महात्मा कहते हैं - गुरु और पारस में बड़ो अन्तरो जान
वो लोहा कंचन करे ,गुरु करे आप समान |
इसका अर्थ समझना कठिन नहीं है लेकिन मेरे जीवन में दो अवसर ऐसे आये हैं,जब हम पर गुरु की छत्रछाया नहीं थी |
पहला अवसर आया,24 अप्रैल 1980 को | 25 और 26 अप्रैल को हम पर सतगुरु की छत्रछाया नहीं थी |वर्ष 2016 में फिर ऐसा ही कठिन समय आया |उस समय सवाल आया कि क्या मुझमें गुरु की ताक़त है |भीतर से उत्तर मिला -नहीं |
प्रश्न उभरा -क्यों नहीं है ?क्या गुरु का आशीर्वाद हम सबको नहीं मिला ?
उत्तर आया-आशीर्वाद तो सबको दिया गया लेकिन गुरु की ताक़त किसी में नज़र नहीं आ रही ?
प्रश्न उभरा कि-ब्रह्मज्ञान यदि सबके पास है तो सबमें गुरु की शक्ति क्यों नहीं है ?क्या गुरु पारस नहीं था या दिक्कत हमारी तरफ से है ?
आज सुबह बाबा हरदेव सिंह जी के प्रवचन (रिकॉर्डिंग )सुन रहा था -बाबा जी ने फ़रमाया कि-गुरु शिष्य को वही ब्रह्मज्ञान प्रदान करता है,जो उसे अपने गुरु से मिला है |
यहाँ तक कि गुरु अपनी जगह भी दे देता है |गुरु के आसन पर भी शिष्य को बैठा दिया जाता है ,ऐसा आदेश दे दिया जाता है |उस आसन पर बैठने के बाद शिष्य का भी वैसा ही सत्कार होता है,जैसा गुरु का |सब उसे उसी प्रकार नमस्कार करते हैं फिर भी उसमें गुरु की ताक़त पैदा नहीं होती ,क्यों ?
बाबा जी ने कहा -गुरु को जब शिष्य नमस्कार करते हैं तो गुरु सोचता है कि ये मेरे सिर के ताज हैं |गुरु की भेद दृष्टि नहीं समदृष्टि होती है |वह किसी को छोटा-बड़ा ,अमीर-गरीब या ऊंच-नीच समझकर नहीं देखता बल्कि समझता है कि ये सब मेरे सिर के ताज हैं |
बाबा जी ने कहा-वही ज्ञान और आसन होने के बावजूद यदि भेद दृष्टि बनी रहती है तो फिर शिष्य वह ताक़त हासिल नहीं कर पाता जो गुरु में होती है |
ब्रह्मज्ञान तो कृपासाध्य है,गुरु की कृपा से यह हासिल हो जाता है लेकिन गुरु वाली दृष्टि गुरु वाली श्रवण शक्ति (सुनने की क्षमता) के gलिए अर्थात भक्ति की उपलब्धि हासिल करने के लिए तो कोशिश भी चाहिए और मेहनत भी |
श्रम के बिना सिद्धि असंभव है |सिद्धि से मेरा भाव तांत्रिकों की सिद्धि में सीमित नहीं बल्कि यदि किसी ज्ञान को सिद्ध करना है तो उसे व्यवहार में लाना लड़ता है |बिना व्यवहार किसी भी गुण या ज्ञान की किसी भी शाखा को पूर्ण ऊंचाई तक विकसित कर पाना संभव नहीं लगता | ब्रह्मज्ञान तो कृपासाध्य है लेकिन भक्ति के गुणों कोई धारण करके पूर्ण भक्त सिद्ध होना तो श्रमसाध्य भी है |गुरु का काम दिशा दिखाना है,उसके अनुसार चलना तो पूर्णतः शिष्य का कर्तव्य है |