भक्ति में किस प्रकार की मेहनत की आवश्यकता है ?

क्ति में भी मेहनत करने की ज़रुरत पड़ती है |हो सकता है आपको मेरी यह बात काफी अलग लगे क्यूंकि ऐसी बात प्रायः सुनी नहीं है |

मेरे कहने का तात्पर्य यह बिलकुल नहीं है कि महात्मा मेहनत नहीं करते या अपनी जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाही करते हैं क्यूंकि बाबा हरदेव सिंह जी के शिष्यों ने सांसारिक जिम्मेदारियों को निभाने में कभी भी  कोई कोताही नहीं की बल्कि इतनी मेहनत की कि उद्देश्य और साधनो के नैतिक-अनैतिक होने का भी ध्यान नहीं रखा |

या यह भी हो सकता है कि सांसारिक चूहा दौड़ में यह सब सोचना आवश्यक नहीं लगा हो लेकिन यथार्थ यह है कि निरंकार(परमात्मा) कोई कल्पना नहीं है बल्कि त्रिकाल सत्य वास्तविकता है |जो भी हम सोचते-कहते या करते हैं इसके कैमरे में रिकॉर्ड हो जाता है इसलिए उसके गुण-दोष से बचना संभव नहीं है |गुण-दोषों के आधार पर ही हम किसी से दुआ लेते हैं और किसी से बद-दुआ|

जैसे  निरंकार (परमात्मा) का होना वास्तविकता है इसी प्रकार दुआ -बद्दुआ भी वास्तविक है |

बहरहाल बात हम मेहनत की कर रहे थे |तीन-चार दिन पहले बाबा हरदेव सिंह जी का एक प्रवचन सुना ,जिसमें बाबा जी मेहनत पर बहुत जोर दे रहे थे |उनका कहना था कि गुरु को खुद पर भी मेहनत करनी होती है और अपने अनुयाईयों पर भी |खुद भी पुख्ता यकीन रखना होता है और जो भी ज़रा सा भी विचलित होता है तो उसे भी मजबूत करना होता है |

बाबा जी ने एक शायर को उदधृत किया- 

मन अपना पुराना पापी था ,बरसों में नमाजी बन न सका ,

मस्जिद तो बना ली शब् भर में ,बरसों ....

उनका कहना था कि धर्मस्थल बनाना इतना कठिन नहीं है जितना कि वास्तविक भक्त बनना |वास्तविक भक्त को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा-

ऐसा कोई न जन्मया,जो निज घर लावे आग 

पांचो लरिका जारि दे, लिव राम संग लाग |

आगे उन्होंने यह भी कहा-कुछेक ही ऐसे होते हैं ,जो इन पांचों पर विजय प्राप्त करते हैं |भक्ति की कठिनाई बताते हुए उन्होंने कहा-

निज घर लावे आग अर्थात अहंकार को ख़त्म कर देना |

पांचो लरिका अर्थात -काम - क्रोध, लोभ , मोह, अहंकार को जलाकर एक प्रभु के साथ प्रीत जोड़े रखनी |

आगे उन्होंने कहा -

मौत तो जब आएगी तब आएगी लेकिन उससे पहले अपने विकारों को मार डालना |

बाबा जी ने कहा-जब मौत आएगी तो मरेंगे ही लेकिन उस मौत के आने से पहले अपने विकारों को ख़त्म कर दें तो उनके बारे में महात्मा कहते हैं -

जे तूँ मरे मरण ते अग्गे ते मरण दा मुल पायेगा |

उन्होंने कहा - लोग अपने विकारों को नहीं मारते बल्कि औरों को मारने की ताक में लगे रहते हैं | 

प्रवचन की गहराई बहुत थी |मुझे इसके मर्म तक पहुँचने के लिए इसे चार बार सुनना पड़ा | 

बाबा जी ने कहा - हर कोई दूसरे को नीचा दिखाने में लगा रहता है |

विषय को थोड़ा हल्का करते हुए बाबा जी ने अकबर और बीरबल का एक हास्य प्रसंग सुनाया कि किस प्रकार दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाना चाहते थे |

 बाबा जी ने कहा कि भक्ति मेहनत चाहती है,तपस्या चाहती है |तपस्या अर्थात अपने विकारों को ख़त्म करना साथ ही अपने सांसारिक कर्तव्यों को भी महत्व देना |     

 - आर.के.प्रिय