वो सुबह से रात तक इसी कोठी में रहती थी ,घर का हर काम करती थी |मालिकों को उससे कोई समस्या नहीं थी और उसे तो कोई समस्या हो भी नहीं सकती थी |
शायद मैंने सही शब्द प्रयोग नहीं किये,मेरा कहना है कि समस्या तो उसको भी हो सकती थी लेकिन वह उसे कह नहीं सकती थी क्यूंकि जो बंधुआ मजदूर या गुलाम होते है वे रो तो सकते हैं परन्तु बोल नहीं सकते |
एक - दो तो उसके लिए बहुत ही भद्दे शब्दों का इस्तेमाल कर रही थीं जैसे कि बाज़ारू औरतों के लिए किये जाते हैं |
उनके घर के पुरुष उन्हें समझाने की कोशिश कर रहे थे कि लड़की का वापस मिलना कॉफी मशीन से कॉफी मग भर लेना मात्र नहीं है |
पुलिस के पास ऐसी कोई मशीन नहीं है कि तुरंत लड़की को ढूंढकर बरामद कर ले और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यदि हम स्वयं उसकी एफ. आई .आर. करवाएं तो खुद ही घेरे में आ जायेंगे क्यूंकि पुलिस वेरिफिकेशन के झमेले में पड़े बिना इन लोगों ने उसे काम पर लगा लिया था |
लड़की चूंकि झारखण्ड की थी और आदिवासी थी तो न उसे ठीक से हिंदी आती थी और न अंग्रेजी और पंजाबी भाषा तो उसके लिए ऐसी थी जैसे उत्तर भारतीयों के लिए तमिल या मलयालम |
लड़की चौदह -पंद्रह साल की लगती थी |गरीबी के कारण उसकी मौलिक जरूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही थीं | कम से कम पैसा देकर उसका वक़्त या सीधी भाषा में कहें तो एक निश्चित अवधि के लिए उसे खरीदा जा सकता था |
आदिवासी लोग अपने ही घर में अनजान हैं |एक तरफ आंदोलनकारी हैं,जिन्हें आदिवासी आम लोग जनता की भांति वोट नज़र आते हैं |दूसरी ओर सरकार है जिसे उनकी वास्तविक ज़रूरतों का पता ही नहीं होता |
उसके अफसर होते हैं ,वो अंग्रेजी भाषा में जो लिखते हैं सरकार उसे सच मानती है |किसी ज़माने में एक भोले प्रधानमंत्री ने जनता को साफ़ बताया था कि हम जो दिल्ली से एक रुपया भेजते हैं ,जनता तक पहुँचते-पहुँचते वह मात्र पंद्रह पैसे रह जाता है |पच्चासी पैसे बीच में ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे मालगाड़ी के डिब्बों में रखे टैंकर्स से पेट्रोल रिस जाता है |
वह रुपया जो गरीबों की गरीबी हटाने के लिए चला था उसने गरीबों की तो नहीं लेकिन अमीरों की गरीबी जरूर हटाई |गरीब और आदिवासी तो वैसे ही रहे,जैसे बजट आबंडित होने से पहले थे इसलिए उनके बेटे और बेटियां भी गरीब ही रहे |वे बेचारे पेट भरने के लिए पैसे वालों के घरों और दुकानों में काम न करें तो क्या करें |
झारखण्ड में बेशक खनिज सम्पदा भरी पडी है लेकिन उससे गरीब की गरीबी तो नहीं हटती इसलिए गरीब की बेटी महुआ को खोटी किस्मत का खत तो बांचना ही था |
दीनदयाल जी ने कृपा करके उसे रहने की भी जगह दे दी |सबके खाने के लिए ज़रुरत की चीजें वह ही तो बनाती थी तो स्वयं के खाने की चिंता अलग से न करनी पड़ती थी |
महुआ का रंग तो खूब काला था लेकिन कमनीयता भरपूर थी |पहले पहल तो उसे इसका पता न चला लेकिन घर के पुरुषों की नज़रें बहुत कुछ बोलती थीं जिसे सुनने से ज्यादा समझना पड़ता था और महुआ इस समझदारी से अब अनजान नहीं रह गयी थी |
पंजाबी परिवार था तो खाने -पीने की कोई कमी नहीं थी और बड़ी बात यह थी कि घर की मालकिन कुलवंत कौर कंजूस नहीं थी और उसकी औलादों में चूंकि कोई लड़की नहीं थी तो महुआ के प्रति उसमें दया भी थी |
कुलवंत कौर की दया से महुआ का शरीर निरंतर सुडोल होता जा रहा था |
दीनदयाल जी की कोठी में कई कमरे थे और महुआ को अक्सर ही उन कमरों में जाना पड़ता था -दिन में कुछ ज्यादा और रात को कुछ कम |
एक बार तो एक मेहमान ने उसे पकड़ ही लिया था लेकिन भला हो दीनदयाल जी की बीवी कुलवंत कौर का, ऐन वक़्त पर आ गयी और महुआ एक घातक तजुर्बे से बच गयी |
अब कुलवंत कौर ने कह दिया कि मेहमानो के कमरे में टोनी ही जाएगा ,महुआ उधर नहीं जायेगी लेकिन कौन क्या सोच रहा है उसके बारे में सही -सही समझ पाना किसी के वश की बात नहीं है | कुलवंत कौर भी नहीं समझ पायी |
वास्तव में घर के पुरुषो पर तो कुलवंत कौर का राज चलता था लेकिन मेहमान के रूप में कौन पुरुष घर में कब से कब तक ठहरेगा यह जानना असंभव तो नहीं था लेकिन कठिन अवश्य था क्यूंकि बड़ा परिवार था और घर के पुरुष कब किसी को साथ ले आएंगे ,यह जानना किसी ज्योतिषी के लिए भी मुश्किल था, कुलवंत कौर तो साधारण महिला थी |
असल में जवान लड़का और जवान लड़की जिस दिशा में सोचते हैं ,वह एक अलग ही दुनिया है |कुलवंत कौर के ज़माने में सख्ती काफी ज्यादा होती थी |नैतिक मूल्य कुछ ज्यादा ही ऊंचे होते थे |कुलवंत कौर को अक्सर ही अपने पिताजी की बात याद आती है ,वे कहा करते थे कि-ऐसी लड़कियों का मर जाना बेहतर है यानी जो अपने माँ-बाप की साख पर बट्टा लगाएं और किसी अज़नबी के साथ भाग जाएँ,ऐसी लड़कियों का मर जाना बेहतर है |
कुलवंत कौर के माँ -बाप इज्जतदार आदमी थे ,लड़की जैसे ही जवान हो,वो उसकी शादी कर देते थे |उसे सख्त हिदायत होती थी कि-जिस घर में तुम्हारी डोली आयी है,अर्थी भी उसी घर से निकलनी चाहिए |वह ज़माना ही कुछ ऐसा था कि लड़की को सब कुछ सहन करना पड़ता था |राक्षसों के बीच भी उससे देवी ही बने रहने की उम्मीद की जाती थी |कुलवंत कौर के संस्कार लगभग इसी प्रकार के थे इसलिए उसने महुआ को सुरक्षित करने की कोशिश की लेकिन महुआ का मन क्या चाहता है इसकी उसे खबर न थी |कुलवंत कौर ही क्या किसी को भी उसके मन की खबर न थी |
उस दिन उस मेहमान ने उसे पकड़ा तो वह उसकी मंशा भांप नहीं पायी और उसके गले से चीख निकल गयी और कुलवंत कौर ने उसे बचा लिया |अपनी नज़र में कुलवंत कौर ने यह दीन और धरम का बड़ा काम किया था लेकिन महुआ को उस पकड़ में जो मजबूती महसूस हुई ,वह उसे नए स्वाद की झलक दिखा गयी |
यदि अब भी उसे मेहमानो के कमरे में जाने की इज़ाज़त होती तो हो सकता है उसे इसका पूरा एहसास हो चुका होता |वही मेहमान अगर दोबारा मिल जाता या कोई और वैसा मेहमान मिल जाता तो उसने वह मजबूत पकड़ दोबारा महसूस की होती |
घर के लोगों पर तो कुलवंत कौर की पूरी नज़र थी इसलिए उम्मीद किसी मेहमान से ही थी |
हालाँकि यह एहसास करना और इज्जतदार भी बने रहना कठिन था लेकिन झारखण्ड के सुदूर गांव की एक लड़की के लिए पेट भरना ही बड़ी उपलब्धि थी क्यूंकि गरीबी की आग से जीवन को सुरक्षित बचा पाना कम से कम गांव में तो संभव नहीं था |
बहरहाल कुलवंत कौर का यह धर्म का काम महुआ को कोई खास पसंद नहीं आया |उसे लगता था कि वो मेहमान उसे दोबारा नज़र आये तो शायद इस एकरस ज़िन्दगी में कोई नया रंग पैदा हो |
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उसका नाम बलदेव सिंह था ,जो कुलवंत कौर के बेटे कीरत सिंह का दोस्त था |संगरूर का रहने वाला था |काम की तलाश में दिल्ली आया था |कीरत ने उसकी मदद करने का फैसला किया |
संगरूर का दिल्ली से फासला 300 किमी से भी कुछ ज्यादा ही है तो रात को बलदेव दीनदयाल जी की कोठी में ही रुका |
बलदेव सिंह चूंकि बेरोजगार था इसलिए खराब आदतों से दूर था |कुलवंत कौर इतनी जल्दी किसी पर यकीन तो न करती थी लेकिन रात में ही संगरूर वापस जाना मुश्किल काम था इसलिए कीरत की बात मान ली |उसे ऊपर के कमरे में पनाह मिली |
दिल्ली से झारखण्ड जितना दूर था उसके अनुपात में पंजाब नजदीक था |महुआ जब दीनदयाल जी के घर में काम करने के घर लिए आयी थी तो दस-बारह साल से अधिक की न थी |गांव से आयी थी और ज़रूरतमंद थी इसलिए मेहनती भी थी और ईमानदार भी
उसके गांव में बिजली न थी इसलिए मनोरंजन भी न था |मनोरंजन की ज़रुरत भी महसूस न होती थी क्यूंकि एक दिन भी ऐसा न होता था जब रात को गोलियों की आवाज़ न आती हो |
उसके चाचा महावीर तिग्गा कभी नक्सलवादी थे लेकिन समानता लाने का कोई उपाय उन्हें नक्सलवाद में न मिला |वे खूब पढ़े -लिखे थे ,आयुर्वेद की डिग्री भी उनके पास थी लेकिन नक्सलवाद के पास आयुर्वेद की योग्यता की इतनी ज़रुरत नहीं थी ,जितनी कि गोला-बारूद की |
महावीर जी आदिवासी तो थे ,गरीब भी थे लेकिन हिंसक नहीं थे |नक्सलवाद की समानता की बातें तो उन्हें आकर्षित करती थीं लेकिन हिंसा से तो सिर्फ बदले की आग ही ज़रा शांत होती थी -उस शांति में समानता की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती थी |
हिंसा का विरोध उन्हें अपने ही लोगों में बाग़ी बना देता था इसलिए उन्होंने चुप्पी साधने की कोशिश की और एक रात मोतिहारी से भाग निकले |
चाचा महावीर महुआ को हमेशा से आकर्षित करते थे क्यूंकि उनकी बातें महुआ को आराम से समझ में आ जाती थी |चाचा के बारे में नक्सलवादियों को पता चल गया था कि वे दिल्ली में हैं |बापू से यह बात महुआ को पता चली और उसने चाचा के नक़्शे कदम पर चलने का फैसला किया |
गरीब आदमी को अपने गांव -घर से ज्यादा लगाव होता है लेकिन भूख की तृप्ति पहली चीज है |गांव का वातावरण भी अब पहले जैसा नहीं रहा था |हिंसक वातावरण ने हालात बहुत भयावह बना दिए थे |पुलिस लगातार आती रहती थी |जहाँ भोजन -कपडे तक की समस्या हो,वहां के गरीब गांव वाले पुलिस को दे ही क्या सकते थे |
पुलिस गांव में आती तो लोगों की सुरक्षा के बदले कुछ न कुछ चाहती |बेटियों की ज्यादा समस्या थी -उन पर पुलिस की भी नज़र थी और नक्सलवादियों की भी |
उसकी एक सहेली ने उसे बताया कि कुछ लोग दिल्ली से आये हैं,वे हमें काम देंगे और खाने-कपडे की चिंता नहीं रहेगी,कुछ पैसा भी मिलेगा |दिल्ली में रहने और खाने की जिम्मेदारी उनकी |बात महुआ को पसंद आ गयी |
पवनिया कुछ दिन धनबाद रही थी,वहां उसके चाचा कोयले की खदान में मजदूरी करते थे |कुछ साल वहां रहने के कारण उसने आठवीं क्लास पास कर ली थी |कामचलाऊ हिंदी पढ़-लिख लेती थी लेकिन महुआ पांचवी कक्षा भी पार नहीं कर सकी थी |
दिल्ली में महुआ और पवनिया दोनों एक जैसी थीं |जो लोग उन्हें लेकर आये वो अपनी मैनपावर एजेंसी चलाते थे और दफ्तरों और घरों में कामगार व् क्लर्क आदि मुहैया करवाते थे |दोनों लड़कियां दिल्ली शहर के हिसाब से पढ़ी-लिखी नहीं थी इसलिए दोनों को अलग -अलग दो घरों में रखवा दिया गया |लड़कियों में कोई खराब आदत नहीं थी इसलिए इज़्ज़तदार घरों ने उन्हें काम पर रख लिया |
एजेंटों ने मालिकों से अपना कमीशन लिया और लड़कियां उनके हवाले कर दीं |
इस घर में आने के बाद पवनिया से उसकी मुलाक़ात सिर्फ एक बार हुई,जब उसे अपनी बीमार माँ को देखने के लिए गांव जाना था |
महुआ को गांव जाकर अपनी माँ से मिलने का मन तो किया लेकिन गांव में पुलिस और नक्सलवादियों की जंग याद करके उसे लगा कि यह घर है तो वह ज़िंदा तो है और खाने-पीने की भी कोई दिक्कत नहीं है इसलिए वह गांव नहीं गयी |
कुलवंत कौर और दीनदयाल जी अपने बड़े बेटे के परिवार से मिलने कनाडा जाने की सोच रहे थे लेकिन महुआ न जाने किसके साथ चली गयी ,समझ नहीं आ रहा था |
उस दिन बलदेव सिंह दोपहर एक बजे कोठी पर लौट आया था |असल में कीरत ने जहाँ उसे काम के लिए भेजा वे साहब दिल्ली से बाहर थे और उन्हें लौटने में एक सप्ताह लगना ही था इसलिए उसने सोचा कि शाम की कोई गाड़ी पकड़कर संगरूर वापस लौट जाए लेकिन हफ्ते बाद इतना ही खर्चा करके फिर दिल्ली आना बहुत मुश्किल था |बलदेव सोच रहा था कि वापस जाया जाए या रुका जाए |
कीरत के घर में पांच दिन रुक नहीं सकता था गांव जाने और फिर आने में खर्चा बहुत था |
गर्मी के दिन थे तो कीरत ने सोचा कि बलदेव घर ही चला जाए ताकि खाना भी खा ले,और थोड़ी देर आराम भी कर ले |
बलदेव को इस समय घर आया देखकर कुलवंत कौर का माथा ठनका लेकिन चूंकि वह रात को कोठी में ही ठहरा था और पंजाबी कल्चर की आदी होने के कारण उसने गुस्सा नहीं किया |गुस्सा न करने का एक कारण यह भी था कि उसके सिर में तेज दर्द था |उसने सिरदर्द की गोली खायी थी और बाहर से आये लड़के को डांटने की हिम्मत न हो रही थी |
टोनी आज घर पर नहीं था तो बलदेव के लिए दरवाजा महुआ ने खोला |
बलदेव को देखकर महुआ को कुछ उम्मीद जागी |
बलदेव इस समय उलझन में था कि कोठी पर ही रहे या अपने घर वापस चला जाए |
युवक चाहे जितना खूबसूरत हो,लेकिन यदि वह गरीब हो तो उसे किसी बेटी का बाप नहीं पूछता | बलदेव जीवन के उस दौर में था जब इंसान लड़कियों के बारे में सबसे ज्यादा सोचता है |महुआ को देखकर उसने सोचा कि अगर यह गोरी भी होती तो कितनी सुन्दर लगती |बिना एक शब्द भी बोले वो उस कमरे में चला गया,जहाँ रात को सोया था |
कुलवंत कौर ने महुआ से कहा-टोनी,बाजार गया है,आधे घंटे बाद तू ही इस लड़के को खाना खिला देना |
यह आदेश देकर कुलवंत कौर लेट गयी |थोड़े ही समय में सिरदर्द की गोलियों ने असर दिखाना शुरू किया और वह सो गयी |
महुआ ने रसोई में खाना बनाने की तैयारी शुरू की |उसे याद आ गया कि वह भी ऐसा ही एक दिन था लेकिन समय रात का था |सब खाना खा चुके थे |टोनी उस दिन छुट्टी पर था इसलिए मेहमान के कमरे में दूध लेकर महुआ को ही जाना पड़ा |
मेहमान न जाने किस मूड में था कि उसने महुआ के दोनों हाथ पकड़ लिए |यह महुआ के लिए अप्रत्याशित था क्यूंकि कभी उसने ऐसी स्थिति को नहीं झेला था |उसे बहुत अजीब लगा और उसने जोर से कहा-झाई जी |
कुलवंत कौर पहले ही बचाव के लिए आ गयी थी और वो मेहमान एकदम घबरा गया और तुरंत उस कमरे से चला गया |
उसके बाद महुआ ने उसे कभी नहीं देखा लेकिन न जाने क्यों उस नौजवान की पकड़ उसे बुरी नहीं लगी थी |
उस दिन के बाद आज फिर ऐसे हालात बने थे कि नया तजुर्बा हो सकता था |यह भी अच्छा था कि महुआ की ईमानदारी और बलदेव की गरीबी पर कुलवंत कौर को कुछ ज्यादा ही भरोसा था ,वह यह भूल ही गयी कि बलदेव बेशक पंजाब का है और महुआ झारखण्ड की है लेकिन भाषा न मिलने के बावजूद दोनों गरीब वर्ग के हैं और गरीब यदि आपस में लड़ने की बजाय मेलजोल कर लें तो तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं |
सचमुच तूफ़ान खड़ा हो गया क्यूंकि बलदेव तो अगले दिन भी इसी कमरे में था लेकिन महुआ गायब हो गयी थी |
अगले दिन शाम की गाड़ी से बलदेव भी संगरूर रवाना हो गया ,महुआ वहां पहले ही पहुँच चुकी थी |दीनदयाल जी,कुलवंत कौर ,कीरत और सब महुआ के जाने का शोक मना रहे थे लेकिन महुआ और बलदेव इस शोक में शामिल नहीं थे |गरीब और गरीब मिलकर एक होने की तरफ बढ़ रहे थे |
- रामकुमार 'सेवक'