लगभग 15 दिन हो गए गए हैं, नववर्ष का ज़िक्र इंटरनेट पर कहीं न कहीं पढ़ने को मिल ही जाता है |20-22 साल की उम्र तक मैं भी इसे एक ख़ास दिन मानता था लेकिन उन दिनों जबकि दूरदर्शन पर ही नववर्ष कार्यक्रम का आयोजन होता था और हम दर्शक के रूप में उससे जुड़े थे |टी.वी. देखकर रात को किसी दोस्त के घर से बाहर निकल रहा था तो ज़हन में प्रश्न गूंजा कि-जिसे हम नया वर्ष कह रहे हैं वह कहाँ है .कैसा है ?रात वही है,सड़क वही है,इमारतें वही हैं |घड़ी की दोनों सुइयां बेशक मिल गयी हैं लेकिन आपसी मिलवर्तन कहाँ है ?
मैं खोजना चाहता था वर्ष में नया क्या है ?नए होते थे सपने और सपनो की नियति ही टूटना है |कुछ अच्छा ,कुछ बुरा ,इसी प्रकार के मिश्रित परिणाम,हर वर्ष में |विशेष परिवर्तन कभी कुछ भी नहीं दिखा आज तक लेकिन उन दिनों नियम बना रखा था कि 15-20 शुभकामना कार्ड दोस्तों,सम्बन्धियों को भेजने का | वह सिलसिला तब तक चला जब तक कि इंटरनेट नहीं आया |
अब कार्ड्स की बात कोई नहीं करता ,फेसबुक और whats app के द्वारा ही ज्यादातर दोस्तों से संपर्क है |प्रत्यक्ष मिलन होता ही नहीं है क्यूंकि हम बहुत विकसित हो गए हैं ?
कोई वक़्त था हम अतिथि को भगवान मानते थे क्यूंकि अतिथि देवो भव का भाव हमारे दिलों में ज़िंदा था |तब हमारे घरों पर लिखा रहता था -स्वागतम |हम धीरे-धीरे व्यावहारिक और बहुत सीमित होते गए और घरों के द्वार पर लिख दिया गया -कुत्तों से सावधान (Beware of dogs )
नव वर्ष आते गए और 365 दिन बाद जाते रहे |चाचा-चाची ,ताऊ-ताई ,मामा-मामी ,बुवा-फूफा आदि संबंधों के स्थान पर दो-नए शब्द आ गए-अंकल और आंटी |
इससे बहुत सुविधा हो गयी ,बहुत सारे संबंधों के नाम याद रखने से बच गए |इस प्रकार हम विकसित हो गए लेकिन चाचा -चाची या बाकी संबंधों का अपना एक इतिहास था ,कुछ परम्पराएं थीं ,जो कि उस देश में होती ही नहीं जहाँ से अंकल और आंटी शब्द पैदा हुए हैं |
मैं उस देश को निम्न या हलके में नहीं लेना चाहता लेकिन मातृभूमि की अपनी विशेषता होती है |मेरा जन्म मुराद नगर (उत्तर प्रदेश )में हुआ था |कुछ दोस्तों की कृपा से पिछले रविवार मुझे वहां जाने का अवसर मिला |सामने लहलहाते खेत देखकर मुझे याद आ गया-
जननी -जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है |
यह सोचकर दिल को बहुत सुकून मिला |
पाठक कहेंगे कि मैं पुराने रिश्तों और परम्पराओं की बातें क्यों दोहरा रहा हूँ ?जहाँ हम हैं क्या उससे पीछे जाना जरूरी है और क्या ऐसा होना संभव है ?क्या यह पिछड़ापन नहीं होगा ?
मेरा कहना मात्र इतना सा है कि वसुधैव कुटुंबकम अर्थात पूरी पृथ्वी हमारा परिवार है- हमारे बुनियादी जीवन मूल्यों में से हैं |मातृ देवो भव ,पितृ देवो भव,राष्ट्र देवो भव ,अतिथि देवो भव हमारे बुनियादी जीवन मूल्य हैं जो कि भारत को विश्वगुरु की श्रेणी में लाते हैं |
कभी ह्वेनसांग और मेगस्थनीज़ भारत से सीखते थे अब यहाँ विदेशी और विधर्मी (विशेषकर महिलायें ) खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं |गाँधी ,बुद्ध और राम-कृष्ण के उपदेश हमारे जन-जीवन से लुप्त हो चुके हैं | अब भारत में गुरु ही गुरु हैं लेकिन ऐसा गुरु कहीं दिखाई नहीं देता जो हमारे शाश्वत जीवन मूल्यों की प्रासंगिकता अथवा उपयोगिता हमें समझा सके |
हमें विकास की अपनी परिभाषा पर ठन्डे दिमाग से विचार करना चाहिए |बुनियादी जीवन मूल्यों और अपनी पारिवारिक अथवा सांस्कृतिक विरासत को त्यागकर कोई भी विकास पूर्ण नहीं हो सकता |
विकास का अर्थ है दिल का बड़ा होना ,मिलवर्तन बढ़ना ,विजन बड़ा होना |होटलों में पार्टियों में पैसा खर्च करते समय उनके बारे में भी सोचें जो एक-एक रोटी की तरफ ललचायी नज़र से देखते हैं |यदि ऐसा हो तो तभी देश -दुनिया का भला होगा |किसी ने लिखा है-
किसी की मुस्कराहट पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है ...
आईए इस वर्ष में कुछ ऐसी सार्थक पहल करें जिससे मानवता का भला हो और देश,समाज व् विश्व के विकास में हमारा कोई वास्तविक योगदान हो सके |
- रामकुमार सेवक
(साभार-प्रगतिशील साहित्य-जनवरी 2018)