उसके दिल-ओ-दिमाग
में भरा हुआ था |
xxx-
सुबह -सुबह वह
नींद से उठा |उसने देखा सब
कुछ सामान्य था | लोगों के चेहरों पर अशांति के कोई चिन्ह नहीं थे |बच्चे रोज की तरह स्कूल जा रहे थे
|शमशुद्दीन रोज
की तरह खबरें सुन रहा था |
महमूद उसी तरह
झख मार रहा था |रशीद रोज की
तरह बेपरकी खबरें उड़ा रहा था |अशांति बिलकुल नहीं थी |लाला गयाप्रसाद की दुकान पर पड़े अख़बार में भी दंगे-फसाद की कोई खबर
नहीं थी |
इक़बाल ने सैयद
से कहा -यह सुरमे का क्या जुग़राफ़िया है साईं ?
बोला -क्या
फर्क पड़ता हैं साईं |आँखें हैं तो दीखता है,आँखों के बिना सुरमा किस काम का ?मालिक का शुकर है कि मुझे आँखें
दी हैं |सेठ जी को भी
आँखें दी हैं |ज्यादा लोगों
को आँखें मिली हुई हैं लेकिन सब लोग एक जैसा कहाँ देखते हैं |
यह लड़की जो
दुकान में बिल बनाती है,सेठ जी की औलाद के बराबर है लेकिन सेठ जी उसके सामने भी भद्दे मज़ाक
करते रहते हैं |ऐसे मज़ाक अपनी
औलाद के सामने तो कभी नहीं कर सकते |इसका मतलब है कि डिंपल को देखते समय उनकी नज़रें उतनी साफ़ नहीं
होतीं |मैली नज़र ,देखने वाले के लिए भारी हमेशा
रहने वाली हैं |
किसी शायर ने
कहा है-
तारीक़ की नज़रों
ने वो दौर भी देखा है-लम्हो ने खता की थी
सदियों ने सजा
पायी |
गलती लम्हे की
और सजा सदियों की - इसका मतलब है कि सवाल सुरमे का नहीं नज़रों का है |काजल तो सेठ जी भी लगाते हैं
लेकिन उसके कारण उनकी नज़रें तो पाक-साफ़
नहीं हो गयीं ?
सेठ जी के तो
मैं और भी भेद जानता हूँ,सैयद फ़कीर को उनका क्या पता लेकिन बात उसकी सही है |
इसी तरह मुट्ठी
से सरकते रेत् के कणो की तरह जीवन गुज़र
रहा है |
वह इसी तरह की
चीजें सोचता रहता है ,और करे भी क्या ,मंदिर की चौखट हो या खुदा का दरवाजा |ज़िंदा रहने लायक तो मिल ही जाता
है,और ज्यादा की
इच्छा अब है नहीं |एक वो वक़्त था ,जब सुरमे की धार भी थी और शायरी
के आंसू भी |तब मीट और
पुलाव खाते रहने की इच्छा बनी रहती थी |
रात के ग्यारह
बजने वाले थे |साईं सैयद के पैरों
की तरफ से धुंआ उठना शुरू हुआ |असल में सड़क के उस तरफ कपडे वाले बैठते थे,|वे सड़क पर ही थान फैलाये रखते थे |
फ़कीर सैयद का
पेट भरा हुआ था |खाने के बाद
नींद और भी गहरी हो रही थी |अक्टूबर का महीना था ,मौसम सुहावना हो चला था |
आग की लपटें
ऊँची उठ रही थी |रामलीला मैदान
में ऊँची आवाज़ में आरती गाई जा रही थी |
जैसे ही लोगों
की नज़र रामलीला पंडाल के पीछे की तरफ ऊंचे उठते धुंए पर पडी सीढ़ियों पर लेटे लोगों
में भगदड़ मच गयी |
साईं सैयद में
अंदर छिपे नफीस ने उसे भागने से रोक दिया |
उसने खुद से
कहा -बहुत भाग लिया नफीस |कानून तो तूने हाथ में लिया ही है,और वक़्त बीतने से गुनाह ख़त्म नहीं
होता |
जब शबनम के साथ
था तो मज़ा था ,जीने का भी और
खाने का भी |डायरी के वो
पन्ने तो दफ़न हो चुके थे अय्याशी के बिस्तर पर |
अब जीने का
स्वाद नहीं रहा |पांच-दस साल और
भीख मांगने से कुछ भी बेहतर नहीं होगा |
आग नजदीक आ रही
थी लेकिन साईं की बचने में कोई दिलचस्पी नहीं थी |उसने उठने की भी कोशिश न की |
लोग बचने की
आवाज़ लगा रहे थे लेकिन सैयद को लगता था कि सत्तर साल की उम्र हो चली है |न शबनम है न शकील ,एक खुदा है,और खुदा का घर भी |
आग किसी का
लिहाज़ नहीं करती |वह हिन्दू को
भी जलाती है और मुसलमान को भी |वह दीपक भी जलाती है और मशाल भी |
मशाल जुलूस तो
कल चांदनी चौक से निकाला जाना था लेकिन
नफीस ,जिसे अब सब
साईं सैयद के नाम से जानते थे,जिन्दा रहने की इच्छा खो चुका था |
रामलीला कमेटी
के सेक्रेटरी ने फायर ब्रिगेड को फोन किया |लेकिन आग फैल चुकी थी |खुदा का न्याय नफीस का भी लिहाज़ करने के मूड में नहीं था |
वह बेशक हर
जुमे को नमाज़ पढ़ने जाता था लेकिन सीढ़ियों पर फैले कपड़ों के ढेर ने उसे अग्नि के
सुपुर्द कर दिया |वह बेशक एक
मुसलमान था और मुसलमानो को जलाने का रिवाज नहीं है लेकिन खुदा का इंसाफ रिवाजो की
परवाह नहीं करता |कुछ ही देर में
वहां सिर्फ राख का ढेर दिखाई दे रहा था |सीढ़ियां वही थीं पर फ़कीर का कोई पता न था ,साथ ही नफीस का अस्तित्व भी
ख़त्म हो चुका था |सैयद अब सचमुच साईं हो गया था |
मै उसे बहुत दिनों से वहां बैठा देखा करता था |
वह जामा मस्जिद
की सीढ़ियों के नीचे,एक कोने में
बैठा रहता था | उसके हाथ में एक पुरानी ऊनी टोपी थी | उसी को वह भिक्षा पात्र के रूप
में इस्तेमाल करता था |
उसकी अवस्था सत्तर को पार कर गयी थी, फिर भी वह खूब मजबूत दिखाई पड़ता
था |उसका कंठ और
स्वर तेज और गंभीर था |उसकी आवाज़ सुनकर लोग उसे मुड़कर जरूर देखते थे मानो उसकी आवाज़ पर
ध्यान न देना कोई पाप हो |
उसके चेहरे पर थोड़े-बहुत चेचक के दाग थे | उसके मुँह से निकले शब्द "दे दे खुदा की राह पर "
ही सदा सुनाई पड़ते थे, इसके अलावा कोई और शब्द बोलना वह जानता था कि नहीं ,कह नहीं सकता |
उससे किसी को
कभी कोई बात करते मैंने नहीं देखा | लोग उसे बहुधा पैसे देते थे |
पैसा टोपी में
डालने पर उसने किसी को कोई आशीर्वाद दिया हो,ऐसा भी मैंने नहीं सुना , परन्तु उसके चेहरे के भाव, जो अमिट रूप से एक जैसे बने रहते थे , देखकर अनायास ही किसी भी मनुष्य
की उस पर श्रद्धा हो जाती थी|
संभव है ,वह मन ही मन आशीर्वाद देता हो|बहुधा मैंने देखा था, लोग चुपके-से उसके निकट जाते, पैसा उसकी टोपी में डालते और आगे
बढ़ जाते |
कई लोग कहते थे
कि जो लोग सट्टे बाजार के खिलाड़ी हैं,उन्हें वह भाग्यशाली नंबर .बताता था |कुछ लोग तो लाटरी का शुभ न.भी
उससे पूछते थे |
उन नम्बरों के
टिकटों पर कोई बड़ा इनाम निकला या नहीं निकला ,कह नहीं सकता |
इसके बारे में
कुछ कहना अंदाज़े के अलावा कुछ नहीं है |
मेरी दुकान चावड़ी
बाजार में थी|
आपको शायद लग
रहा होगा कि मैं कोई बड़ा व्यसायी हूँ जिसका कागज़ आदि का बिजनेस है लेकिन ऐसा नहीं
है |आपकी ग़लतफ़हमी
दूर करना मेरा नैतिक कर्तव्य है |
असल में उस
भिखारी की वास्तविकता के इर्द-गिर्द एक रहस्यमय आवरण लिपटा हुआ था |
मैं पूछना
चाहता था कि वह कहाँ का था |उसकी बीवी ज़िंदा है या नहीं ?भिखारी बनने से पहले वह क्या करता था आदि प्रश्न मेरा ध्यान लगातार
उसकी तरफ खींचते थे |
मैंने यह भी
सुना था कि जासूसी संस्थाओं के लोग इस तरह के वेश बनाकर आने-जाने वालों पर नज़र
रखते हैं |
इस आकर्षण का
एक बड़ा कारण यह भी था कि वह शक्ल से भिखारी लगता नहीं था क्यूंकि वह कोई ऐसी आवाज़
नहीं लगाता था कि आने-जाने वाले लोग उसकी तरफ आकर्षित हों और उसकी टोपी में कुछ
पैसे डालें |
चावड़ी बाजार
में कागज़ की बड़ी दुकाने हैं जिनमें लाखों रुपयों का कारोबार होता है और मेरे जैसे
लोगों का गुजारा चलता है |मैं कागज़ की बड़ी गांठें गोदाम के बाहर निकालकर दुकान तक पहुंचाने
का काम करता हूँ |
शाम को घर की
तरफ निकलता हूँ तो बेहद थक जाता हूँ |
अख़बार पढ़ने का
मुझे बहुत शौक है |सेठ जी अक्सर
ही व्यंग्य से कहते हैं कि- अबे ,अगर स्कूल की किताबों में भी इतनी दिलचस्पी तेरी रही होती तो दुकान
में मजदूरी न करनी पड़ती |
मैं उनसे कभी
नहीं बताता कि पढ़ने में मेरी पूरी दिलचस्पी थी लेकिन मेरे जैसे मजदूरों की औलादों
का कोई भविष्य नहीं होता |पेट भर खाना रोज मिल जाए तो भी गनीमत है |
किसी से यह बात
बताने का कोई फायदा नहीं है इसलिए ऐसे समय मैं अख़बार एक तरफ रखकर दुकान के किसी
काम में लग जाता हूँ |
सत्य तो यह है
कि बचपन में बात सुनी थी कि पढोगे -लिखोगे तो बनोगे नवाब,खेलोगे -कूदोगे तो बनोगे खराब |
यह दूसरी बात
है कि पढ़ने -लिखने से कोई वाजिद अली शाह की तरह नवाब नहीं बन जाता बल्कि किस्मत से
ही कोई इंसान नवाब बन सकता है |
वाजिद अली शाह
इसलिए नवाब बने क्यूंकि उनके अब्बा नवाब थे |
राहुल गाँधी
हिम्मत से कह सकते हैं कि मैं किसी राजा से डरता नहीं हूँ लेकिन संविधान की दृष्टि
में बराबर होने के बावजूद कोई और यह कहने की हिमाक़त नहीं कर सकता और अगर कोई कहे
भी तो लोग उसे पागल ही कहेंगे |
मेरे कहने का
तात्पर्य यह है कि नवाब जैसी ज़िंदगी बशर करने के लिए पढ़े-लिखे होना बिलकुल भी
जरूरी नहीं है बल्कि जरूरी है कि खुदा उसे किसी नवाब की औलाद के रूप में जन्म दे |
सुबह और शाम उस मुसलमान भिखारी के दर्शन
होते हैं और मैं सोचता हूँ कि यह बचपन से ही तो भिखारी नहीं रहा होगा |उसके माता-पिता ने भी उसके जन्म
पर ख़ुशी मनाई होगी ,उसके साथ कुछ
सपने जोड़े होंगे |जवानी के दिनों
में इस भिखारी के भी कुछ सपने रहे होंगे |
सत्तर साल की
उम्र में जामा मस्जिद के इलाके में भीख मांगने के सपने तो शायद ही कोई देखता हो | मैं जानना चाहता था कि वह कहाँ का
है,उसके साथ
कौन-कौन लोग रहते हैं ?सरकार से उसकी उम्मीदें क्या-क्या हैं तथा इस उम्र में उसके सपने
क्या-क्या हैं ?
अगर मैं किसी
अख़बार का पत्रकार रहा होता तो हो सकता है कि मैं ऐसे लोगों की पीड़ा के बारे में
लिखता और मामले को किसी समाधान तक पहुँचाने की कोशिश करता |
वहाँ से आगे
निकलते ही मैं बस के बारे में सोचने लगता कि क्या बैठने की सीट मिलेगी क्यूंकि
शरीर जवाब दे रहा होता था |
अखबार में मैं
अपने जैसे लोगों की पीड़ा पढ़ना चाहता था लेकिन वहां बड़े-बड़े आदमियों की बातें लिखी
होती थीं कि किस मीटिंग में किसने क्या कहा |
ऐसी गर्मी के
मौसम में भी बड़े-बड़े लोगों को अलग-अलग रंगों की,बंद गले की जाकेट पहने देखकर मेरे
मन में सवाल पैदा होता है कि क्या इन्हें गर्मी नहीं लगती ?
एक बार मैंने
यह बात सेठ जी से पूछी तो उन्होंने कहा-अबे,इतना मत सोचा कर ,गर्मी तो सबको लगती है लेकिन फैशन भी तो कुछ जरूरी फैक्टर होता है |
सब तेरी तरह
लेबर थोड़े ही होते हैं |चल गोदाम की तरफ चल उसकी सफाई कर |
अख़बार में फ़िल्मी हीरोइनों की फोटो छपी होती थी | उस पन्ने को पढ़ने की बहुत इच्छा
होती थी लेकिन वो पन्ना सेठ जी दबा लेते थे |
आज उस फ़कीर को
देखकर मुझे किसी पीर की याद आ गयी |
फ़कीर हमेशा की तरह फटेहाल था
लेकिन खुश था जबकि रोज उसके चेहरे पर
मायूसी छाई रहती थी |
पीर हमेशा मुस्कुराते ही रहते हैं चूंकि रोटी की चिंता
उन्हें नहीं करनी पड़ती |उन्हें तो किसी भी चीज की चिंता नहीं करनी पड़ती |
माँ से एक बार
मैंने फकीरों की ख़ुशी के कारण के बारे में पूछा तो उसने बताया कि फ़कीर लोग असल में
खुदा के बन्दे होते हैं |
मैंने पूछा -हम
भी तो उसी खुदा के बन्दे हैं |क्यों अम्मा ?
हम गुनहगार
बन्दे हैं जबकि फकीरों की रूह पाक होती है |
उन दिनों एक
बड़े फ़कीर को गिरफ्तार किया गया था चूंकि उसके डेरे पर एक औरत की मौत हो गयी थी |
क्या गिरफ़्तारी
के बाद भी फ़क़ीर की रूह पाक रही होगी मैंने अम्मा से पूछा लेकिन अम्मा ने उस सवाल को ठन्डे बस्ते में खिसका
दिया था |
xxx-
मैंने एक
धार्मिक किताब में पढ़ा है कि किसी फ़कीर को भीख में रात को दो रोटी से ज्यादा मिल
गयी तो उसकी बीवी बहुत खुश हुई कि सुबह का इंतज़ाम हो गया लेकिन फ़कीर से उसकी ख़ुशी
देखी न गयी और उसने दोनों रोटियां कुत्तों को खिला दी |
लेकिन मेरी नज़र
में यह कोई समझदारी नहीं है |रूह पाक रखने का यह तरीका समझदारी भरा नहीं है,मेरा ख्याल है |
कबीर दास जी
भी कहते थे-
साईं इतना
दीजिए जामे कुटुंब समाय -
मैं भी भूखा न
रहूँ साधु भी भूखा न जाय |
अच्छे गृहस्थ
की यह निशानी है कि परिवार के साथ मेहमान का भी ख्याल करे |इतना संग्रह तो फ़कीर को भी अलाउ होना चाहिए |यह लोकतंत्र का ज़माना है |
कबीर दास जी ने
इससे ज्यादा संग्रह की इच्छा नहीं रखी जबकि लोकतंत्र के मान्यता प्राप्त रखवाले
अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए एक -एक जनप्रतिनिधि को कई-कई करोड़ में खरीदते हैं और इस प्रकार सत्ता का संग्रह करते हैं |
इस हिसाब से
कबीर दास जी व्यवहारिक फ़कीर नज़र आते हैं जबकि वे उस तरह के फ़कीर नहीं थे कि-आयी
मौज फ़कीर की,दिया झोंपड़ा
फूँक |
इस प्रकार सैयद
फ़कीर भी झोंपड़ा फूंक डालने वाला फ़कीर तो
नहीं था | लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान और उसकी आँखों की बेपरवाही उसे आम लोगों
से अलग कतार में खड़ा कर देती थी |
एक बार उसे सड़क
पर बहुत सारे रूपये नज़र आये लेकिन उसने उन्हें उठाया नहीं |वह उन्हें अपलक देखता रहा |उतनी देर में पीछे से आने वाले
राहगीर ने वे रूपये उठाये और उन्हें जेब के हवाले करके ऐसे चला गया,जैसे कुछ हुआ ही न हो |
सैयद फ़कीर से
जब रुपयों के बारे में, बाद में ढूंढने आये उन रुपयों के मालिकों ने पूछा तो उसने कह दिया
कि रूपये यहीं गिरे पड़े थे |
उन्होंने उससे
पूछा और लालच दिया कि तुम अगर बता दो कि रूपये कौन ले गया है तो हम तुम्हें कई
हज़ार रूपये दे सकते हैं लेकिन इस लालच का उस पर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा और उसने
कहा-जो रूपये ले गया है ,उसकी शक्ल तक भी मैंने कभी नहीं देखी |लोगों ने उससे पूछा कि उसकी शक्ल
क्यों नहीं देखी तो उसने मासूमियत से कहा क्यूंकि मेरी निगाह तो रुपयों पर थी |
फिर तुमने
रूपये लिये क्यों नहीं तो वह बोला -कैसे लेता ,रूपये मेरे थे ही नहीं |
उसकी यह बात
सुनकर रुपयों के मालिकों ने सोच लिया कि सैयद फ़कीर तो बिलकुल पागल है |
मेरी नज़र में
यह पागलपन नहीं था बल्कि उसकी सच्चाई थी |उसे खुदा का डर भी था कि
यदि उसने किसी और के पैसे पर कब्ज़ा किया तो नतीजा बुरा होगा |
किसी और के
पैसे को हथियाने से बेहतर है कि अपने मुकद्दर के चमकने की इंतज़ार की जाए |
उसे खुदा की
मेहरबानी पर पूरा भरोसा था |उसी की वजह से वह मुझे पीर या फ़कीर लगता था |हालांकि अगर मुझे इतने सारे पैसे
सामने पड़े दीखते तो मैं खुद उस पैसे को कभी नहीं छोड़ता क्यूंकि मुझे मुकद्दर की
बजाय कर्म पर अधिक भरोसा है |
इसके बावजूद
मेरी नज़र में सैयद फ़कीर गलत नहीं था |
मुझे यह भी
लगता था कि गाज़ियाबाद में जी टी रोड पर जो छोटी सी दरगाह है,उसे वहां गद्दीनशीन हो जाना चाहिए
|
वहाँ उसे खाने
-पहनने की कोई दिक्कत नहीं रही होती बल्कि मुझ जैसे छोटे लोगों का भी इंतज़ाम हो
सकता है लेकिन जो सामने पड़े नोटों को भी अपनी जेब के हवाले न करे उससे क्या उम्मीद
की जा सकती है |
अगले दिन जब
सैयद फ़कीर वहां आया तो उसके लक्षण बदले हुए थे |असल में आज उसका कुर्ता बेहद चमक
रहा था |उसके रोज वाले
कुर्ते की तुलना में आज का कुरता देखकर मुझे लगा कि आज सूरज जैसे पश्चिम से निकला
है |
आज उसकी आँखों
में सुरमे जैसा भी कुछ लगा हुआ था |
मुझे नसीर की
याद आ गयी ,वह मुज़फ्फरनगर
में मेरे साथ पढता था |जिस दिन उसका निकाह था ,तो उसकी आँखों में काजल लगाया गया |
काजल के साथ वह
कुछ अजीब सा प्राणी लग रहा था |फ़कीर सैयद भी आज कुछ अजीब लग रहा था |
मैंने उसे छेड़ा
तो वह खुल गया जबकि आज से पहले मैंने उसका एक ही संवाद सुना था -देदे खुदा की राह
में |
असल में उसका
दर्द बहुत गहरा था |नसीर की तरह
उसका भी निकाह हुआ था |उसकी बीवी शबनम बेहद खूबसूरत थी |
उस ज़माने में
औरतें सुरमे का बहुत सुन्दर इस्तेमाल करती थीं |काइयाँ से काइयाँ शौहर या आशिक़ भी
सुरमे की धार से बच न पाता था |
तब उसका नाम
सैयद फ़कीर न था बल्कि नफीस था ,नफीस अहमद |
नफीस का अर्थ
है -औरों से हटकर और गुणों में अनूठा |नफीस शौहर को पाकर शबनम बहुत खुश थी |
नफीस नाम का ही
नफीस नहीं था बल्कि उसका काम करने का ढंग भी अलग था |
शहर के परले
सिरे से भी पेर्सनलिटी निखारने के लिए लोग नफीस की दुकान पर ही आते थे |
दरअसल
दुकान तो नफीस के बड़े भाई की थी लेकिन
कारीगर तो नफीस था |जब उसे वक़्त
मिलता उसके दिमाग में शेर-ओ-शायरी भी गूंजने लगती था और वह शेर कहने लगता था |
उसकी कुर्सी पर
बैठा शख्स अगर उसे बीच में टोक देता तो वह आपे से बाहर हो जाता |शकील ,जो कि उसका बड़ा भाई था और दुकान
का मालिक भी ,ने उसे लाख
समझाता और उसे उबलते देखकर ठन्डे स्वर में
बोलता कि- ठण्ड रख ---ठण्ड रख |
इस तरह शकील
उसके गुस्से पर पानी के छींटे मारता था और इस तरह नफीस को कण्ट्रोल में रखता था |
शकील की दो
बीवियाँ थीं |
नफीस शायर था
तो रोशन दिमाग भी था |वह शकील को कभी भी तेज आवाज़ में कुछ नहीं कहता था क्यूंकि शकील
उससे पांच साल बड़ा था |
xxx-
शबनम उसे बहुत
प्यार करती थी और नफीस भी उसे |
इस तरह
घर-संसार बढ़िया चल रहा था |नफीस अपने दोस्तों में अक्सर कहा करता था कि उसकी बीवी उसका इतना
ख्याल रखती है कि उसे अपने हाथ से खुजलाने तक नहीं देती |उसे घर में कुछ करने नहीं देती |
घर में सब्जी
तक रोज उससे पूछकर बनायीं जाती थी |
अगर कभी बताई
गयी से अलग सब्जी बने |बताई गयी सब्जी नहीं भी बने तो जो सब्जी बनेगी वह बताई गयी सब्जी से ज्यादा स्वादिष्ट होगी या वह होगी
जो नफीस को और भी ज्यादा पसंद होगी |जैसे नफीस को मीट का पुलाव सबसे ज्यादा पसंद था ,साथ ही कढ़ी और चावल तो उससे भी
ज्यादा पसंद थे |
अगर नफीस ने
कढ़ी -चावल बनाने को कहा और शबनम ने उन्हें नहीं बनाया तो नफीस ने देखा कि थाली में
मीट का पुलाव डाला गया है |इस तरह शबनम नफीस की नाराज़गी का आधार ही ख़त्म कर देती थी |
शबनम उससे बेवफाई करेगी,इसका नफीस को रत्ती भर भी अंदाज़ा
नहीं था लेकिन एक दिन नफीस ने देखा कि शबनम भाई जान की कुछ ज्यादा ही तारीफ कर रही
है |
शकील की तारीफ
वह भी करता था लेकिन उसका मुख्य कारण उसकी दुकान थी जो कि मेन मार्किट में थी |
दुकान खूब चलती
थी |चलने का मुख्य
कारण तो नफीस का हुनर था लेकिन अगर दुकान मेन
मार्किट में न होती तो नफीस के हुनर की क्या वैल्यू रह जाती लेकिन शबनम के
मुँह से शकील की तारीफ़ उसके कलेजे में भाले की तरह चुभ रही थी |उसकी आँखों में लगे सुरमे की धार
आज उसे ही घायल कर रही थी |वह बेहद उबल रहा था लेकिन आज कुछ बोलना ठीक न था |
उसके मन में आ रहा था कि शकील से अलग रहकर दुकान
खोली जाये |
लेकिन अलग
दुकान लेना और चलाना क्या आसान है ?मार्किट में दुकानों के किराये सुनकर ऐसा लगता था जैसे किसी ने
लोहे के चने चबाने का कम्पटीशन ओर्गनइज़ कर रखा हो |
अलग दुकान
खोलने की बात सोची तो जा सकती थी लेकिन उस सपने को ज़मीन पर उतारना आसान न था |अब उसे शकील से नफरत होने लगी थी |घर में मियां-बीवी के झगडे तो आम
होते हैं |रसोई में इतने
बर्तन होते हैं तो उनकी आवाज़ तो होती ही है |इतना तो कोई भी समझ सकता है लेकिन जुमेरात की सवेरे नफीस ने
बेस्वाद खाने की बात कही तो शबनम ने कह दिया कि इतनी आमदनी में तो इतना ही स्वाद
आएगा |मैं इससे बढ़िया
सब्जी नहीं बना सकती |अगर इससे बढ़िया सब्जी चाहिए तो होटल से मंगवा लो |
शकील ने
तनख्वाह अभी दी नहीं थी इसलिए नफीस ने सुना -अनसुना करने की कोशिश की |
वह चुप रहा
लेकिन शकील बोला-अरे भाई ,शायरी थोड़ी कम किया कर |कुछ दिनों से तुम्हारा ध्यान काम में कम लगता है |
यह सुनकर जैसे
नफीस ने आपा खो दिया |वह बोला-शायरी करना जानवरों का काम नहीं है |
शायरी भी एक
हुनर है और पर्सनालिटी डेवेलप करना भी |
मालिक के फज़ल
से मुझे दो-दो हुनर मिले हैं |
नफीस ,इतना घमंड मत कर ,खुदा से डर |
यह तुम कह रहे
हो,जिसने सगे चाचा
की बेटी को भी नहीं बख्शा और उस लाचार लड़की को अपनी बेगम बना लिया |
शकील
चिल्लाया-अब और कुछ मत बोलना ,नहीं तो अच्छा नहीं होगा |
नफीस की कम
बोलने की आदत थी लेकिन शबनम और शकील के गठजोड़ ने जैसे उसे पागल कर दिया |
वह बोला-खुदा
से कुछ नहीं छिपाया जा सकता |उसे अच्छी तरह मालूम है कि किस तरह तुमने आयशा से निकाह किया |उसकी मजबूरी का फायदा उठाया |
दुकान सिर्फ
तुम्हारी नहीं है ,उसमें मेरा बराबर
का हिस्सा होना चाहिए लेकिन तुम मुझे कारीगर की तरह सिर्फ तनख्वाह देते हो |जबकि मैं उसमें दिन -रात खटता हूँ
|
यह कहकर वह
बाहर निकल गया |वह पढ़ा -लिखा
था ,समझदार था |उसे लगा कि-आज कुछ ज्यादा ही बोल
गया |शकील ने अगर
उसे दुकान से अलग कर दिया तो खाना उतना भी स्वादिष्ट नहीं मिलेगा जितना कि अभी मिल
रहा है |
यह शकील;को भी पता था कि नफीस जैसा काम
शहर का एक नाई भी नहीं जानता लेकिन सुल्ताना और आयशा अब पुरानी हो चुकी थी इसलिए
उसकी नीयत शबनम पर आ गयी थी |
शबनम का नया
जोड़ा जब से उसने बनवाया ,आधी फतह तो जैसे हो ही गयी |
शबनम भाईजान का
इतना गुणगान करती कि नफीस को लगने लगा कि यदि दुकान अलग न की तो अपनी घरवाली को भी
गंवा बैठेगा |धीमी
काम को भी एक
अग्नि माना गया है |बड़े-बड़े तपस्वी
तक काम की अग्नि में झुलसते हुए देखे गये हैं |इस्लाम में जो जन्नत की कल्पना है
उसमें हमेशा जवान रहने वाली परियों की कल्पना है |शबनम भी परी से कम तो न थी लेकिन
जैसे - जैसे उसकी आदत में बेवफाई शामिल हो रही थी उसकी खूबसूरती धीमी हो रही थी |
नफीस को शबनम
की बातों का भरोसा नहीं रहा था |रहते तो अब भी वे साथ थे लेकिन घर,भीतर से जो पहले हरा भरा गुलशन था
अब जैसे काँटों से भरा ,उजड़ा हुआ चमन था |
चारदीवारी तो
वही थी ,मोहल्ला भी वही
था लेकिन अब उसमें वह बात नहीं बची थी |
अभी वह अलग दुकान की कोई बेहतर स्कीम सोच पाता जैसे जलजला आ गया |
नफीस को वह
सीढ़ियों से उतरती दिखाई दी |उसके पीछे-पीछे शकील भी आ रहा था |
यह देखकर नफीस
के क्रोध की सीमा न रही |अब शकील के लिए उसके मन में जरा भी इज्जत न रही |उसे ख्याल आ गया कि जब वह पढता था,रोज रात को रमेश के साथ रामलीला
देखने जाया करता था |उस में एक प्रसंग बालि का भी था |
बालि सुग्रीव
का बड़ा भाई था लेकिन उसने अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी तारा को हथिया लिया
था |भगवान राम ने बालि को कहा कि छोटे भाई की पत्नी -पुत्रवधु,छोटे भाई की पत्नी और छोटी बहन के
बराबर होती है ,जिसे तुमने
अपने घर में रख लिया है इसलिए तुम्हें मारने में पाप नहीं लगेगा |तुम्हें मारने में शर्म की कोई
बात नहीं है |
नफीस ने दसवीं
तक ठीक-ठाक पढाई की थी और हिन्दू धर्म की भी उसे ठीक-ठाक समझ थी |रामलीला देखने का तो उसे बचपन से
ही शौक था |
हालांकि वह
मंदिर कभी नहीं जाता था |हर जुमे की नमाज पढ़ने वह मस्जिद जरूर जाता था |वह सच्चा मुसलमान था क्यूंकि खुदा
का डर उसे था |
वह बोला-बड़े
भाई आज आपने अपना बड़प्पन खो दिया |अरे तुम्हारी दो बीवियां हैं फिर भी तुम्हारी नज़र मेरी बीवी पर
मैली है |
खुदाई कहर तुम
पर जरूर टूटेगा क्यूंकि तुमने अपने छोटे भाई की बीवी को भी नहीं बख्शा |कल को तो तुम औलाद की बीवी को भी
नहीं बख्शोगे ?तुम्हें इस
बारे में क्या सफाई देनी है |
जिनके बाजुओं
में दम होता है वे सफाई नहीं देते बल्कि ज़िंदगी के मज़े लेते हैं |
सफाई की इच्छा
रखना और उस पर यकीन करना तो तुम्हारे जैसे नामर्दों का काम है |
शकील ने यह बात
इतनी ऊंची आवाज़ में कही कि नफीस ने लाठी उठा ली और सीधे उसके सिर पर वार किया |
नफीस के सिर पर
जैसे खून सवार था |पीछे से आ रही
शबनम को देखकर उसे लगा कि इसे भी छोड़ना ठीक नहीं |लाठी उसके हाथ में थी ही |उसने भरपूर वार किया |
लेकिन वह साइड
से बचकर निकलने लगी इसलिए लाठी सिर की बजाय
सीधे कंधे पर पडी और वह नीचे गिर गयी |इसके साथ ही नफीस घर से बाहर निकल
गया |
कई साल गायब
रहने के बाद वह जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर आकर बैठने लगा |वह भूल ही गया कि वह दिल्ली का
नहीं है बल्कि मुज़फ्फरनगर का है |इसका मतलब है कि पुलिस क्व रिकार्ड्स में उसके खिलाफ कुछ ख़ास न था |वह चाहता तो मुज़फ्फरनगर जा सकता
था लेकिन वहां के लिए उसके मन में कशिश न थी |अब तो जमा मस्जिद की वे सीढ़ियां
ही उसका मुस्तकिल डेरा थीं क्यूंकि एक खुदा ही किसी को देशनिकाला नहीं देता |हम सब उसके बच्चे-बच्चियां हैं |इस तरह जब वह सोचता तो न शबनम के
लिए गिला रहता था और न शकील के लिए शिकवा |
धीरे -धीरे वह
भूल गया कि उसकी एक बीवी थी जो उसके बड़े भाई से लगी थी और उसका बड़ा भाई किसी से न
डरता था |
जो जन्मा है एक
दिन मरेगा भी |उसने खुद से
कहा-शकील को तो अय्याशी निबटायेगी ,शबनम को उसकी मौज-मस्ती और नफीस को खुदा क्यूंकि लाठी तो उसी ने
मारी थी |
उसकी
अन्यारात्मा ने कहा-किसी को सजा या इन्साफ देना इंसान का काम नहीं है ,हुकूमत का काम है या फिर खुदा का
काम है |
दो दिन बाद
नफीस को अपने किये पर कटाई पछतावा नहीं था क्यूंकि शकील भी अपराधी था और शबनम भी
इसलिए अपराधियों को मारने से कोई गुनाह
नहीं लगता |
लड़ाइयां होती
रही हैं और लोग मरते रहे हैं इसलिए मेरा अपराध बहुत बड़ा नहीं है |सैयद फ़कीर ने यह बात कही और चैन की
नींद सो गया |
लेकिन जल्दी ही
उसकी नींद खुल गयी |उसके कान में आ
रहा शोर बहुत ज्यादा था |
लेकिन आस -पास
लेटे लोग आराम से सो रहे थे |अगर शोरोगुल रहा होता तो ये लोग चैन से कैसे सो रहे होते ?सैयद ने सोचा |
यह सपना भी
नहीं था क्यूंकि पीछे की मस्जिद ज्यूँ की त्यूं खड़ी थी और धुंए की बू भी नाक में
घुस रही थी |
चौकीदार रोज की
तरह घूम रहा था |उसकी सीटी की
आवाज़ खूब साफ़ सुन रही थी |इसका मतलब यह था कि शोर सपने का नहीं था ,ख्यालों का था,बल्कि असली था |
नफीस घर और घर
के लोगों को तो बहुत पीछे छोड़ आया था लेकिन पीछे छोड़ने के बावजूद उसका अपराध ख़त्म
न हुआ था |
सैयद फ़कीर उठ
गया |उसने नल पर
मुँह-हाथ धोया और डायरी में नज़्म लिखने लगा |
वह समझ गया कि
जिसे सुनकर वह सो नहीं सका वह शोर बाहर का नहीं,
था |
वह शोर उसके दिल-ओ-दिमाग
में भरा हुआ था |
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सुबह -सुबह वह
नींद से उठा |उसने देखा सब
कुछ सामान्य था | लोगों के चेहरों पर अशांति के कोई चिन्ह नहीं थे |बच्चे रोज की तरह स्कूल जा रहे थे
|शमशुद्दीन रोज
की तरह खबरें सुन रहा था |
महमूद उसी तरह
झख मार रहा था |रशीद रोज की
तरह बेपरकी खबरें उड़ा रहा था |अशांति बिलकुल नहीं थी |लाला गयाप्रसाद की दुकान पर पड़े अख़बार में भी दंगे-फसाद की कोई खबर
नहीं थी |
इक़बाल ने सैयद
से कहा -यह सुरमे का क्या जुग़राफ़िया है साईं ?
बोला -क्या
फर्क पड़ता हैं साईं |आँखें हैं तो दीखता है,आँखों के बिना सुरमा किस काम का ?मालिक का शुकर है कि मुझे आँखें
दी हैं |सेठ जी को भी
आँखें दी हैं |ज्यादा लोगों
को आँखें मिली हुई हैं लेकिन सब लोग एक जैसा कहाँ देखते हैं |
यह लड़की जो
दुकान में बिल बनाती है,सेठ जी की औलाद के बराबर है लेकिन सेठ जी उसके सामने भी भद्दे मज़ाक
करते रहते हैं |ऐसे मज़ाक अपनी
औलाद के सामने तो कभी नहीं कर सकते |इसका मतलब है कि डिंपल को देखते समय उनकी नज़रें उतनी साफ़ नहीं
होतीं |मैली नज़र ,देखने वाले के लिए भारी हमेशा
रहने वाली हैं |
किसी शायर ने
कहा है-
तारीक़ की नज़रों
ने वो दौर भी देखा है-लम्हो ने खता की थी
सदियों ने सजा
पायी |
गलती लम्हे की
और सजा सदियों की - इसका मतलब है कि सवाल सुरमे का नहीं नज़रों का है |काजल तो सेठ जी भी लगाते हैं
लेकिन उसके कारण उनकी नज़रें तो पाक-साफ़
नहीं हो गयीं ?
सेठ जी के तो
मैं और भी भेद जानता हूँ,सैयद फ़कीर को उनका क्या पता लेकिन बात उसकी सही है |
इसी तरह मुट्ठी
से सरकते रेत् के कणो की तरह जीवन गुज़र
रहा है |
वह इसी तरह की
चीजें सोचता रहता है ,और करे भी क्या ,मंदिर की चौखट हो या खुदा का दरवाजा |ज़िंदा रहने लायक तो मिल ही जाता
है,और ज्यादा की
इच्छा अब है नहीं |एक वो वक़्त था ,जब सुरमे की धार भी थी और शायरी
के आंसू भी |तब मीट और
पुलाव खाते रहने की इच्छा बनी रहती थी |
रात के ग्यारह
बजने वाले थे |साईं सैयद के पैरों
की तरफ से धुंआ उठना शुरू हुआ |असल में सड़क के उस तरफ कपडे वाले बैठते थे,|वे सड़क पर ही थान फैलाये रखते थे |
फ़कीर सैयद का
पेट भरा हुआ था |खाने के बाद
नींद और भी गहरी हो रही थी |अक्टूबर का महीना था ,मौसम सुहावना हो चला था |
आग की लपटें
ऊँची उठ रही थी |रामलीला मैदान
में ऊँची आवाज़ में आरती गाई जा रही थी |
जैसे ही लोगों
की नज़र रामलीला पंडाल के पीछे की तरफ ऊंचे उठते धुंए पर पडी सीढ़ियों पर लेटे लोगों
में भगदड़ मच गयी |
साईं सैयद में
अंदर छिपे नफीस ने उसे भागने से रोक दिया |
उसने खुद से
कहा -बहुत भाग लिया नफीस |कानून तो तूने हाथ में लिया ही है,और वक़्त बीतने से गुनाह ख़त्म नहीं
होता |
जब शबनम के साथ
था तो मज़ा था ,जीने का भी और
खाने का भी |डायरी के वो
पन्ने तो दफ़न हो चुके थे अय्याशी के बिस्तर पर |
अब जीने का
स्वाद नहीं रहा |पांच-दस साल और
भीख मांगने से कुछ भी बेहतर नहीं होगा |
आग नजदीक आ रही
थी लेकिन साईं की बचने में कोई दिलचस्पी नहीं थी |उसने उठने की भी कोशिश न की |
लोग बचने की
आवाज़ लगा रहे थे लेकिन सैयद को लगता था कि सत्तर साल की उम्र हो चली है |न शबनम है न शकील ,एक खुदा है,और खुदा का घर भी |
आग किसी का
लिहाज़ नहीं करती |वह हिन्दू को
भी जलाती है और मुसलमान को भी |वह दीपक भी जलाती है और मशाल भी |
मशाल जुलूस तो
कल चांदनी चौक से निकाला जाना था लेकिन
नफीस ,जिसे अब सब
साईं सैयद के नाम से जानते थे,जिन्दा रहने की इच्छा खो चुका था |
रामलीला कमेटी
के सेक्रेटरी ने फायर ब्रिगेड को फोन किया |लेकिन आग फैल चुकी थी |खुदा का न्याय नफीस का भी लिहाज़ करने के मूड में नहीं था |
वह बेशक हर
जुमे को नमाज़ पढ़ने जाता था लेकिन सीढ़ियों पर फैले कपड़ों के ढेर ने उसे अग्नि के
सुपुर्द कर दिया |वह बेशक एक
मुसलमान था और मुसलमानो को जलाने का रिवाज नहीं है लेकिन खुदा का इंसाफ रिवाजो की
परवाह नहीं करता |कुछ ही देर में
वहां सिर्फ राख का ढेर दिखाई दे रहा था |सीढ़ियां वही थीं पर फ़कीर का कोई पता न था ,साथ ही नफीस का अस्तित्व भी
ख़त्म हो चुका था |सैयद अब सचमुच साईं हो गया था |
- रामकुमार 'सेवक'