कुछ कवितायेँ - रामकुमार 'सेवक'
तमाशा

यह दुनिया अजब तमाशा है, कहीं आशा, कहीं निराशा है |

राग-द्वेष के रंग में डूबी, जीवन की परिभाषा है |

कोई नर्म बिस्तरों पर लेटे, कोई पड़े हैं नंगी सड़कों पर 

कोई दाने-दाने को तरसे, कोई रखते हैं भंडारे भर 

सब नकली चेहरे लिए फिरें, गाली-गोली की भाषा है...यह दुनिया...


कहीं घी के दीप जलें हरदम ,कहीं घोर अन्धेरा छाया है 

कहीं रोटी को तरसें बच्चे, कुत्ते ने बिस्कुट खाया है 

सब बदहाली पर हँसते हैं, कोई देता नहीं दिलासा है...यह दुनिया...


इंसा का खून पिए इंसा ,ऐसी भी घड़ी अब आई है 

कटते हैं गले अपनों के यहाँ ,इंसा बना कसाई है 

हो गयी रौशनी धुंधली सी ,सूरज को ढके कुहासा है...यह दुनिया...


आँखों पर धूल  समाई है ,कुछ देता नहीं दिखाई है |

मरने और मारने वाले दोनों भाई-भाई हैं |

नहीं राह सूझती अब कोई सेवक यह अजब हताशा है...यह दुनिया...


इक दुनिया बदलेगी ही ,हवा प्रेम की मचलेगी ही 

रुक जाएंगे खोखले नारे धूप प्रेम की निकलेगी ही 

शायद ये सपने सच होंगे, मानवता की अभिलाषा है...यह दुनिया...

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खिलौना 

हरी एक छोटे बालक सा खेल रहा है खेल सलोना 

मानव तन है एक खिलौना, इक पल हंसना, इक पल रोना |


सुन्दर और असुंदर कुछ है |कोई उच्च है कोई तुच्छ है 

ऊपर -ऊपर से देखें तो भेद बहुत इसमें सचमुच हैं 

जो कुछ भी है पाया निशदिन,इक दिन वो सब कुछ है खोना - मानव तन है...


गहरी दृष्टि से देखें तो इक का ही विस्तार है सब में 

धरती -अम्बर -चाँद-सितारे ,सकल पसारा है इक रब में 

इसी में सब आते जाते हैं ,इससे नहीं जुदा कुछ होना...मानव तन है...


रिश्ते-नाते रूप अनेको ,कागज़  की पतवार हैं देखो 

चेहरे सबके जुदा-जुदा हैं ,ज्यों गुल अंदर खार हैं देखो 

आत्मभाव से देख सकें तो नहीं पडेगा इनको ढोना...मानव तन है...


जो चाहे मैं कर  सकता हूँ,अमर हूँ - मैं नहीं मर सकता हूँ 

समक्ष मेरे नहीं टिकता कोई - यम से भी न डर सकता हूँ 

मुँह छोटा घर बात बड़ी है,सर्वनाश के बीज है बोना...मानव तन है...


वक़्त सरकता है कुछ ऐसे ,मुट्ठी में बालू हो जैसे 

फिर भी धन को रहा बटोर -कंकड़ समझे हीरे जैसे 

जीवन को बर्बाद यूँ करना-खुली पलक सपने में सोना...मानव तन है...