जब मैं इस अपने भौतिक जीवन की शुरूआत की ओर देखता हूँ तो शिवालय नामक मंदिर की याद आती है, जो उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के गांव मुल्हेड़े में था |उससे आगे बाजार शुरू हो जाता था |
अपनी माता जी की उंगली पकड़कर मैं उस मंदिर में जाता था |
शिव मंदिर के भीतर छोटी छोटी देव मूर्तियां थीं |मंदिर के भीतर एक घंटा लटका हुआ था |पूजा करने के बाद उसे बजाया जाता था |मुझे गोद में उठाकर घंटा बजाने के लिए कहा जाता था |
उसके ठीक नीचे शिव लिंग था, मुझे बताया गया कि यह शिवजी की पिंडी है |
मुझे लगता है कि इसके पीछे शाक्त सम्प्रदाय के तांत्रिकों ,कापालिकों ,अघोरियों अथवा वाम मार्गियों का प्रभाव रहा होगा |निश्चय ही यह एक विवादास्पद परंपरा है लेकिन कोई भी इसे निंदनीय नहीं मानता इसलिए मैं सहज भाव से इसकी विवेचना करने की कोशिश करूंगा |
जब मैं छटी कक्षा में ,मुरादनगर में पढता था तो मेरे माता-पिता निरंकारी मिशन से जुड़ गये |हमें ब्रह्मज्ञान दिया गया और सेवा -सुमिरन-सत्संग की प्रेरणा दी गयी |यह एक बड़ा आध्यात्मिक आंदोलन था ,जिसमें वर्ण-जाति,मजहब-ओ-मिल्लत आदि के कोई बंधन नहीं थे |
मिशन में निराकार ब्रह्म की उपासना की जातीं थी |उसके लिए हर मानव में प्रभु को देखना था |मिशन का सिद्धांत था-नर सेवा,नारायण पूजा अर्थात जन-जन की सेवा ही प्रभु की सच्ची पूजा है |
मिशन में सत्गुरु की दृष्टि व्यापक थी इसलिए 1986 में जब मुझे मिशन के मुखपत्र सन्त निरंकारी मासिक पत्रिका के हिंदी संस्करण के सहायक संपादक के रूप में सेवा मिली तो शिवजी के विराट स्वरुप का अध्ययन करने का मौका मिला |और धर्म की वास्तविकता को अनुभव करने का अवसर मिला |
निरंकारी मिशन के परमाध्यक्ष सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी कहते थे कि शिव के बिना तो शव रह जाता है |नेपाल में उन्होंने एक कवि को उद्धृत करते हुए कहा-
आज हम ऐसे दौर में जीते हैं,
जहाँ लोग शिव से ज्यादा विष को पीते हैं|अध्यात्म के सन्दर्भ में वे यह मानते थे कि-
हरजी को अहंकार न भावै
अर्थात हरि को अहंकार पसंद नहीं |उनका कहना था -
not me and mine but thee and thine.
अर्थात
मैं और मेरा नहीं बल्कि तू और तेरा |
इसके बावजूद बाबा जी का हृदय किसी भी मनुष्य के लिए खुला था |हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई-जैन-बौद्ध -पारसी आदि किसी भी विचारधारा से उनका वैमनस्य नहीं था |सन्त निरंकारी मिशन में उदार विद्वानों की सत्संगति मिली और लगभग हर दार्शनिक -विचारक का लिखा हुआ साहित्य पढ़ने को मिला |
लगभग 15 दिन पहले शिवरात्रि का पर्व विश्व भर में मनाया गया ,उस दिन मुझे शिवजी के विराट स्वरुप पर अलग प्रकार से चिंतन करने का सौभाग्य मिला |
मुझे लगता है कि शिवजी मानव शरीर के भीतर स्थित विराट आत्मा हैं |यह पूर्णतः निराकार सत्ता है लेकिन विचारकों ने सहज आनंद के साथ इसका मानवीकरण कर दिया है |इस सन्दर्भ में मुझे राजनीतिज्ञ-विचारक डॉ.कर्ण सिंह जी ,सिख प्रचारक ज्ञानी सन्त सिंह जी मस्कीन तथा साध गुरु जग्गी वासुदेव जी के नाम याद आते हैं |
कहते हैं कि माता पार्वती जी ने एक बार शिवजी से कहा कि मैं भी आपकी तरह तपस्या करके दिव्य सिद्धियाँ-उपलब्धियां हासिल करना चाहती हूँ |
यदि शिवचरित्र का पूरा प्रसंग देखें तो शिवजी प्रेमी भी सबसे बड़े नज़र आते हैं |
उनका प्रेम भी कमाल ही था |
सती ने जब अपने पिता के यज्ञ में अपनी आहुति दी तो शिवजी निज अपमान से ज्यादा अपनी पत्नी के अपमान से विह्वल हो गए |वे एकदम प्रलयंकारी मुद्रा में आ गए |उन्होंने सती का शव कंधे पर रखा और चल पड़े |उनके शव से जो -जो अंग जहाँ -जहाँ गिरा वहाँ-वहाँ शक्ति पीठ मंदिरों की स्थापना हुई ,जैसे कि स्थापित तथ्य है कि सती की योनि गुवाहाटी के निकट जंगलों में गिरी और वहां कामाख्या शक्तिपीठ स्थापित हुई |
अब पार्वती जी द्वारा तपस्या करने की इच्छा की ओर लौटते हैं |
शिव के अनुयाई के रूप में प्रतिष्ठित साधगुरु जग्गी वासुदेव लिखते हैं कि शिवजी अपनी प्रिया को बिना तपस्या किये ही तपस्या का फल देना चाहते थे |उन्होंने पार्वती से अपनी गोद में बैठने को कहा |
यह मुद्रा ही शिवलिंग के रूप में प्रतिष्ठित हुई |
मैंने वर्षों पहले नवभारत टाइम्स में लेख लिखा था-काम और राम में समन्वय |उस लेख में यद्यपि शिवजी की इस मुद्रा का जिक्र नहीं था लेकिन काम और राम अर्थात संसार और अध्यात्म को परस्पर पूरक सिद्ध करने की कोशिश की गयी थी |
संसार में जीवन चलता रहे,इसके लिए काम एक महत्वपूर्ण कारक है |शिवलिंग इसी महत्व को धार्मिक कलेवर में प्रस्तुत करता है |
कुछ वर्ष पहले मुरादनगर में हमारे परिचित एक युवक के साथ एक गम्भीर दुर्घटना हो गयी थी |बहुत प्रयास के बाद जीवन तो बच गया लेकिन चोटें गम्भीर थीं |उस समय शुभचिंतकों की सबसे बड़ी चिंता यह थी कि उसकी जननेन्द्रियां सहज-स्वस्थ हों ताकि वह अपना परिवार चला सके|
उस समय उसकी जननेन्द्री को बचा रहना और सक्रिय रहना एक पारिवारिक और सामाजिक आवश्यकता थी |शिवलिंग की पूजा को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए |
उपर्युक्त सन्दर्भ में जब शिवलिंग का अध्ययन करते हैं तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है | इसमें पति पत्नी के प्रेम को यदि अलग भी कर दें तो भी पति-पत्नी का अस्तित्व - एकत्व तो प्रतिबिंबित होता ही है |
किसी कवि ने लिखा है-एक बताशा मैं भई, पिया रूप है ताल |
डूब डूब पी ताल में ,घुल घुल हुई निहाल ||
इस प्रेम में कितना रस है,इसकी कल्पना करके सुध-बुध खो जाती है और गोपी कह उठती है -
जब जब बाजे बांसुरी, रहे न मुझको ध्यान ,
गोपी हूँ या बांसुरी या मुरली की तान |
अध्यात्म में भक्त और भगवान का प्रेम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है |प्रेम जब इश्क़ हो जाता है तो यह गीत जीवंत हो जाता है कि -
यारा हो यारा इश्क़ ने मारा ,
हो गया मैं तो तुझमें तमाम
मैं बेनाम हो गया...
शायर के शब्दों में-
मैं वी हाँ ते तूँ वी ए ,एह गल कुझ जचदी नहीं
मैनूं अपनी होंद ते ,इंकार करना पयेगा...
यह वैसी अवस्था है जिसके अंतर्गत अपना अस्तित्व को प्रिय के अस्तित्व में विलीन हो गया हो |इस दृष्टि से देखें तो पार्वती जी शिवजी में विलीन हो गयी हैं |
कौन किसमेँ विलीन हुआ यह प्रश्न अनावश्यक है |यह ओत-प्रोत मामला है |बाबा बुल्ले शाह कहते हैं कि -
इक्को लिख्या ते इक्को पढ़या कौन कहे तू दो है,
हस्ती छड छड़ के वेख बुल्लेशाह ,जिसदा नाम जपे तू वो है |
पार्वती जी ने अपनी हस्ती शिवजी में विलीन की और एकत्व की अवस्था प्राप्त की | शिवजी अर्धनारीश्वर कहलाये |यह अलौकिक अवस्था है |शिवजी विलीन हुए अथवा पार्वती जी इस प्रश्न की कोई गुंजाईश अब नज़र नहीं आती क्यूंकि प्रेम में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता |
प्रेम ,खरीदो प्रेम से ,प्रेम ,प्रेम का मोल ,
दोनों पलड़े प्रेम रख,प्रेम ,प्रेम से तोल |
यहाँ दोनों के बीच बराबर का प्रेम चाहिए और आपसी सहयोग (co-operation) का स्तर इतना ऊंचा हो कि कहना पड़े-तू तू न रहे,मैं ,मैं न रहूँ ,इक दूजे में खो जाएँ |
- रामकुमार 'सेवक'