राजनीति शिकारियों का जंगल है या समाजसेवा का माध्यम ?

राजनीति एक पवित्र नीति या माध्यम है बशर्ते राजनीतिज्ञ श्रीकृष्ण, राजा जनक, आचार्य चाणक्य अथवा महात्मा गाँधी, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला जैसी विभूतियाँ हों | संविधान सभा में विधिवेत्ता डॉ. अम्बेडकर का यह वक्तव्य अक्सर ही याद किया जाता है कि -

कोई संविधान चाहे जितना भी बढ़िया क्यों न हो वह आदर्श सिद्ध नहीं हो सकता यदि उसे लागु करने वाले व्यक्ति ठीक न हों |

हमें स्वतंत्रता दिलाने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों अथवा शहीदों ने निष्काम योगदान दिया लेकिन इस समय निष्काम सेवा की तो छोड़ ही दीजिए ,सेवा का भी चलन नहीं है |राजनीति जैसे सोने का अंडा देने वाली मुर्गी हो गयी है चूंकि जो भी राजनीति में सक्रिय है वो उसके बदले में इतना फल चाहता है कि उसका और उसकी सात पुश्तों का उद्धार हो जाये |

फल प्राप्ति की इच्छा कोई बुरी बात नहीं है लेकिन राष्ट्र निर्माण अथवा देश की सेवा भी तो की जाए |कुछ वर्ष पहले फ़र्टिलाइज़र घोटाला हुआ था |उसके बारे में सुना है कि बिचोलिये को कमीशन की अदायगी हो गयी जबकि माल आया ही नहीं |

यह तो ऐसा ही हुआ जैसे  वृक्षारोपण के लिए तीन श्रमिकों को  काम पर लगाया गया |पहले श्रमिक ने गड्ढा खोदा ,अपनी ड्यूटी पूरी कर दी |दूसरे श्रमिक  ने छुट्टी ले ली |तीसरे श्रमिक का काम था गड्ढे को भरना |तीसरे ने उस गड्ढे को भर दिया जो पहले श्रमिक ने खोदा था |वृक्षारोपण वास्तव में हुआ नहीं और ड्यूटी पूरी हो गयी |

यह तो एक हास्य-व्यंग्य है लेकिन  आजकल हो यही रहा है |माल आता नहीं और कमीशन नियमानुसार बंट जाता है |

यह तो सत्य है कि सेवा सिर्फ भक्ति अथवा अध्यात्म तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन का अनिवार्य अंग है |देश और समाज के परिपेक्ष्य में अनेक संस्थाएं सक्रिय हैं |उनमें से अनेक में लोग आत्मसंतुष्टि के लिए कार्यरत हैं | प्रजातंत्र का आधार ही सेवा है लेकिन राजनीति में सेवा नारे से ज्यादा महत्ता नहीं रखती |वर्तमान समय में परिस्थितियां और भी ज्यादा भयावह हैं |

16दिसंबर को कर्नाटक विधानसभा में विधायक और विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष रमेश कुमार ने महिलाओं को लेकर बेहद शर्मनाक बयान दिया है। उन्होंने कहा कि एक कहावत है कि जब रेप होना ही है तो लेट जाओ और इसके मजे लो।

कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष विश्वेश्वर हेगड़े कागेरी इस बयान पर कोई एक्शन लेने की बजाय हंस पड़े।इस सदस्य का सम्बन्ध कांग्रेस से है |इस शर्मनाक बयान ने राजनीति और राजनीतिज्ञों की संवेदनशीलता बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है |कांग्रेस में महात्मा गाँधी भी रहे हैं जिन्होंने सेवा की परिभाषा गढ़ी और अपने अनुयाइयों को सेवा और मानवता को व्यवहार का अंग बनाने की प्रेरणा दी |ऐसी पार्टी का कोई विधायक नारी सम्मान का मज़ाक बनाये तो ज्यादा बुरा लगता है और हमारी संवेदना को लहूलुहान कर देता है|

यह विधायक जब इस भद्दे मज़ाक को अंजाम दे रहा था तब सदन के कुछ सदस्य हँस रहे थे |  

वे सब यह बिलकुल भूल चुके थे कि यह घिनोना अपराध किसी स्त्री को उस स्थिति में ले आता है कि वह न जीवितों में रहती है,न मृतकों में |जीवन के सारे सपने यूँ बिखर जाते हैं जैसे आंधी में कागज़ की बिखरी चिन्दियाँ ,जिन्हें कभी भी पुरानी स्थिति में नहीं लाया जा सकता चाहे अदालत में वह जीत भी जाये |

लेकिन संवेदनहीनता की यह स्थिति किसी पार्टी विशेष की विडंबना नहीं है |

मुझे एक और पीड़ा भी कचोट रही है जो कि भारत के गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी के अमर्यादित व्यवहार को लेकर है |

अमर्यादित शब्द घटना के साथ न्याय नहीं कर पा रहा चूंकि उसमें कई किसान और एक पत्रकार मृत्यु को प्राप्त हुए |

उनकी वीडियोज को यदि देखें तो उनका अपना आपराधिक इतिहास है |अफ़सोस की बात यह है कि  उस आपराधिक इतिहास पर उन्हें पश्चाताप नहीं ,गौरव लगता है |उनकी अन्य वीडिओज़ को यदि देखें तो स्थिति और भी भयावह नज़र आती है |  

वे पत्रकारों से दादागिरी के स्वर में बात करते हैं जबकि सार्वजानिक जीवन में क्रोध की गुंजाईश नहीं है |

जाँच में पता चला कि उनके बेटे आशीष मिश्रा ने किसानो को अपनी गाड़ी से कुचला |उन किसानो के भी आश्रित रहे होंगे ,जिम्मेदारियां भी रही होंगी लेकिन उन्हें निर्ममता से कुचल दिया गया |उन दिनों जब आशीष मिश्रा का नाम आया तो मंत्री महोदय द्वारा कहा गया कि वह किसानो के प्रदर्शन स्थल पर था ही नहीं |चोरी और सीनाजोरी जनसेवा का कौन सा रूप है ,खोजना होगा |

बाद में न्यायालय ने राज्य पुलिस द्वारा शुरूआत में लगायी गयीं धाराएं बदलीं और सख्त धाराएं लगायीं |इसका अर्थ यह है कि मंत्री महोदय और उनके सुपुत्र जिसे अंजाम दे रहे थे वह कहीं ज्यादा संगीन अपराध था |जिसके अनुसार सही धाराएं लगाने की राज्य पुलिस की हिम्मत ही नहीं पडी |

यह सरकार नयी राजनीतिक संस्कृति और प्रगतिशील राष्ट्रवाद के सपनो के साथ सत्ता में आयी थी लेकिन उन सपनो को ज़मीन पर नहीं ला पायी |

राजनीतिज्ञों और अपराधियों की सांठ-गाँठ पर अध्ययन करने के लिए वर्षों पहले वोहरा आयोग का गठन किया गया था |अक्टूबर 1993  में उसकी रिपोर्ट आयी लेकिन उसे सार्वजानिक नहीं किया गया |वास्तव में सत्ता स्वयं को कभी दोषी नहीं मानती और निरपराध लोग ज़ुल्म झेलते और मरते जाते हैं |खेद की बात यह है कि सत्ता का स्वभाव अब भी ऐसा ही है |

2019 में जब यह लोकसभा अस्तित्व में आयी थी तो नये सदस्यों के चरित्र का विश्लेषण अख़बारों में प्रकाशित हुआ था कि कौन -कौन अपराधों की दुनिया में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष दखल रखते हैं |यह विश्लेषण प्रजातंत्र की विडंबना का कच्चा चिटठा खोलता था |प्रश्न उठता है कि राजनीति जनसेवकों का सेवा क्षेत्र है या अपराधियों का अभयारण्य ? यह चिंतन हर एक को अलग-अलग करना होगा |            

आर.के.प्रिय