लघुकथा - बस एक दिन और...

माँ जी, अब आप घर जा सकती हैं।कल दोपहर तक आपका नाम पेंशनरों की सूची में चढ़ जाएगा।

बेटा... भगवान तुम्हारा भला करें।कहती हुई जुड़ से गये घुटनो के बल उठने का सार्थक प्रयास कर, आफिस से बाहर चल दी। बाहर कुर्सी पे बैठा चपरासी बुढ़िया को देखकर  बोला - अम्मा, क्या बोले साहब जी।

बेटे तुम तो कह रहे थे कि साहब गुस्से वाले हैं। वे तो बहुत ही अच्छे हैं।मेरे सामने ही मेरे सारे कागज तैयार करवा दिए। बड़े भोले हैं.... कहते हुए आगे बढ़ गई।

शाम के लगभग पांँच बजने वाले थे।सभी कर्मचारी अपना-अपना काम-फाइल समेट भागने की तैयारी कर रहे थे मानो उन्हें टोक्यो ओलम्पिक का टिकट मिल गया हो।

साहब किसी कागज की तह में गये हुए थे कि असिस्टेंट ने आकर कहा- सर। आपकी ट्रांसफर हो गई है। ये देखिए......कहते हुए उनको सर्कुलर थमा दिया।

साहब ने पूरा सर्कुलर पढ़-देखिए, सर्कुलर के अकॉर्डिंग मुझे कल नई जगह ज्वाइन करना है जो यहांँ से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर। आज रात ही निकलना होगा।

कल वो अम्मा आएंगी।उनकी फाइल पे कमिश्नर सर के साइन होने हैं। कल जरूर करवा देना।

जी सर। आप चिंता करें।

अगले दिन ठीक दस बजे अम्मा ऑफिस जा पहुँची। उसे आती देख वहाँ बैठा चपरासी- अरी अम्मा,कहांँ मुँह ठाये भागी चली रही हो। 

अरे बेटा....साहब से मिलना है।

साहब तो गये।

मतलब

मतलबउनकी बदली हो गई है। नए साहब आएँगे दोपहर तक।

नए साहब।कल ही तो बैठे थे। 

अम्मा। तख्ता पलटते देर नहीं लगती।

तुम यहाँ खड़ी रहो। जब नए साहब आये तो आना। अभी कुछ नही होगा। 

अम्मा दोपहर के दो बजे तक ऑफिस के बाहर पेड़ नीचे बैठी रही। एक गाड़ी ऑफिस ओर बढ़ती दिखी। बुढ़िया सकते में उठी। गाड़ी से भारी भरकम,मोटी तोंद लिए,बड़ी-बड़ी मूछों वाले अधेड़ सी उम्र के बाबू निकले। 

ऑफिस कर्मचारियों ने बड़ी जोशी से उनका स्वागत किया। बुढ़िया दूर खड़ी,सहमी सी सब देखे जा रही थी।

उन्हें साहब की कुर्सी पे बैठे देख कमरे ओर बढ़ गई। 

कमरे की दहलीज पे खड़ी हो-बाबू जी ,नमस्ते।  

बाबू का कोई ध्यान नही गया या अनसुना कर दिया। 

बुढ़िया के दूसरी बार कहते ही, दूर शौचालय के पास हाथ मे खैनी रगड़ते चपरासी की नजर उस पे  गिरी। 

अरे अम्मा.......मरवाओगी क्या। भाग कर कमरे तक आया। उसे पकड़ कमरे के बाहर करते हुए- तुम ऐसे ही अंदर घुसे जा रही हो।

 बेटे...साहब ने बोला था आज कागज मिल जाएगा।

 अरे अब वे यहाँ नही हैं। अब कुछ नही हो सकता।

 एक बार नए साहब से मिलने दो।

 तुम पीछे हट जाओ।अभी लंच होने वाला है। तीन बजे मिलना। चलो बाहर निकलो।

 दुखी सी बुढ़िया,अपनी  आशाओं का जी टूटते देख बाहर हो ली। बिन कुछ खाये-पिये पेड़ नीचे लेटी रही। यही सोचती रही कि बदली कौन करता है  और क्यो करता है ? और फिर ये बदली इतनी जल्दी ही क्यो हुई ?

 सैकड़ो क्यों दिमाग मे रक्त की भांति दौड़े जा रहे थे पर एक भी क्यों का जवाब उसके पास नही था।

 किसी तरह तीन पर सुई को देख, नए साहब के कमरे ओर घायल सांप की भांति सरकते हुए धीरे धीरे आगे बढ़ी।

 कमरे के बाहर चपरासी नही था पर साहब बैठे थे। अच्छा अवसर जान सीधे घुस गई।

 साहब जी नमस्कार।

 कौन ?

 मैं पास के गाँव की चन्द्रों। पेंशन बनवाने पिछले हफ्ते से रही हूँ।

पुराने साहब ने खुद कागज बनाये थे।एक बार आप देख लेंगे तो महरबानी होगी।

अरे चंदू....कहाँ मर गया। तुम बाहर बैठो। तब तक दूर से चंदू चपरासी भागे आया... अरे तुम फिर अंदर घुस गई।

चलो बाहर। उसे बाहर छोड़,डरते-डरते कमरे में घुसा।

ये क्या है ? तुम कहाँ मर गए थे।

साहब.....पानी पीने...

ये बुढ़िया कौन है

साहब जी ।पास के गांँव की है। पेंशन बनवाना चाहती है।

फिर..

साहब जी, मंडल सर ने कागज तैयार कर रखे हैं। बड़े साहब के साइन रहते हैं।

कुछ दिया-लिया क्या ?

अरे साहब जी। मंडल सर की बदली इसीलिए तो हुई। कुछ नही लेते थे।फ्री में सब काम करते थे। पूरा दिन लोगों की भीड़ लगी रहती थी। 

इनके कागज ले के आओ।

जी साहब जी।

दूसरे कमरे से चंदू कागज ले के लौटा।

ये लीजिए सर।

कागज देखते हुए..हूँ.. सब ठीक है उनके लिए पर हमारा क्या होगा

फाइल से सारे कागज बाहर निकाल दोनों हाथों से पकड़ फाड़ते हुए- चंदू बुढ़िया को बोलो। नई फाइल बनेगी।दोबारा सारे कागज लाओ और जब थक जाये तो सांठ-गांठ कर लो पर याद रखना कमीशन दस परसेंट ही मिलेगा।

 जी,साहब। जैसा हुकुम। कहते हुए बाहर निकल गया।

जिस फाइल को बनाने में बुढ़िया के महीनों लग गए उसे नए साहब ने कुछ ही सेकिंडों में रद्दी के सुपुर्द कर दिया।

बाहर बुढ़िया, इसी इंतजार में कि नया साहब आज शाम तक साइन करा देगा। वह भी जल्दी ही पेंशन की हकदार होगी। लोगो से एक कप दूध,टुकड़ों में कब तक रोटी मांगती फिरेगी।अभी इन स्मृतियों से बाहर ही नही आई थी कि चन्दू ने दूर से बोला-अम्मा, नई फाइल बनेगी। सारा प्रोसेस दोबारा होगा।

पर बेटा.... फाइल तो बन गई थी न।बस साइन ही तो रहते थे।

ये हम नही जानते।नए साहब ने कहा है नई फाइल बनाइये। सारे कागज फिर लगेंगे।समझी। अब जाओ.....

बुढ़िया के कुछ देर पहले बने सारे स्वप्न चूर चूर हो गए।अब उसमे इतनी हिम्मत नही बची थी कि फिर से फाइल बनाये। पेंशनर होने का स्वप्न दूर कहीँ गहरी खाई में समा चुका था।

उसके मरे से पैरों में अब हिम्मत नही थी उठने की गाँव ओर जाने की।फिर गांँव में उसका था ही कौन।वह वहीँ पेड़ नीचे बेसुध सी बारिश में  भीगी कच्ची माटी की दीवार सी ढह गई। यही सोचते हुए कि ये बदली क्यों होती हैं और कौन करता है। काश वे साहब एक दिन और रुक जाते.....बस एक दिन......"

- प्रोसतबीर कश्मीरी