अध्यात्मिक विमर्श - कौन सी क़ैद आज़ादी से भी बेहतर है ?

मुझे इतनी आज़ादी दो कि आपकी कैद में रह सकूं...

बाबा हरदेव सिंह जी के श्रीमुख से मैंने यह काव्यांश सुना है |

सोचने की बात यह है कि गुरु जेलर नहीं होता बल्कि मुक्तिदाता होता है |

सिर्फ बुद्धि के विकास में सहायक गुरुओं के बारे में तो निश्चित नहीं हूँ लेकिन ब्रह्मवेत्ता सत्गुरु तो अपने भीतर ब्रह्म को बसाकर रखता है इसलिए ब्रह्मवेत्ता किसी भी प्रकार की गुलामी का समर्थक नहीं हो सकता |

ऐसा सत्गुरु किसी भी प्रकार की गुलामी का समर्थन कर सकता |और जो किसी को गुलाम बनाना चाहता है, सत्गुरु नहीं हो सकता इसलिए यह तथ्य दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है कि ब्रह्मवेत्ता सत्गुरु क़ैद नहीं आज़ादी चाहता है |

बाबा हरदेव सिंह जी जीवन भर ब्रह्म के अनेक रहस्य व प्रभाव उजागर करते रहे, लेकिन यहाँ वे क़ैद की बात कर रहे हैं तो इसका कुछ रहस्य रहा होगा |

हम जो उनके श्रद्धालु और अनुयाई रहे हैं, भली भांति जानते और महसूस करते हैं कि वे साकार में निराकार थे इसलिए उनके ब्रह्मवेत्ता होने में रत्ती भर भी संदेह नहीं लेकिन उपर्युक्त पंक्तियों में वे क़ैद का समर्थन करते हुए प्रतीत हो रहे हैं |इसका रहस्य क्या है, ढूंढना पड़ेगा  |

बाबा जी जिस क़ैद की बात कर रहे हैं,वह किन्हीं ज़ंजीरों की क़ैद नहीं है जो शरीर को जकड़े रखती है |ज़ंजीरों की क़ैद तो किसी के लिए भी सुखद नहीं हो सकती |मुझे लगता है कि मर्यादा के बंधन की तरफ संकेत कर रहे हैं | 

जब मुझे शुरूआत में सत्संग में जाने का अवसर मिला, ये मेरे बचपन के दिन थे |उन दिनों स्कूल से आते ही मैं सत्संग की तरफ चल देता था |यह कोई सुखद क्रम नहीं था |वास्तव में हम लोग माता-पिता की हर बात को अनिवार्य रूप से माना करते थे |उनका आदेश था स्कूल से सीधे सत्संग में पहुँचो |दूसरे बच्चे भी ऐसा ही करते थे |साथ ही यह भी एक वास्तविकता है कि वहां कही जा रहीं ज्यादातर बातें मुझे समझ ही नहीं आ रही होती थीं |

इसलिए बेमन से ही सही हम माँ -बाप की यह बात भी मानते थे |न मानने की बात हम सोचते ही न थे |

उसका परिणाम यह हुआ कि शरारतें मुझे सूझती ही न थी और प्रशंसा सुनने की लत सी लग गयी थी |पढ़ने में मुझे बहुत होशियार तो कभी नहीं माना गया लेकिन सभी शिक्षक मेरी गिनती आज्ञाकारी बच्चों में करते थे और उन्हें लगता था कि यह बच्चा विकासशील है |

इस प्रकार माता-पिता के आदेश पर सत्संग करते रहने की क़ैद अच्छी रही |जैसे जैसे उम्र बढ़ती रही सोच भी बड़ी होती रही |

फिर तो मुझे विचार प्रकट करने और मंच संचालन का अवसर भी मिलने लगा |अब इस सबमें आनंद आने लगा |

यह रूचि फिर साहित्य प्रेम में परिवर्तित हो गयी |

इस प्रकार हिंदी और अंग्रेजी मेरे प्रिय विषय हो गए और इसका मूल कारण सत्संग की आदत ही थी |नशीले पदार्थों से बैर रहा |

साथ ही और भक्ति गीत -भजन और आगे काव्य और लेखन  जीवन के अंग बन गए |

मैं इन सुप्रभावों को सत्संग का साइड इफ़ेक्ट मानता हूँ |

इससे यह भी सिद्ध है कि साइड इफेक्ट्स पॉजिटिव भी हो सकते हैं |

इस प्रकार माता-पिता,शिक्षक तथा सत्गुरु के वचनो को मानने की आदत ने जीवन को शिखर तक तो नहीं पहुँचाया लेकिन विकसित और संतोषजनक तो जरूर किया है |

इस दृष्टि और निजी अनुभवों से मुझे यही लगता है कि बाबा हरदेव सिंह जी ,जिन्हें दिव्य गुण कहते थे अर्थात प्रेम, शांति, विनम्रता, सहनशीलता, विशालता और उदारता जैसे गुणों की क़ैद जीवन को शिखर की ओर आगे बढ़ाती है इसलिए जीवन में बेशक बहुत धन इकठ्ठा तो नहीं कर पाया लेकिन विवेक तो पूरा मिला है |

यह तो मेरा अनुभव है अंततः निष्कर्ष यही निकलता है कि बेलगाम आज़ादी की अपेक्षा सत्य सिद्धांतों की क़ैद में रहना बेहतर है |शायद इसीलिए एक फ़िल्मी शायर ने लिखा है-

तेरी जुल्फों से जुदाई तो नहीं मांगी थी ,

क़ैद मांगी थी ,रिहाई तो नहीं मांगी थी |

और यह भी -

मकतबे इश्क़ का दस्तूर निराला देखा ,

जिसने सबक याद किया ,उसे छुट्टी न मिली |    

स्पष्ट है कि क़ैद को बेहतर मानने वाले लोग भी काफी हैं जिनकी सार्थकता का पक्ष भी अब नज़र आने लगा है | यह वास्तव में स्थूल का विषय नहीं है बल्कि सूक्ष्म की ओर बढ़ने की प्रेरणा है इसीलिए इसका  निष्कर्ष समस्या नहीं  समाधान है - धन्यवाद 

 - रामकुमार सेवक