शिवजी की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे दयालु हैं इसलिए उन्हें भोला भंडारी भी कहते हैं |भोला शंकर भी उनका एक नाम है |
शिवजी जी तंत्र के भी देवता हैं चूंकि वे भूत -प्रेत -पिशाच आदि को भी स्वीकार करते हैं |उनके एकदम विपरीत गुण यह सिद्ध करते हैं कि गंगा की विराट धारा को अपनी जटाओं में रोकना किसी व्यक्ति के लिए संभव नहीं हैं |
मस्तक पर चन्द्रमा और और बीचोबीच तीसरी आँख की कल्पना यह प्रमाणित करती है कि यह निराकार को ही किसी कलाकार ने अपने ढंग से गढ़ा है |
शिवजी किसी शरीर विशेष में सीमित नहीं हो सकते लेकिन शिवजी को कोई व्यक्ति मानने की यह कल्पना अत्यंत रोचक है |उनके एक हाथ में डमरू है और दूसरे में त्रिशूल |जबकि वे रौद्र हैं |उसके कारण उनका नाम रूद्र भी है |डमरू गीत -संगीत से जुड़ा है और त्रिशूल युद्ध से लेकिन शिवजी तांडव भी करते हैं और दुष्टों का संहार भी इसीलिए ये दोनों गुण हमें जीवन की विविधता को दर्शाते हैं |
न जाने किस कलाकार ने मूर्ति की कल्पना को मूर्त रूप दिया और धीरे -धीरे मूर्ति पूजा का चलन शुरू हो गया |मूर्ति पूजा इंसान को परम सत्ता के विराट स्वरुप तक नहीं पहुँचने देती और वह प्रायः सत्य से दूर ही रह जाता है |
निराकार प्रभु की विराटता की चर्चा के स्थान पर मूर्ति पूजा का चलन कैसे शुरू हुआ यह अनुसन्धान का विषय हो सकता है लेकिन इसमें किसी की कुछ भी हानि नहीं है|कोई मूर्तिपूजा करे तो किसी को उसमें क्यों आपत्ति हो,पूजा की स्वतंत्रता तो हर व्यक्ति को है |चूंकि तस्वीरों से इंसान का लगाव काफी पुराना है |
जिन विचारधाराओं में मूर्ति पूजा का चलन नहीं उनके अनुयाई भी प्रायः निजी जीवन में तस्वीरों का उपयोग करते हैं |इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि परमात्मा एक है और निराकार है |पंजाबी भाषा में निराकार को निरंकार कहते हैं और निरंकार को जानना चाहिए |यह एक अन्य धारा है जिसमें अनहद नाद का भी अस्तित्व है |
मेरे ख्याल से शिवजी का अद्भुत अस्तित्व पुराणों में वर्णित एक मनोरंजक कल्पना है |दुनिया में जितनी भी विविधताएं हैं वे सब किसी न किसी रूप में शिवजी में मौजूद हैं |वे औघड़ हैं -जिसे कोई भी स्वीकार न करे उसे भी वे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार करते हैं |
यह इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि समुद्र मंथन से निकला विष भी उन्होंने सहज स्वीकार किया और नीलकंठ कहलाये |
दुनिया में जितने भी पशु-पक्षी हैं वे उनके भी नायक हैं इसलिए उन्हें पशुपति नाथ भी कहते हैं |
वे आदर्श प्रेमी हैं |माता सती के पिता ने शिवजी और सती को अपने यज्ञ में नहीं बुलाया |मायके से मोह किस स्त्री को नहीं होता |शिवजी के मना करने के बावजूद सती वहां गयीं और अपने प्रेमी व् पति शिवजी का अपमान सह न सकीं और उसी यज्ञ में उन्होंने अपनी आहुति दे दी |
इस अशुभ का शिवजी को पहले से ही अनुमान था |उन्होंने सती का शव अपने कंधे पर रखा और वहां पल भर भी न रुके |उन्होंने सती से गहराई से प्रेम किया और आगे बढ़ चले |
सती के अंग जहाँ-जहाँ गिरे वहां शक्तिपीठ निर्मित हुई |
हर शक्तिपीठ शिव और सती के प्रेम का अवशेष है |है ना आनंदपूर्ण कल्पना, जिसमें नर-नारी के अद्भुत प्रेम की प्रेरणा है |
शिवजी को शंकर,भोलेनाथ और त्रिपुरारी भी कहते हैं |कहते हैं कि परम्रश्वर ने जब सृष्टि का निर्माण किया तो उत्पादन का जिम्मा ब्रह्मा जी को दिया | सञ्चालन का जिम्मा विष्णु जी को और विनाश का जिम्मा शिवजी को दिया |ये तीनो देव ही सृष्टि का कार्य सञ्चालन करते हैं |शिवजी को महादेव भी कहते हैं |महादेव शब्द ही यह व्यक्त करने में सक्षम है कि शिवजी शेष दोनों से श्रेष्ठ हैं लेकिन तीनो में परस्पर कोई प्रतिदवंद्विता नहीं है |
यह भोतिक युग है और भौतिकता में प्रतियोगिता होती ही है लेकिन त्रिदेव में कोई होड़ नहीं है इसलिए कोई अशांति भी नहीं है |
शिव का अर्थ ही है -कल्याणकारी जबकि उनका कार्य विनाश का है और विनाश कभी भी किसी को कल्याणकारी नहीं लगता |
शंकर अथवा शिवजी के जीवन में विविधता चहुँ ओर विराजमान है |उनके एक हाथ में डमरू है और दूसरे में त्रिशूल |इस प्रकार संगीत और शस्त्र ,दोनों का समन्वय है |
उनकी जटाओं में गंगा है जबकि मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित है |उनके गले में सर्प हैं इस प्रकार यह सन्देश देने का प्रयास किया गया है कि जीवन में सर्प भी स्वीकार्य हैं |
मैं जब 1986 में सन्त निरंकारी प्रकाशन विभाग से जुड़ा तो सत्गुरु बाबा हरदेव सिंह जी मिशन के परमाध्यक्ष थे |वे बहुत सहज और सरल थे लेकिन उनके आस-पास जिस प्रकार के लोग कार्यरत थे वे उतने सरल नहीं था |इसके बावजूद उनकी सरलता और विशालता जनसमूह को अपनी ओर खींचती थी |उस समय मैंने एक कविता लिखी थी जिसमें बाबा जी की तुलना शिवजी के उस रूप से की गयी थी जो सर्पों के बीच रहता हुआ भी भोलानाथ है |
समुद्र मंथन के बाद चौदह रत्न निकले |उनके बंटवारे में विवाद हुआ तो सिर्फ विष पर |अमृत तो सब लेना चाहते थे लेकिन विष को किसी ने भी स्वीकार न किया |शिवजी ने उसे ग्रहण किया लेकिन कंठ से नीचे न उतरने दिया ,इसलिए उनका एक नाम नीलकंठ भी है |
शास्त्रों में उनकी बारात में देव-दानव ,भूत-प्रेत-पिशाच ,ऋषि-मुनि आदि सबको बिना किसी भेदभाव के शामिल दिखाया गया है |
वे कैलाश पर्वत पर सदा तपस्या में लीन रहते हैं तब भी गृहस्थ हैं |माता सती के बाद उन्होंने माता पार्वती से विवाह किया |
पार्वती भी अपने किस्म की खुद ही थीं चूंकि शिवजी की विविधता देखकर हिमालय और मैनावती अपनी पुत्री का शिव जी से विवाह करने के पक्ष में नहीं थे लेकिन शिवजी की विविधता से पार्वती को कोई भय नहीं लगा और वे अड़ गयीं और माता-पिता को शिवजी से उनका विवाह करना ही पड़ा |
शिव जी विवाह करने के बावजूद आदियोगी कहलाये क्यूंकि विवाह करके भी उन्होंने विविधता को धारण किये रखा |किसी को भी त्यागा नहीं |
पार्वती जी के बारे में प्रसिद्द है कि वे जिद्दी बहुत थी |विवाह तो शिवजी ने कर लिया लेकिन उन्हें यह भी ज्ञात था कि महल में सीमित रहना उनका स्वभाव नहीं है |पार्वती की ज़िद पर उन्होंने अपना महल भी बनवाया |लंका के रूप में पार्वती जी का स्वप्न साकार हुआ |रावण के पिता विश्रवा ने गृहप्रवेश करवाने की दक्षिणा में लंका ही मांग ली और सोने का महल बनवाने के बावजूद शिव जी का निवास कैलाश ही रहा |इससे हमें यह सन्देश मिला कि कोई भी भवन हमारी आत्मा का स्थायी निवास नहीं हो सकता |उनके दो पुत्र गणेश और कार्तिकेय पूजनीय माने जाते हैं |
गणेश जी माता -पिता के परमभक्त थे इसलिए जब भी किसी कार्य को शुरू करते हैं तो उसके लिए शब्द है -श्रीगणेश करना |
वास्तविकता यह है कि परमपिता परमात्मा एक निराकार सत्ता है और केवल यही सत्य है इसलिए सब प्रतीकों को प्रतीक के स्थान पर ही रखना चाहिए और सत्य को ही मन-वचन-कर्म से सत्य स्वीकार करना चाहिए |
देवों की जितने भी कथाएं हमने पढ़ी या सुनी हैं उनमें शिव प्रसंग सबसे रोचक हैं |उनके बीच बहुत सारे प्रतीक हैं जो अपने भीतर बहुत सारी शिक्षाएं समाहित किये हुए हैं |उन शिक्षाओं को अपने जीवन का अंग बनाना चाहिए |किसी कवि ने लिखा है कि-
आज हम ऐसी दुनिया में जीते हैं
जहाँ लोग शिव से ज्यादा विष को पीते हैं |
पूजा शिव की करेंगे और अनुकरण भस्मासुर का करेंगे ,यही मानव की विडंबना है |एक दिन मनुष्य की रूचि रचनात्मक होगी तब ही सही अर्थों में शिव की उपासना होगी |
- रामकुमार सेवक