स्मृति - बाबा हरदेव सिंह जी... उनका जाना यूँ लगा, जैसे सिर से छत हट गयी हो

68वे संत समागम के बाद मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मुझे आत्मिक भोजन पूरा नहीं मिला |बाबा हरदेव सिंह जी महाराज के प्रगतिशील विचारों की कमी बहुत ज्यादा महसूस हुई |मेरे विवेक ने महसूस किया कि सक्षम-समर्थ सत्गुरु की छत्रछाया मेरे सर से जैसे हट चुकी है| 

तब से मैं बाबा जी के पुराने विचारों से मार्गदर्शन प्राप्त करने का प्रयास करता हूँ |उन्हें सुनकर मेरी बौद्धिक भूख शांत होती है |

पिछले दिनों एक महात्मा,जो बाबा जी के साथ प्रचार यात्रा में साथ होते थे ,ने मुझे एक-दो ऐसी बातें बताईं ,जिन्हें सुनकर मुझे बेहद संतोष हुआ |हम सफदरजंग एन्क्लेव में एक महात्मा के घर में भोजन कर रहे थे |अनेक और महात्मा भी वहां थे |

उन्होंने बताया-कि भैया,एक बात मैं बहुत  दिनों से पूछने की चाहत रखता हूँ |

मैंने सोचा कि हो सकता है कि सवाल ऐसा हो जिसका जवाब मुझे न मालूम हो इसलिए मैंने मन ही मन निरंकार का सुमिरन किया और बोला-पूछिए |

वे बोले- जब आप बाबा जी के साथ कलकत्ता गए थे तब वहां के समागम के पहले दिन जब मैं बाबा जी के सम्मुख माइक रखने गया तो मेरे सर में बहुत तेज दर्द था | मैंने माइक रखा तो महाराज ने पूछा-सिरदर्द है ?

मैंने कहा- हाँ महाराज ,उन्होंने कहा-(जैसा कि मुझे उन्होंने बताया)हमारे साथ रामकुमार सेवक आये हैं |वे सरसों का तेल इस्तेमाल करते हैं |कुछ सीखो |

वो सेवादार भाई बोले-मैं आपसे यही पूछना चाहता हूँ कि क्या आप सरसों का तेल लगाते हैं ?

अब हैरान होने की बारी मेरी थी |

मामला एकदम व्यक्तिगत है क्यूंकि तेल सरसों का इस्तेमाल मैं वर्षों से करता आ रहा हूँ और किसी को यह बात मैंने कभी बताई नहीं है |

महाराज को मेरी यह बात भी मालूम थी तो मुझे प्रेरणा हुई कि जो बाथरूम की नितांत व्यक्तिगत बात को भली भांति जानते थे ऐसे मेरे गुरु महाराज सिर्फ शरीर नहीं हो सकते |जो शरीर में सीमित नहीं है उसका अस्तित्व पहले भी था,अब भी है और आगे भी रहेगा |

मुझे जब 2011  में  निहायत अपमानजनक तरीके से हटाया गया तो मन में सहज ही ध्यान आया कि पच्चीस वर्षों के इस सेवाकाल में मुझे काफी ताक़तवर लोगों के साथ काम करने का मौका मिला मगर मेरी आस्था सिर्फ मेरे गुरुदेव के प्रति रही | मगर मेरे गुरुदेव ने मेरा बचाव नहीं किया,यह मेरे भीतर का दर्द था जिसे मैंने कभी किसी से कहा नहीं  था |

उस दिन उस भाई ने बताया कि तब बाबा जी जम्मू की यात्रा पर गए थे |तब बाबा जी ने कहा कि--जो महाराज ने कहा-वो मेरे लिए नोबेल पुरस्कार से कम नहीं है लेकिन उसे मैं लिख नहीं सकता |बहरहाल बाबा जी ने मेरे भीतर के गिले को समूल नष्ट कर दिया |

यह घटना मेरे ह्रदय पर अंकित है |मैं तो बहुत छोटा सा इंसान हूँ और किसी को भी सर झुकाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं होती लेकिन बाबा हरदेव सिंह जी का स्थान स्थायी है और रहेगा |  

वास्तव में बाबा हरदेव सिंह जी कुछ गुणों का नाम है जैसे -सहनशीलता |बाबा हरदेव सिंह जी के जीवन को यदि एक शब्द में व्यक्त किया जाये तो वो शब्द होगा -सहनशीलता |

उन्होंने कहा था -अमन-चैन से रहना है तो सहनशील बन जाएँ सारे |

उस समागम के वर्ष में मुझे समागम स्मारिका  के संपादन की भी जिम्मेदारी दी गयी थी |उसमें लिखे सम्पादकीय में मैंने एक प्रश्न आपके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया था -प्रश्न है कब तक सहन किया जाये ?

उसका उत्तर देते हुए लिखा था कि सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी ने पूरे जीवन भर सहनशील रहने की शिक्षा दी लेकिन यह सहनशीलता निष्क्रिय की सहनशीलता नहीं है बल्कि निरंकार को आगे रखकर सदा कर्मयोगी बने रहने की शर्त के साथ सहनशील और विवेकी बने रहने से जीवन में सदा अमन-चैन बना रहेगा |

बाबा जी के विचारों की निरंतरता हमें आज भी राहत प्रदान करती है |

दो दिन पहले एक युवक ने मुझसे पूछा-आप सत्संग में कम दिखते हैं जिसके कारण आपके विचारों को सुन नहीं पाता |

मैंने निवेदन किया कि-पिछले लगभग पचास वर्षों से सत्संग सुनता आ रहा हूँ इसलिए अब पूरा जोर उन बातों को जीवन में अपनाने पर लगाना चाहता हूँ इसलिए सुनता ज्यादा हूँ,बोलता कम हूँ |

बाबा हरदेव सिंह जी कहा करते थे-क्या भरोसा है ज़िंदगानी का,आदमी बुलबुला है पानी का |जीवन अनंत नहीं है इसलिए खुद की समीक्षा करने में लगा हूँ ताकि जीवन मुक्त हो सकूं | धन्यवाद      

- रामकुमार 'सेवक'