हर वो चीज और हर वो कारण जो हमें सत्य से, सत्संग से और गुरु से दूर ले जाये, वो माया हुआ करती है - निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी

निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी का सन्देश बहुत स्पष्ट था -उसका सार था-प्रेम और विश्व शांति |बाबा जी का विज़न बहुत बड़ा था |बेशक सत्संग समारोह तो एक शहर विशेष ने ही आयोजित होता था लेकिन सन्देश सदा उतना ही बड़ा और उतना ही महत्वपूर्ण रहता था |

बाबा जी परस्पर प्रेम और सदभाव हर परिस्थिति में देखना चाहते थे | वे वास्तव में सत्य के संदेशवाहक थे |तभी उनका कार्यक्षेत्र भी सत्संग ही था |सत्संग में जीवन जीने की कला सिखाते थे |उनके हर प्रवचन में ये शिक्षाएं निहित होती थीं |

वर्ष 2015 में बुराड़ी रोड पर स्थित ग्राउंड न.8 में उन्होंने हज़ारों के जनसमूह को सम्बोधित करते हुए कहा- 

सत्संग से जो हमें खुराक मिलती है,ये हमारे जीवन को मजबूती प्रदान करती है |

एक तो वो खुराक होती है ,जो हमारे शरीर को तंदुरुस्ती प्रदान करती है,दूसरी वो खुराक होती है,जिससे हमारे शरीर को कमजोरी भी मिलती है और अनेकों प्रकार के रोग भी शरीर को लग जाते हैं |

सत्संग में हमें वो खुराक मिलती है|

जो हमारे मन को मजबूती देती है,हमारे मन को सुंदरता प्रदान करती है,ऐसी संगति हमेशा से ही कल्याणकारी मानी गयी है |ऐसों का संग ही वरदान माना गया है |

युग-युग से संतों-महात्माओं ने ऐसी संगत करने के लिए ये प्रेरणाएं दी हैं |

आप भी इस सत्संग रूपी पहलू को जीवन में विशेषता देते हैं |इसीलिए अपने कदमो को इस तरफ बढ़ाते हैं |जहाँ भी सत्य की आवाज़ सुनाई देती है,संतों-महापुरुषों के कदम बढ़ने लगते हैं |

सत्संग ही सुख धाम 

ऐसे सुख धाम में,जिसे सुख धाम कहा गया है,जहाँ हम जीवन की घड़ियाँ बिताते हैं,वही घड़ियाँ हमें सबसे सुन्दर महसूस होती हैं |ये सुकून और चैन प्रदान करने वाली घड़ियाँ ,आनंद प्रदान करने वाली घड़ियाँ |

सत्संग से जो हमें सीखने को मिलता है,जब उसे साथ लेकर जाते हैं तो फिर वे सुकून और चैन वाली घड़ियाँ और लम्बी हो जाती हैं |

अगर उन्हें साथ लेकर नहीं जाते तो फिर वो आनन्द   की घड़ियाँ सीमित रह जाती हैं |इसी लिए महापुरुष-संतजन जो सुनते हैं,उसको कमाते हैं |ध्यान से सुनना अर्थात कमाई करना -

सुनकर कमाई करने का अर्थ 

इसका तात्पर्य यह है कि सिर्फ कान रस नहीं है |सुनकर कमाई करने का मतलब यह है कि जो सुना है,उसका इस्तेमाल किया गया है |उसको invest (निवेश )किया गया है | प्रेम का यहाँ जिक्र हो रहा है,महापुरुष भक्ति का जिक्र कर रहे हैं,वाकई भक्ति प्रेमपूर्वक की जाती है |

प्रेम के बिना भक्ति निरर्थक 

जिसको हम भक्ति कह रहे हैं,प्रेम के बिना उसका कोई अर्थ नहीं | प्रेम को एक तरफ रखकर भक्ति,भक्ति रहती ही नहीं है |इसीलिए प्रेमा भक्ति शब्द का इस्तेमाल जब हम करते हैं ,उसके पीछे भाव यही है -प्रेम सहित की गयी भक्ति ,भाव सहित की गयी भक्ति |वही वास्तव में मालिक ,प्रभु परमात्मा को कबूल होती है |उसे ही महत्ता प्राप्त होती है |

अगर प्रेम नहीं है तो भक्ति भी नहीं हो पाती है |

वह भक्ति कहलाती भी नहीं है |इसलिए प्रेम भाव का होना जरूरी है |प्रेम भाव का होना जरूरी केवल प्रेम के लिए ,किसी कामना के लिए नहीं |जैसे कहा है-

बेग़र्ज़ जिन्हां दी उल्फत ए वो नमाज दी कीमत नहीं मंगदे |    

 बेग़र्ज़ उल्फत अर्थात निःस्वार्थ प्रीत |निःस्वार्थ जिनका प्रेम है ,वे नमाज की कीमत नहीं मांगते हैं अर्थात भक्ति निष्काम भाव से की जाती है |प्रेम क्यूंकि भक्ति का अति महत्वपूर्ण अंग है,तो प्रेम भी निष्काम भाव से किया जाता है |वे सेवा किये हुए की कीमत नहीं मांगते हैं |वो किये हुए सत्संग की कीमत (सांसारिक दृष्टि से )नहीं मांगते हैं |वो किये हुए सुमिरन की कीमत नहीं मांगते हैं | 

वहाँ केवल करना होता है |वहां केवल समर्पण करना होता है |वहां केवल प्रीत को निभाया जाता है |वहां नमाज की कीमत नहीं मांगी जाती है |

गरज़ दियाँ बुनियादां पे जो टिकेया ए वो प्यार नहीं |

जो गरज़ की बुनियादों के ऊपर टिका हुआ है,वह प्यार हरगिज़ नहीं है इसलिए प्रेम ,केवल प्रेम के लिए और भक्ति केवल भक्ति के लिए |

भक्ति नाम है समर्पण का 

जिस प्रकार हम महापुरुषों के वचन सुनते हैं -

भक्ति में बेकल शर्तें हैं वर्जित ,भक्ति है कर देना खुद को समर्पित |

इस प्रकार भक्ति में कोई शर्त नहीं होती है |Pre-Conditioned

नहीं होती है |भक्ति की परिभाषा ,भक्ति के अर्थ और भक्ति के स्वरुप तमाम महापुरुषों की वाणियों में जो बताये गए हैं ,हम किसी भी धर्मग्रन्थ से पढ़ लें तो हमें यही परिभाषा मिलेगी कि भक्ति में शर्तें नहीं होतीं,वही बात-

बेग़र्ज़ जिन्हां दी उल्फत ए,वो नमाज़ दीं कीमत नहीं मंगदे |

भक्ति में केवल प्रीत को निभाया जाता है,बिना कोई शर्त रखे |केवल खुद को समर्पित किया जाता है बिना कोई शर्त रखे |  

भक्ति केवल प्राप्तियां होने के कारण है,प्राप्तियां नहीं हैं तो भक्ति भी नहीं है,प्रेम भी नहीं है,कहने का तात्पर्य कि सन्तजनों की  भक्ति संसार की तरह नहीं होती |भक्त उसी को माना गया है,जो इस निराकार -दातार को कदम-कदम पर विशेषता देते हैं | जो धन निरंकार के शब्द का केवल इस्तेमाल नहीं करते बल्कि मानते हैं कि निराकार ही धन्य है |वे कदम-कदम,स्वांस-स्वांस पर निराकार को धन्यता देते हैं |वे निराकार के तुल्य संसार को धन्यता नहीं देते |सांसारिक सिलसिलों को भक्ति के तुल्य महत्व नहीं देते |ये सन्त-महात्मा इसी प्रकार अपनी जीवन यात्रा तय करते हैं | 

और यही प्रार्थना भी करते हैं कि दातार ऐसी कृपा करो ,ऐसी खुराक जो हमें मिलती है,मनो को मजबूती देती है, अगर संसार के प्रभावों को ग्रहण करके कदम लड़खड़ाते हैं ,तो दातार ऐसी कृपा करो कि ये कदम कभी लड़खड़ायें नहीं | अडोल अवस्था में रहकर हम इन कदमो को आगे से आगे ले जाते चले जाएँ |

अडोल अवस्था की ज़रुरत 

परिस्थितियां तो निरंतर बदलती रहती हैं जैसे अंग्रेजी में भी वो कहावत है-

you can ,t  direct the winds but you can adjust your sails 

अर्थात आप हवाओं को दिशानिर्देश नहीं दे सकते लेकिन  अपने पालों को जरूर adjust  (समायोजित) कर सकते हैं |

हवाओं का रुख हम कहाँ बदल सकते हैं |लेकिन अपने आपको हम दिशा दे सकते हैं |इस प्रकार जीवन के रुख को बदला जाता है |कहने का भाव यही है कि इस प्रकार जीवन में मजबूती आती है |

संसार में विचरण करते हुए ,तमाम परिस्थितियों में से गुजरते हुए अपने कर्तव्यों का पालन |इसी प्रकार बेदाग़ जीवन बिताना ही भक्ति के अंतर्गत आता है |  

भक्ति भागने का नाम नहीं जागने का नाम 

इसीलिए कर्मभूमि जिसे हम कहते हैं ,कर्मक्षेत्र में जीवन के समस्त कर्तव्यों का पालन करते जाना ही भक्ति है |भक्ति भागने का नाम नहीं,जागने का नाम है |भक्ति हमेशा ही सन्त-महात्मा,भक्तजन इसी प्रकार करते आये हैं | जिन्होंने इस निराकार प्रभु के साथ अपनी प्रीत लगायी |यह प्रीत किसी शर्त पर आधारित नहीं थी |सन्तों-महापुरुषों ने इसको किसी पाने या खोने से नहीं जोड़ा |हमेशा ही हर हाल में इस प्रभु का गुण-गान भी करते चले गए हैं,और इसी प्रकार वे अपने आपको समर्पित करके अपनी   जीवन यात्रा तय करते चले गए हैं |

सत्संग की देन 

कहने का भाव यही है कि महापुरुष -सन्त-भक्तजन सत्संग में जो कुछ सुनते हैं वह आधारित होता है उस रोशनी के ऊपर ,उसी पर उनका व्यवहार आधारित होता है |उस ज्ञान के ऊपर ,उस बोध के ऊपर |वो ज्ञान,वो बोध जो हमें मुक्ति भी प्रदान करता है |जिस ज्ञान के होने के बाद ही भक्ति को सही स्वरुप मिलता है |जिस तरह हम निरंतर पढ़ते-सुनते आ रहे हैं  कि इस निराकार के बोध के बगैर भक्ति भी भक्ति नहीं कहलाती है |वो एक जिज्ञासा हो सकती है,प्राप्तियों की अभिलाषा के कारण की जा रही क्रियाएं हो सकती है |वो अन्य प्राप्तियों के लिए की हुई क्रियाएं हो सकती हैं लेकिन असल भक्ति की यात्रा आरम्भ होती है एक सत्य प्रभु परमात्मा का बोध हो जाने के बाद |इसलिए सत्संग में हमें यह भी सुनने को मिलता है कि वाकई यह उजाला हमारे जीवन में आया |

यहाँ ब्रह्मज्ञानियों का ऐसा स्वरुप होता है कि उनकी संगति एक निरंकार की ज्ञान रोशनी पर आधारित होती है |इस ज्ञान की रोशनी को समक्ष रखकर ही सत्संग में सब कुछ कहा सुना जाता है | कहने वाले भी इस ज्ञान को सामने रखकर कह रहे होते हैं और सुनने वाले भी ,जिनको खुद को भी यह बोध है,इस सत्य रूपी कसौटी को,ज्ञान रूपी ज्योति को  सामने रखकर ही सुन रहे होते हैं |यह कहना सुनना,यह मनन दोनों तरफ हो रहा है, इस प्रकार अगर भक्ति की भी बात कर रहे हैं,उसमें भी फिर ज्ञान को समक्ष रखा जाता है | 

ब्रह्मज्ञान स्वयंसिद्ध 

यहाँ केवल अँधेरे में तीर नहीं चलाये जा रहे हैं | ज्ञान को समक्ष रखकर ही यह सब कुछ कहा-सुना जा रहा है | अगर स्तुति की जा रही है तो वह भी ज्ञान पर आधारित है |इस निराकार -ईश्वर के गुण- गान किये जा रहे हैं ,इसी प्रकार से ,यह ज्ञान ज्योति जगी हुई है इसलिए गुरसिख के प्रति आदर-सत्कार का भाव मन में बन रहा है |ज्ञान की ज्योति जगी हुई है इसलिए समर्पण भाव प्रबल हो रहा है इस प्रकार कहने का भाव यही है कि  भक्त-महात्मा-सन्तजन इसी प्रकार स्वयं को ढालते चले जाते हैं,भक्ति के साँचे में,ज्ञान के साँचे में ,गुरमत के साँचे में |

इन साँचों में जब जीवन ढल जाता है तो एक सुन्दर स्वरूप बनता है | क्यूंकि साँचा इतना सुन्दर है ,साँचा इतना मजबूत है |

इस साँचे में जो कुछ ढलेगा वह सुन्दर और मजबूत होगा | इसलिए ऐसे साँचे में ढल जाना -ज्ञान के नक़्शे में कर्म का रंग भर देना |

ज्ञान पूरा होता कर्म से 

इस प्रकार सन्तजन-भक्तजन,महापुरुषों की वाणी इसी ओर हमें अग्रसर करती है | ऐसा नहीं कि केवल इशारा कर दिया है ,बाकी अपने आप सोचते रहो |नहीं ये तो साधन बनते हैं |रास्ता बताते हैं,समझाते हैं कि किस स्थिति में कैसे पेश आओ | यह स्थिति है तो कैसे अपने आपको नजबुत करो |

यह कैसी स्थिति है,इस स्थिति में किसी भ्रम में न आ जाना |ऐसी स्थिति में जहाँ जाने -बूझे भी कोई पेश हो सकता है तुम्हारे बढ़ते हुए कदमो को लड़खड़ाने के लिए |यह नहीं कि कोई stranger (अज़नबी )आएगा तुम्हें भ्रम में डालने के लिए |जाना -बूझा भी पेश हो जायेगा |

वो भी कोई ऐसी बात कह देगा जो काफी होगी हमें भ्रम में डालने के लिए |वो काफी होगी हमारे कदमो को लड़खड़ाने के लिए |वो काफी होगी अपनी प्रीत को बीच में छोड़ने के लिए |इस प्रकार भ्रम में डालने वाले ,ये कोई दूर बसते हुए नहीं ,केवल अनजान ही नहीं,केवल अज़नबी ही नहीं बल्कि हमारे करीब भी,यह जो माया का शब्द उपयोग में लाया जाता है,माया सिर्फ सामानो को नहीं कहते |माया सिर्फ सोने-चांदी,हीरे-जवाहरात को नहीं कहते |माया केवल महल -माड़ियों को नहीं कहते |माया केवल सुन्दर जिस्मो को नहीं कहते |हर वो चीज और हर वो कारण जो हमें सत्य से,सत्संग से और गुरु से दूर ले जाये,वो माया हुआ करती है |हर वो चीज और हर वो कारण -केवल चीज नहीं ,अक्सर हम माया चीजों को कहते हैं ,नहीं हर वो चीज और हर वो कारण -तो चीजें तो चीजें हैं और कारण तो अनेकों रूपों में हमारे सामने आ जाते हैं,जिसके कारण हम सत्य के मार्ग से दूर जा सकते हैं,हम अपने विश्वासों को खो सकते हैं,हम सत्संग से दूर हो सकते हैं,हम गुरु के ऊपर भी शंका कर सकते हैं -इस प्रकार हर वो चीज और हर वो कारण जो हमें गुरु,साध संगत और निराकार से दूर ले जाये,वो माया हुआ करती है |इसलिए इस माया के असर में न आना |

माया जेहड़ी रंग-बिरंगी तेरा जी परचांदी है,

पक्की गल समझ ले मेरी ये आदी ते जांदी है |