विचार - चरखा और बुलडोजर - एक तुलनात्मक दृष्टि

रखा एक समय क्रांति का प्रतीक था |वह रचनात्मक क्रांति का माध्यम था |

बचपन में मेरी माता जी चरखा चलाती थीं |उस पर सूत कातती थीं |वे एक धार्मिक महिला थीं और सुबह चार बजे जागकर नित्य क्रियाओं से निवृत होकर मंदिर जाती थीं |

हमारे गांव की अन्य कई महिलाएं भी रोज सूत कातती थीं |

जब मैं प्राथमिक कक्षा में पढता था तो कताई भी एक विषय होता था |मेरे विचार से यह एक रचनात्मक प्रेरणा थी जिसने गांव के मामूली लोगों को भी उनकी ताक़त का एहसास कराया |उन लोगों का  आत्मविश्वास बढ़ा कि वे भी महत्वपूर्ण और बड़े काम कर सकते हैं |        

उसी चरखे का उपहास करते हुए एक मित्र ने कल सन्देश भेजा -

वर्षों तक हमें पढ़ाया जाता रहा कि चरखे से क्रांति आयी |

बुलडोजर से शांति आयी ,अब यह इतिहास का हिस्सा है और वर्षों तक पढ़ाया जाता रहेगा |

ये शब्द मुझे चुभे चूंकि बुलडोजर और शांति की कोई तुलना नहीं है |

यह निश्चित है कि बुलडोजर का अविष्कार शांति लाने के लिए तो नहीं हुआ बल्कि अनाधिकृत निर्माण रोकने के लिए बुलडोजर का अविष्कार हुआ |

कहीं भी निर्माण कराना आसान नहीं है चूंकि निर्माण सामग्री बहुत महँगी है तो निर्माण को तोड़ने से तो असंतोष ही पैदा होगा |और जब मौसम बरसात का होने वाला हो तो असंतोष और भी ज्यादा होगा |अगर सन्तोष शांति का वाहक नहीं है | सन्तोष तो ज्वालामुखी की तरह है,जो शांत दिखने पर भी शान्त नहीं होता |

 बुलडोजर का अविष्कार ही विध्वंस के लिए हुआ है |

इसके विपरीत चरखा तो लोगों को रोजगार देने के लिए ही बना था |यह अलग बात है कि गाँधी जी ने उसे रचनात्मक क्रांति का हथियार बना दिया |

श्रीमती इस्मत चुगताई उर्दू की सुप्रसिद्ध लेखिका थीं और उससे भी ज्यादा वे स्वतंत्र विचारों की विदूषी महिला थीं |उन्होंने जो भी लिखा हिम्मत से लिखा और सिर्फ लिखा नहीं बल्कि उसे जिया भी |वे बचपन से ही विद्रोही प्रकृति की थीं |उस दौर में विद्रोही प्रकृति का होना एक बड़ी उपलब्धि थी चूंकि सुविधभोगी लोग तो आज़ाद होने की बात सोचते तक न थे |

वे कोई स्वतंत्रता सेनानी नहीं थी बल्कि उनकी सोच आज़ाद थी |लोग जिन्हें लड़कों के खेल मानते हैं उन्हें खेलना वे अपना अधिकार मानती थीं |

यहाँ उनका जिक्र मुझे चरखे के सन्दर्भ में याद आया |

उन्होंने दिल्ली दूरदर्शन को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया था कि वे और कुछ अन्य छात्राएं महात्मा गाँधी जी के दर्शन करने गयीं |

वे अपनी डायरी में गाँधी जी के हस्ताक्षर भी लेना चाहती थीं लेकिन उनके वस्त्र स्वदेशी नहीं थे तो गाँधी जी ने उन्हें हस्ताक्षर देने से इंकार कर दिया |

उन्हें खादी पहनने को कहा गया |कांग्रेस के स्वयंसेवकों ने बगल के पंडाल में रखीं साड़ियां खरीदने की प्रेरणा दी |उन्होंने साड़ियां खरीदीं और गाँधी जी के हस्ताक्षर भी लिये |

उन्होंने इंटरव्यू में बताया कि खादी पहनने से उनमें एक अनूठा आत्मविश्वास पैदा हुआ |उन्हें गौरव हुआ कि वे और उनकी साथिने खादी पहनकर आज़ादी की सेना की सेनानी हो गयी हैं |

मित्र ने चरखे पर जो क्रांति की लाइन लिखी ,उसमें एक प्रकार का उपहास था |

इस सन्देश में एक व्यंग्य छिपा हुआ था कि चरखे से क्रांति वास्तविक नहीं है लेकिन उसने यह नहीं सोचा कि क्रांतियां सिर्फ बन्दूक की नली से नहीं निकलती |वह सूत और चरखे से भी हो सकती है |

आज़ादी के आंदोलन से जुड़े सेनानियों के इंटरव्यू पढ़िए |सरदार पटेल क्या चरखा नहीं चलाते थे ?इसकी गहराई में उतरेंगे तो ज्ञात होगा कि गाँधी,नेहरू ,सरदार पटेल अथवा लाल बहादुर शास्त्री ,वे जो वस्त्र पहनते थे उनकी खादी अधिकांश ने खुद काती होती थी |

राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े नेताओं और दूसरे शब्दों में कहें तो महात्मा गाँधी और उनके शिष्यों का मज़ाक बनाना आज के समाज अथवा शासन का एक स्वीकृत कार्यक्रम लगता है|

यद्यपि मज़ाक बनाने वालों को भी पता है कि महात्मा गाँधी को इस देश के इतिहास से बेदखल नहीं किया जा सकता |सत्याग्रह और अहिंसा के उनके सिद्धांत विश्वव्यापी पहचान रखते हैं और अनेकों महान व्यक्तियों ने उनसे सार्थक प्रेरणा ग्रहण की है |ऐसे व्यक्तियों में प्रसिद्द वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ,मार्टिन लूथर किंग जूनियर और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला भी शामिल हैं |

इस प्रकार आज भी राष्ट्रपिता का मज़ाक खुलकर बनाना सम्भव नहीं लगता लेकिन महात्मा गाँधी हर धर्म को श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे और इस समय की राजसत्ता के वास्तविक एजेंडे से हर धर्म के प्रति सदभाव का विचार मेल नहीं खाता इसलिए महात्मा गाँधी उनके लिए एक समस्या बने हुए हैं |

महात्मा गाँधी ने जन-जन के दिमाग में यह बिठा दिया था कि भारत हम सबका है और इसकी आज़ादी के लिए काम करना हम सबकी जिम्मेदारी है |

शांति और अहिंसा के अनुयाई होने के कारण वे रचनात्मक ही रहे लेकिन उनकी संख्या बहुत ज्यादा थी इसलिए अंग्रेज सरकार भीतर ही भीतर उनसे डरती भी थी चूंकि यदि उनका नजरिया बदल जाये तो जन शक्ति का दबाव कुछ भी अनर्थ कर सकता था |उस जनशक्ति के दिमाग में सत्य और अहिंसा का     

दर्शन उतारना कठिन काम था |चरखा ,खद्दर आदि इस दर्शन को मन में उतारने के माध्यम थे | इसके विपरीर्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शस्त्र पूजा करता है |

मैंने उस दोस्त को लिखा कि शासन और सरकार के लिए महात्मा गाँधी को न निगलते बनता है न उगलते |राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान के लिए इस सरकार ने 2014 में गाँधी जी ब्रांड एम्बेसडर की तरह इस्तेमाल किया |ज्यादा समय नहीं गुजरा है जब गाँधी जी की गोल ऐनक के दाहिने शीशे में स्वच्छ और बाएं शीशे में भारत लिखा होता था |

फिर एक साध्वी ने गाँधी जी के प्रति जहर उगला और प्रधानमंत्री जी ने कहा कि इस साध्वी को वे कभी दिल से माफ़ नहीं कर पाएंगे लेकिन प्रधानमत्री जी के बयान के बावजूद ज़हर उगलने का अभियान जारी है |

इस सरकार ने जिस संविधान की शपथ ली है वह कुछ कर्तव्यों और अधिकारों को देश की जनता को उपलब्ध करवाता है |

इस सरकार का पितृ संगठन है-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ |उसका अपना इतिहास और कार्यक्रम हैं |वह महात्मा गाँधी की विचारधारा को अपने लक्ष्य में एक बाधा मानता है |यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि यह सरकार और राजसत्ता महात्मा गाँधी को आदरणीय नहीं मानती क्यूंकि उसके अनेक मंत्री और सांसद महात्मा गाँधी के विरोध में बयान देते रहते हैं |

 अब उसके प्रतीक वीर सावरकर हैं |उसके सांसद और मंत्री बेहिचक गोडसे की चरण वंदना करते हैं और महात्मा गाँधी जिन्हें 1948 में ही धरती से विदा कर दिया गया था,सत्ता पक्ष के लोग उनकी मूर्ति पर गोली चलाते हैं| चरखे का मज़ाक इसी मानसिकता का अंग है |

अपने मित्र की उपर्युक्त तुलना मुझे अच्छी नहीं लगी लेकिन मुझे यह विषय मिल गया -चरखा और बुलडोजर |जिसका विश्लेषण अपने पाठकों को समर्पित है,धन्यवाद |          

- आर.के.प्रिय