अध्यात्म : महात्मा जो सन्देश औरों को देते हैं उसे पहले खुद अपने जीवन में अपनाते हैं | - निरंकारी बाबा हरदेव सिंह जी

भक्त का जीवन 

भक्त हमेशा ऐसे वचन कहते हैं, जो भक्ति की प्रेरणा देने वाले होते हैं |(भक्ति का तात्पर्य बाबा जी जाग्रत व कर्ममय जीवन से लेते थे इसलिए भक्ति का तात्पर्य कर्तव्यों से पलायन नहीं है |) 

वे एक निराकार प्रभु पर अटल यकीन रखने और इसी को जीवन का आधार बनाये रखने की बात अपने व्यवहार से भी कहते हैं |भक्त अडोल अवस्था में रहकर ,एकरस यानी कि सहज जीवन जीता है |

भक्त इस बात पर बल देते हैं कि एक निराकार,ईश्वर,परमपिता परमात्मा जिसका हम बोध कर चुके हैं,जिससे नाता जोड़ा है,यह खुद अडोल-एकरस रहने वाला है इसलिए इसके साथ मन का नाता जुड़ा रहे तो तभी जीवन में ऐसी अवस्था बनती है |

महापुरुषों के प्रयास 

महापुरुषों के सदैव से प्रयास रहे हैं कि स्वयं भी इस निर्मल सत्ता प्रभु से जुड़े रहें और दूसरों का भी इस प्रभु पर विश्वास मजबूत रखें |उन्होंने दुनियावी प्रलोभनों से बचाने के लिए अपने प्रयास किये हैं चूंकि इनमें से कोई भी स्थायी रूप से साथ रहने वाला नहीं है |जो हीरे जैसे जीवन को कोडियो के मोल गंवा रहे हैं |महापुरुष चाहते हैं कि हर कोई ऐसी अवस्था प्राप्त करे जो जीवन में पूर्णता भरती है | महात्मा हर युग में यही प्रेरणा देते आ रहे है |चाहे कबीर जी की वाणी पढ़ लें या रैदास जी के वचन पढ़ लें |चाहे बुल्लेशाह जी की काफियां सुन लें,सुना लें या फिर फरीद जी के शब्द सुन लें,सुना लें |सबमें यही प्रेरणा मौजूद मिलती है |

दोहरी मेहनत

जहाँ संसार को प्रेरणा दी जाती है वहीं खुद को भी इस खूबी से युक्त रखा जाता है | individual (व्यक्ति )को खुद अपने ऊपर मेहनत करनी पड़ती है |इस प्रकार सन्त-महात्मा यह दोहरी मेहनत करते चले गये | 

अपने ऊपर मेहनत अर्थात हम खुद उस विश्वास के ऊपर कायम |मन के ऊपर कहीं दुनिया के रंग न चढ़ जाएँ इसलिए स्वयं भी सजग-सचेत रहना | यह हमारी मेहनत  कि मन को इधर-उधर न होने दें |दूसरों के साथ भी यही मेहनत कि जो सत्य के साथ अभी नहीं जुड़े हैं,जो प्रभु के ज्ञान से अनभिज्ञ हैं उन्हें प्रभु से जुड़ने की प्रेरणा देनी और फिर प्रभु से जोड़ना | कोई यदि सही मार्ग से भटक गया है तो उसे बहकने न देना और फिर उसे सही राह पर ले आना |बहकी हुई विनाशकारी सोच को खत्म करके सही राह पर ले आना |

ऐसा नहीं कि दूसरों को तो प्रेरणा देते रहें और स्वयं की तरफ से लापरवाह हो जाएँ |अपनी तरफ भी यह सचेतता -सजगता जरूरी है |सत्संग में सिर्फ दुनिया को ही प्रेरणा नहीं दी जाती बल्कि अपनों को भी समझाया जाता है |निरंतर प्रभु से जुड़े रहने की प्रेरणा दी जाती है |

दुधारी तलवार लेकिन कल्याणकारी 

जैसे दुधारी तलवार दोनों तरफ से कारगर होती है इसी प्रकार सत्गुरु भी दोनों तरफ मेहनत करते हैं |तलवार की तरह दोनों तरफ धार है ,एक धार दूसरे की  तरफ है तो दूसरी धार अपनी तरफ भी है |इस प्रकार ये जहाँ दुनिया को सन्देश देते हैं वहीं ये स्वयं भी चेतन रहते हैं |स्वयं भी अडोल -पूर्णतः विश्वासी रहते हैं |

यह नहीं कि दूसरे को कह दिया कि इस मालिक की रज़ा में रह लो बल्कि ये खुद भी निरंकार के किये को उत्तम मानते हैं |सिर्फ दूसरों को नहीं कहते कि विनम्र रहो बल्कि स्वयं भी विनम्र रहते हैं |सिर्फ दूसरों को नहीं कहते कि विशाल ह्रदय वाले बनो बल्कि खुद भी विशालता का प्रमाण देते हैं |सिर्फ औरों को नहीं कहते कि मीठा बोला करो बल्कि खुद भी मीठा बोलते हैं,विवेक का पहरा देते हैं |वे दिलों को दुखाने वाले बोल नहीं बोलते बल्कि अपने बोलों से दूसरों के बोलों को ठंडक पहुंचाते हैं |इस प्रकार यह दोधारी तलवार अपना भी कल्याण करती है और दूसरे का भी |

इस दोधारी तलवार का सन्दर्भ लीक से हटकर 

अक्सर तलवार का जब भी जिक्र आता है तो साथ में सोच नकारात्मक रहती है लेकिन यहाँ सन्दर्भ कल्याण का है -अपना भी कल्याण दूसरों का भी कल्याण |सोचने की बात यह है कि धरती पर आने का महापुरुषों का अभिप्राय क्या रहा-करोड़ों-असंख्यों लोगों ने इस धरती पर जन्म लिया लेकिन थोड़े से लोग वे रहे जिन्हें सन्त- भक्त ,वली, गुरु,पीर या अवतार कहा गया |इन विभूतियों का जब भी जिक्र करते हैं तो चर्चा करते हैं कि इन का कर्म क्या रहा है ?इनका मक़सद क्या रहा है ?

संसार की दौड़ से हटकर कार्य 

सन्तों-महापुरुषों का मंतव्य क्या सांसारिक पदार्थों की दौड़ का अनुमोदन ?फिर तो कोई विशेषता ही नहीं उनकी |उनकी विशेषता यही होती है कि जिस दौड़ में इंसान लगा हुआ है ,जिसे अंग्रेजी भाषा में mad race कहते हैं,से इंसान को रोकना |यही इनका मंतव्य रहता है कि इंसान दौड़ से रुके और जीवन के दूसरे पहलू भी देखे |अनंत दौड़ में भागते -भागते जीवन के उस पहलू की अनदेखी हो रही है -कहीं माया,दुनिया और पदार्थों की प्राप्ति -शोहरत,ताक़त और हुकूमत  केवल  यही ध्यान है या इस दौड़ में दौड़ते हुए यदि कोई दूसरा ध्यान आता है तो वह है यह कि कोई और मुझसे आगे न निकल जाए |जो मुझसे आगे निकलने को है ,मैं उसके आगे लात लगाऊं और यह मुँह के बल गिर जाए |यह आगे न जा सके |तो यही दो प्रकार के ध्यान लगे हैं कि मुझे तो प्राप्ति हो जाए लेकिन यह उपलब्धि इसके हिस्से में न आये |या जो आगे निकल गया है उसको कैसे पीछे खींचा जाए |

महापुरुषों का दृष्टिकोण 

महापुरुषों का दृष्टिकोण इससे हटके होता है |वहां वो पावन,पवित्र,कल्याणकारी पहलु है |इस पहलू के अनुसार यदि किसी को भक्ति,सेवा ,परमार्थ में आगे बढ़ता देख रहे हैं तो उसे पीछे नहीं खींचेंगे बल्कि खुश होंगे |साथ ही चेतन रहेंगे कि मैं भी उसी ओर बढ़ता चला जाऊं |मैं भी ये उपलब्धियां प्राप्त करता चला जाऊं |

सारांश 

कहने का तात्पर्य यही है कि सन्त- महात्मा सदैव से अपने हृदयों यही कल्याणकारी भावना रखते हैं |ये संसार को भी सन्देश देते हैं और स्वयं भी चेतन रहते हैं | यह नहीं जैसे शायर का वह शेअर कि-

मन अपना पुराना पापी था 

वर्षों में नमाजी बन न सका |

मस्जिद तो  बना दी ,शब भर में ,मस्जिद तो बना दी ,इमारतें तो बना दीं ,सुबह-शाम पठन-पाठन भी कर लिया ,जप-तप -स्नान भी कर लिये,लंगर भी लगा दिया लेकिन जो असली नमाजी बनना था,केवल इल्म वाला नहीं बल्कि अमल (आचरण )वाला नमाजी ,जो शरआ वाला नहीं बल्कि इश्क़ (हक़ीक़ी )वाला नमाजी बनना था ,वो नमाजी नहीं बन  पाए |इस प्रकार महात्मा अपने आपको भी सचेत करते हैं | वे कभी भी अहंकार नहीं करते बल्कि आत्मनिरीक्षण करते हैं |